राम को पूजने के लिए आपको खुद पुरुषोत्तम होना होगा अर्थात अज्ञान से निकलना होगा…


आज रामनवमी है। मेरी समझ से भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या राम को सही रूप में समझ नहीं पा रही है। उनके लिए राम कौन हैं यह एक संशय का विषय बना हुआ है। यदि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो राम परब्रह्म होने के बावजूद अपनी माया से आवृत्‍त हो जाने के कारण क्या अपने आत्मस्वरूप को नहीं जानते थे? इसलिए क्या उन्‍होंने वशिष्ठ आदि के उपदेश से आत्मतत्व को जाना, जैसा योगवशिष्‍ठ महारामायण में दिया गया है? लोगों के मन में यह शंकाएं भी हैं कि यदि भगवान राम आत्मतत्व को जानते थे तो उन मर्यादा पुरुषोत्तम ने सीता के लिए इतना विलाप क्यों किया? फिर यदि उन्हें आत्मज्ञान का भान नहीं था तो वह अन्य सामान्य जीवों के समान ही हैं, फिर उनका पूजन और भजन क्यों किया जाना चाहिए?

सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि परमात्मा राम को जानने के लिए हमें अपने हृदय और आत्मा को अज्ञान और अविद्या से मुक्त कराना होगा। जैसा कि हिंदू धर्म के सभी ग्रंथों में यह दिया हुआ है, मायातीत शुद्ध-बुद्ध परमात्मा में भी अपने अज्ञान को आरोपित करते हैं। अर्थात, उन्हें भी अपने समान ही अज्ञानी मानते हैं। तथा सर्वदा वे स्त्री पुत्र आदि में आसक्त रहने वाले पांवर जीव बहुतों से कर्मों में लगे रह कर संसार चक्र में ही पड़े रहते हैं। अपने गले में पड़े हुए कंठे को ना जानने के समान अपने ही ह्रदय में स्थित परमात्मा राम को नहीं जानते इसलिए उनमें अज्ञान आदि का आरोप करते रहते हैं। जैसे कि भगवत श्री वाचस्पति मिश्र महाभाग ने भामती व्याख्या में ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ को अज्ञानियों की जिज्ञासा बताया। उन्होंने बताया कि परमात्मा कौन है? आत्मा कौन है? यह जिज्ञासा ज्ञानियों के लिए जिज्ञासा का विषय नहीं है। आत्मा या परमात्मा का स्वरूप क्या है? वह एक कण के समान है या पूरा ब्रह्मांड उनके भीतर हैं? यह भी ज्ञानियों का मूल प्रश्न नहीं है। इसे ऐसे समझते हैं जैसा कि सुंदरकांड में तुलसीदास महाभाग कहते हैं, ‘प्रबिसि नगर कीजे सब काजा हृदय राख कौशलपुर राजा’ अर्थात कोई कर्म करने से पहले अपने ह्रदय में भगवान श्रीराम को विराजमान करिए। यहां पर भगवान श्रीराम हृदय में एक छोटे स्वरूप में आए। वहीं पर कुरुक्षेत्र में अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने अपने विराट स्वरूप का दर्शन करवाया जिसमें समस्त ब्रह्मांड उनके भीतर था। इसलिए यह जिज्ञासा कभी होनी ही नहीं चाहिए कि यह ब्रह्म कौन है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’- यह बात ही सर्वथा सत्य है कि आप स्वयं में ही ब्रह्म हैं।

वैदिक रीति से जब आप संध्या करते हैं तो गायत्री करने से पहले आप अपने अंदर भगवान शिव को स्थापित करते हैं। भगवान को पूजने के लिए आपको खुद पुरुषोत्तम होना होगा अर्थात अज्ञान से निकलना होगा। वेद में एक अघमर्षण सूक्त आता है जो निम्नलिखित है-

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो  रात्र्यजायत  तत:  समुद्रो  अर्णव:।।1।।
समुद्रादर्णवादधि   संवत्सरो    अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।2।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता  यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं   च   पृथिवीं   चान्तरिक्षमथो  स्व:।।3।।
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ऋग्वेद.10.190.1-3.

