अप्रैल में जब एनसीईआरटी की कक्षा नौ और दस की किताबों से डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत से संबंधित पाठों को हटाया जाने का फैसला लिया गया तब विभिन्न प्रोग्रेसिव तबकों में सरकार के इस फैसले के खिलाफ कई आवाजें सुनाई दीं। विभिन्न वैज्ञानिकों ने सरकार द्वारा क्रमिक विकास के पाठों को किताबों से हटाये जाने के फैसले को तर्कशील वैज्ञानिक सोच पर एक हमले के रूप में देखा।
हकीकत यह है कि आधुनिक इतिहास में विभिन्न हिंसक तंजीमों ने डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत को जड़ समूल नष्ट करने के बजाय इसी सिद्धांत का सहारा लेकर अपनी हिंसा को न्यायोचित ठहराने का कार्य कहीं ज्यादा कुशलता से किया है।
दंगों में एक दूसरे को मारने का इतिहास हो, ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारतीयों को असभ्य बताकर उनके ऊपर वर्षों तक राज करने का हिंसक कृत्य हो, या फिर मुसलमानों के ऊपर प्रजनन दर को बढ़ाने का आरोप हो, आधुनिक दुनिया में अक्सर शोषण करने वाली संस्थाएं या व्यक्ति शोषितों को ‘जानवरों’ की तरह असभ्य घोषित करने की कोशिश करते आए हैं जिससे शोषण, शोषण न लगकर कथित असभ्य जानवरों को सभ्य बनाने की प्रक्रिया नजर आए। वर्षों से इस हिंसक नैरेटिव को गढ़ने के खेल में जो सिद्धांत केंद्र में रहा है, वह है डार्विन का क्रमिक विकास का सिद्धांत।
पब्लिक सेक्टर में सरकार द्वारा नागरिकों को दी जाने वाली सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी कल्याणकारी व्यवस्था को बाजार की हिंसक पूंजीवादी गलाकाट प्रतिस्पर्धा से कमतर बताने की कोशिशों के केंद्र में भी सामाजिक डार्विनवाद का सिद्धांत ही काम करता है, जो उसका एक टेढ़ा-मेढ़ा स्वरूप भर है।
आप पहले पैदा हो गए हैं, केवल इसलिए आगे किसी और के पैदा होने का अधिकार छीन लेंगे?
डार्विन अपनी 1859 में प्रकाशित किताब ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ में क्रमिक विकास का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मानव की उत्पत्ति का पूरा क्रम प्रारंभ में एक कोशिकीय जीवों से शुरू हुआ था और धीरे-धीरे करके वातावरण की बदलती हुई परिस्थितियों में एक कोशिकीय जीव बहुकोशिकीय जीवों में परिवर्तित हुए। डार्विन आगे कहते हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ वे जीव ही बच पाये जो शारीरिक रूप से वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करने के योग्य थे।
डार्विन के इस वैज्ञानिक सिद्धांत के बाद उन सभी धर्मों की जड़ें जरूर कमजोर हुईं जो वैज्ञानिक चेतना के खिलाफ थे और सदियों से ये कहते आये थे कि दुनिया के विभिन्न जीवों की उत्पत्ति के पीछे किसी दैवीय शक्ति का हाथ है, लेकिन बहुत से लोगों ने अपनी हिंसा को जायज ठहराने के लिए भी डार्विन के सिद्धांत का दुरुपयोग किया।
डार्विन अपने सिद्धांत में कहते हैं कि जीवों के विकास के क्रम में प्रकृति ने उन्हीं प्रजातियों का चयन किया जो प्रजातियां प्रकृति की कष्टदायक प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवित रहने में सक्षम थीं। इतिहास में डार्विन के इसी कथन का दुरुपयोग करके दुनिया भर में बाजार समर्थक राजनीतिक दलों ने नागरिकों के कल्याण के लिए समाजवादी विचारधारा पर आधारित एवं सरकार द्वारा संचालित सस्ती शिक्षा व स्वास्थ्य की योजनाओं का विरोध यह कह कर किया कि सरकार द्वारा इस प्रकार का कल्याणकारी हस्तक्षेप नागरिकों के बीच होने वाली प्राकृतिक चयन पर आधारित प्रतिस्पर्धा को शिथिल करता है। परस्पर प्रतिस्पर्धा के कम हो जाने पर प्रकृति के मूल में स्थापित हिंसा का उभार तो थोड़ा कम हो जाता है लेकिन परस्पर संघर्ष की कमी के चलते नागरिकों की योग्यता दिन पर दिन कम होती जाती है।
भाजपा जब-जब अरविन्द केजरीवाल की फ्री बिजली-पानी योजना का विरोध करती है तो उसके स्वर में कहीं न कहीं इसी संकीर्ण डार्विनवाद की झलक स्पष्ट नजर आती है। साल दर साल पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले विभिन्न क्षेत्रों के निजीकरण, बढ़ती हुई बाजार आधारित गलाकाट प्रतिस्पर्धा और इसी अनुपात में सरकारी अस्पतालों और स्कूलों के बिगड़ते हालात का वैचारिक तौर पर समर्थन भी कहीं न कहीं डार्विन के सिद्धांत पर ही किया जाता रहा है।
जर्मनी या इटली के फासीवादी दौर में हुए नरसंहार को भी कहीं न कहीं यह कह कर सही ठहराया गया कि यहूदी धर्म जैसे धर्मों से ताल्लुक रखने वाले लोग प्रकृति द्वारा संचालित प्राकृतिक चयन की परीक्षा में खरे नही उतरते हैं, इसलिए उनका नरसंहार करके उनको विलुप्त कर देना उतना ही जायज है जितना जायज डॉयनासोरों का विलुप्त हो जाना था क्योंकि डायनासोर भी बदलते पर्यावरण में प्राकृतिक चयन की परीक्षा मे फेल हो गए थे।
साठ के दशक में हरित क्रांति से ठीक पहले जब भारतवासी अकाल की चुनौतियों का सामना कर रहे थे, उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने और 1943 में बंगाल के अकाल के समय जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारत को खाद्यान्न की आपूर्ति करने से मना कर दिया था, तब भी इस बर्बरता को सही ठहराने का तर्क डार्विन के सिद्धांत से ही निकल कर सामने आया था, जिसके अनुसार विकास के पैमाने पर भारतीय पश्चिमी देशों के नागरिकों से कम ‘मनुष्य’ और अधिक ‘जानवर’ प्रवृत्ति के निर्वाहक हैं इसलिए जानवरों की भांति वे कुछ समय के लिए अकाल के दौर में भी बिना खाये जीवित रह सकते हैं, लिहाजा उनकी खाद्यान्न आपूर्ति को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए।
स्कूली किताबों से डार्विन के पाठों को हटाने से समाज की वैज्ञानिक तर्कशीलता में कमी आए या नहीं, लेकिन क्या हमारा वैज्ञानिक समुदाय इतना सक्षम है कि भविष्य में वह धुर दक्षिणपंथियों, फासीवादियों और बाजारवादियों द्वारा फैलायी जाने वाली हिंसा और डार्विनवाद के आधार पर उस हिंसा के वैचारिक बचाव पर रोक लगा पाएगा?
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र विषय में एमए हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं)
कवर तस्वीर: आतिका सिंह