देशभक्ति का शासनादेश और एम्मा गोल्डमैन से निकलते कुछ सबक


आज़ादी का अमृत महोत्सव चारों दिशाओं में अपनी अनुपम छटा बिखेर रहा है। देश तिरंगामय है और समस्त देशवासियों का अपने देश के प्रति प्रेम और भक्ति समुद्र में उठते ज्वार की तरह तटों को लांघ रही है या चौमासे के इस ऋतुचक्र में अथाह जलराशि से भरी नदियों की तरह तटबंधों को तोड़ते हुए आगे बढ़ रही है। हर गली, नुक्कड़, चौराहों, दीवारों, मकानों, वाहनों पर हर जगह भारत का गर्वीला झण्डा शान से लहरा रहा है। देशभक्ति का ऐसा समां याद नहीं पड़ता इस देश ने कब देखा होगा। और ये भी नहीं कहा जा सकता कि कब फिर से ऐसा ताप दिखेगा। संभव है अब हर साल या गाहे-बगाहे जब तब भी ऐसा देखने को मिल सकता है। आखिर तो यह अपीलाधारित है, आदेशाधारित है।

जब-जब अपील होगी हम बताएंगे कि हम आज़ाद हैं, और इतने आज़ाद हैं कि किसी के कहने या शासनादेश पर हम अपनी देशभक्ति तिरंगे के जरिये परचम की तरह लहरा देंगे। हमें ऐसे आदेशों का पालन करने में कोई गुरेज़ नहीं जिससे हमें अपनी देशभक्ति प्रकट करने का मौका मिले। हमने ऐसे मौके पर शासनादेशों का पालन किया है जो हम तक लिखित में कभी नहीं पहुंचे बल्कि हमें कह दिया कि ऐसा करना है और हमने कर दिखाया। आज झंडे की तो खैर बात ही कुछ अलग है। उससे हमारी आन, बान, शान जुड़ी है। पर थाली, ताली और दीये जैसी मामूली और तुच्छ वस्तुओं के जरिये भी हमने अपनी देशभक्ति दिखलायी है। जब-जब जैसा-जैसा कहा गया तब-तब हमने वैसा-वैसा किया। हम ये आगे भी करते रहेंगे। अंतत: हम आज़ाद हैं, स्वाधीन हैं, स्वतंत्र हैं!

इन ताज़ातरीन मौखिक और वाचिक शासनादेशों ने हमें बचपन में सिखाये गए इन शब्दों के अर्थों से च्युत कर दिया है। हमें बतलाया गया था कि ‘स्वाधीन’ का मतलब होता है केवल अपने और अपने अधीन होना, जहां किसी के भी आदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता। हमें यह भी बतलाया गया था कि ‘स्वतंत्र’ होने का मतलब होता है जो केवल अपने तंत्र से चले अर्थात अपने मन की सुने, दिमाग की सुने और अपने विवेक से चले। यह तंत्र देश को हर व्यक्ति को एक मुकम्मल एजेंसी मानता है। आज़ाद का मतलब उन सब से मुक्ति जो हमें गुलाम बनाते हैं।

हम आज़ाद देश के ऐसे ही नागरिक बनना चाहते थे, हमें ऐसे ही बनाए जाने की कोशिश आज़ादी के लिए चले ढाई सौ साल के संघर्ष ने की। जिन्होंने संघर्ष किया अब वे हमारे बीच नहीं हैं, उनके सबक हमारे बीच हैं लेकिन इन मौखिक आदेशों के शोर में वे कहीं चुपचाप बैठे हैं। जैसे पावस ऋतु में दादुर बोल रहे हैं और कोयल चुप्पी मारे किसी पेड़ पर इनके शोर से अपनी मिठास को बचाते हुए लुकी-छुपी बैठी हो। हमें दादुरों का शोर सुनने की आदत हो चुकी है। हम अब दादुरों के कोलाहल में संगीत की स्वर लहरियां खोज चुके हैं। हम राग-रागि‍नियों में मस्त हैं। इनकी धुन पर नाचते-झूमते हम एक-दूसरे को देशभक्ति का सर्टिफिकेट बाँट रहे हैं।