अर्थात-

सबसे पहले तप आया ,
तप ने दो पदार्थ प्रकट किये।
एक था ऋत,
दूसरा था सत्य।
ये वे शाश्वत नियम थे,
जिनसे सृष्टि हुई।
तब निबिड़ अंधकार में डूबी
महारात्रि उत्पन्न हुई,
और फिर असंख्य अणुओं से भरा हुआ
महान् समुद्र उपजा।।1।।

अणुओं के महासमुद्र से ही
समय की उत्पत्ति हुई।
समय के साथ ही
दिन और रात बने,
गतिशील समय के वश में
सम्पूर्ण विश्व हुआ।।2।।

विधाता ने जैसी कल्पना की थी,
वैसे ही सूर्य और चन्द्रमा उदित हुए।
आकाश छा गया,
पृथ्वी प्रकट हुई,
अंतरिक्ष दिखाई देने लगा,
फिर वह ज्योतिर्मय लीला निकेतन
झिलमिला उठा, जहाँ
सृजन के ताने-बाने बुने गये।।3।।

कहने का आशय है कि वास्तव में जिस प्रकार सूर्य में कभी अंधकार नहीं रहता उसी प्रकार प्रकृति आदि से अतीत विशुद्ध विज्ञानघन ज्योति-स्वरूप परमेश्वर परमात्मा राम में भी अविद्या नहीं रह सकती। जिस प्रकार चक्कर लगाते समय मनुष्यों को नेत्रों के घूमने से गृह आदि भी घूमते हुए प्रतीत होते हैं उसी प्रकार लोग अपनी देह और इन्द्रियरूप कर्त्ता के किए हुए कर्मों का आत्मा में आरोप करके मोहित हो जाते हैं। अर्थात स्वयं स्त्री पुरुष में आसक्त होकर भगवान राम को भी स्त्री पुरुष में आसक्त ही देख पाते हैं। प्रकाशरूपता का कभी व्यभिचार ना होने पर जिस प्रकार सूर्य में दिन रात का भेद नहीं होता- वह सर्वदा एक समान प्रकाशमान रहता है – उसी प्रकार शुद्धचेतनघन भगवान राम में ज्ञान और अज्ञान दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं? अतः माया के अधिष्ठान होने के कारण भगवान श्री राम मोहित नहीं हो सकते हैं।

इस विषय में सीता और हनुमान जी के मोक्ष का साधन रूप संवाद मैं आपको यहां पर बताता हूं। सीता जी कहती हैं कि वत्स हनुमान! तुम राम को साक्षात और अद्वितीय सच्चिदानंदघन परब्रह्म समझो। यह निस्संदेह समस्त उपाधियों से रहित, सत्तामात्र, मन तथा इंद्रियों के अविषय, आनंदघन, निर्मल, शांत, निर्विकार, निरंजन, सर्वव्यापक, स्वयंप्रकाश और पापहीन परमात्मा ही हैं। और मुझे (अर्थात जानकी को -सीता को) संसार की उत्पत्ति, स्थिति और अंत करने वाली मूल प्रकृति जानो। मैं ही निर्णय होकर इनकी सन्निधि मात्र से इस विश्व की रचना किया करती हूं (अर्थात यह कहने का आशय है कि भगवान श्रीराम स्वयं पुरुषोत्तम हैं तो मां जानकी स्वयं योगमाया हैं)।

माता आगे कहती हैं तो भी इनकी सन्निधि मात्र से ही की हुई मेरी रचना को बुद्धिहीन लोग इनमें (भगवान राम) आरोपित कर लेते हैं। अतएव, अयोध्यापुरी में अत्यंत पवित्र रघुकुल में इनका जन्म होना, फिर विश्वामित्र जी की सहायता करना, उनके यज्ञ की रक्षा करना, अहिल्या को श्राप मुक्त करना, श्री महादेव जी के धनुष को तोड़ना, तत्पश्चात मेरा (जानकी) पाणिग्रहण करना, परशुराम जी का गर्व खंडन करना, तथा 12 वर्ष तक मेरे (जानकी) साथ अवधपुरी में रहना, फिर दंडकारण्य में जाना, विराध का वध करना, मायामृग रूप मारीच का मारा जाना, मायामयी सीता का हरण, जटायु और कबन्ध का मुक्त होना, शबरी द्वारा भगवान का पूजित होना और सुग्रीव से मित्रता होना, फिर बालि का वध करना, सीता जी की खोज करना, समुद्र का पुल बनवाना और लंकापुरी को घेर लेना तथा पुत्रों के सहित दुरात्मा रावण को युद्ध में मारना एवं विभीषण को लंका का राज्य देकर पुष्पक विमान द्वारा मेरे (जानकी) साथ अयोध्या लौट आना, फिर श्री राम जी का राज्य पद पर अभिषिक्त होना, इत्यादि समस्त कर्म यद्यपि मेरे अर्थात जानकी के ही किए हुए हैं तो भी अज्ञानी लोग उन्हें इन निर्विकार सर्व आत्मा भगवान राम में आरोपित करते हैं। यह राम तो वास्तव में न चलते हैं, न ठहरते हैं, ना शोक करते हैं, ना इच्छा करते हैं, ना त्याग करते हैं, और ना कोई अन्य क्रिया ही करते हैं। यह आनंद स्वरूप अविचल और परिणामहीन हैं, (अर्थात जो हबल ने बाद में अपनी बिग बैंग थ्योरी में गॉड पार्टिकल की परिकल्पना की वह गॉड पार्टिकल श्री रामचंद्र जी ही हैं) और केवल माया के गुणों से व्याप्त होने के कारण ही यह वैसे प्रतीत होते हैं।

आभास चेतन तो मिथ्या है। बुद्धि अविद्या का कार्य है और परब्रह्म परमात्मा वास्तव में विच्छेदरहित है, अतः उसका विच्छेद भी विकल्प से ही माना हुआ है। साधारण रूप अवचेतन की ‘तत्त्वमसि’ अर्थात ‘तू वह है’ आदि महावाक्य द्वारा पूर्ण चेतन ब्रह्म के साथ एकता बतलाई जाती है। जब ‘तत्त्वमसि’ जीवात्मा और परमात्मा की एकता का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, उस समय अपने कार्यों सहित अविद्या नष्ट हो जाती है – इसमें कोई संदेह नहीं है। जब भक्त इस उपर्युक्त तत्व को समझकर भगवान श्री रामचंद्र के स्वरूप को प्राप्त होने का पात्र हो जाता है वह मुक्त हो जाता है और ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ को अपना लेता है। जो लोग उनकी भक्ति को छोड़कर शास्त्ररूप गढ़ में पड़े रहते हैं उन्हें सौ जन्मों तक भी ना तो ज्ञान होता है और ना मुक्ति प्राप्त होती है। यह परम रहस्य आत्मस्वरूप राम का हृदय है। अर्थात, भगवान श्री रामचंद्र जी वह सूक्ष्म अति सूक्ष्म गॉड पार्टिकल हैं जिनके विस्फोट से यह सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। यह निर्गुण निरंकारी परब्रह्म है जो ना कभी गलती करते हैं, और जो ना कभी किसी को गलत करने के लिए प्रेरित करते हैं।

फिर मन में संशय आता है कि मनुष्य यदि भगवान है तो गलत कार्य क्यों करता है? तो इसका समाधान ज्योतिष में है जो किसी अन्य लेख में उसकी पूर्ण विवेचना समझेंगे- कर्म सिद्धांत और ग्रहों के रहस्यों को जानते हुए। अब फिर प्रश्न उठता है कि वह भक्त जो राम को नहीं मानते, जो स्वयं को परब्रह्म मानते हैं, क्या वह सद्गति को प्राप्त नहीं करते? तो इसका भी उत्तर है कि बिल्कुल प्राप्त करते हैं। राम को एक नाम ही मानना यदि उनके अविद्या में है किंतु वह यदि तत्त्वमसि को समझ गए हैं, अहं ब्रह्मस्मि को वह मानते हैं तो वह भी बहुत बड़े भक्त हैं। कहने का आशय है इस लेख को पढ़ने से और इस लेख की हर बातों में हां में हां मिला देने से ही कोई बहुत बड़ा भक्त नहीं हो जाता बल्कि इस पर विवेचना करना, तर्क करना वह भी भक्ति में ही आता है।

अतः आप आगे आएं और खुलकर तर्क करें। भगवान श्रीराम को समझें। क्योंकि, भगवान श्रीराम को समझेंगे तभी आप सत्य और असत्य, ज्ञान और अज्ञान, प्रकाश और तिमिर को जान पाएंगे। भगवान श्रीराम ने यदि बालि का वध किया तो क्या वह सही था या गलत था इस बात की विवेचना ही भक्ति है। आप माया के प्रभाव से उसे सही भी ठहरा सकते हैं और गलत भी ठहरा सकते हैं। किंतु, आप जो भी कर्म करें वह कर्म तर्कसंगत होनी चाहिए और जिससे समाज का अहित ना हो ऐसा ही कर्म करना चाहिए। चोरी, व्यभिचार, परस्त्रीगमन, दूसरों की संतान पर अपना हक, यह सब समाज को परेशान करने वाला कार्य है, अतः यह अनुचित है। दान, तप, विद्यार्जन, बुद्धि का विकास यह सब समाज के लिए हितकर है अतः यही श्रीराम है और हमेशा इन्हें आपको अपने अमल में लाना चाहिए।


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