यह आज़ादी इतनी क्षणभंगुर है कि कल हुई एक घटना ने इसकी इयत्ता पर ही प्रश्न खड़े कर दिये हैं। जब-जब एक बच्चे को केवल इसलिए पीट-पीट कर मार डाला जाएगा क्योंकि उसने एक तथाकथित ऊंची जाति के व्यक्ति के लिए आरक्षित घड़े को छू लिया था, तब-तब ऐसे प्रश्न इस आज़ादी पर उठते रहेंगे। जब आदिवासी न्याय मांगने अदालत जाएंगे और उन्हें ही सज़ा के लिए चुन लिया जाएगा, तब ऐसे ही प्रश्‍न उठेंगे और तिरंगे के लगभग उन्मादी प्रदर्शन और उसके चढ़ चुके नशे का रंग फीका करते रहेंगे।

आखिर क्या है यह देशभक्ति? कौन कहलाता है देशभक्त? क्या देश के इतने उत्साही और ऐतिहासिक दिन हम एक बार यह जानना नहीं चाहेंगे कि हम जो कर रहे हैं उसके मायने क्या हैं? देस से देश और फिर राष्ट्र और राष्ट्र-राज्य की यात्रा में क्या वाकई हम इतने आगे निकल आए हैं कि एक दफा पीछे मुड़कर इन शब्दों के मायने इतिहास की कन्दराओं में तलाश भी नहीं करना चाहेंगे? संभव है कि पीछे मुड़कर न देखना चाहें, फिर भी एक बार पीछे मुड़कर देख लेने आखिर हर्ज़ ही क्या है?

एम्मा गोल्डमैन द्वारा 1910 में लिखा गया एक लेख इसी वक़्त कहीं से नमूदार हुआ। 112 साल पहले लिखा गया यह एक लेख हमें इन शब्दों से परिचित करवाता है। इनके अर्थ समझाने की कोशिश करता है और शुरू से अंत तक इन शब्दों को समझे बगैर बरते जाने के खिलाफ चेतावनी देता है।

यह लेख हमें गुस्ताव हर्वे के उस निष्कर्ष से रूबरू कराता है जिसमें वो कहती हैं कि “कहीं देशभक्ति एक अंधविश्वास तो नहीं है? एक ऐसा अंधविश्वास जो धर्म से ज़्यादा क्रूर, हानिकारक और अमानवीय है? धर्म एक प्राकृतिक और कतिपय मासूम रचना है जो मनुष्य की अनंत जिज्ञासाओं से पैदा हुआ लेकिन यह इसलिए एक अंधविश्वास है क्योंकि जिन नैसर्गिक घटनाओं मसलन, बारिश होने, बिजली चमकने और सूरज के छिप जाने के बारे में जब मनुष्य कुछ समझ नहीं पाया तब उसने यह मान लिया कि हो न हो कोई तो है जो अलौकिक है और सर्वशक्तिशाली भी है। अबूझ से पैदा हुआ कोई भी विश्वास इसलिए अंधविश्वास है, लेकिन देशभक्ति दूसरी तरफ एक ऐसा अंधविश्वास है जिसे कृत्रिम रूप से गढ़ा गया और जिसे झूठ और मिथ्या प्रचार के बड़े नेटवर्क के जरिये बनाकर रखा गया। एक ऐसा अंधविश्वास जो मनुष्य के आत्म-सम्मान और गरिमा को चमकाता तो है लेकिन उसके दर्प और दंभ में बेतहाशा इजाफा करता है।

यह लेख डॉ. जॉन्सन की जानिब से यह बतलाता है कि “यह देशभक्ति कुछ और नहीं बल्कि हमारे आसपास मौजूद बदमाशों के गिरोह के छुपने की सबसे सुरक्षित और अंतिम शरणस्थली तो नहीं है?”

यह लेख हमें लियो टॉलस्टाय की चेतावनी के बारे में भी बतलाता है जिसमें वो कहते हैं कि “यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो हत्यारों के प्रशिक्षण को जायज ठहराता है; एक ऐसा व्यापार जिसमें इंसान को मारने के अभ्यास को उसकी बुनियादी जरूरतों  मसलन जूते, कपड़े और मकान की पूर्ति करने से बेहतर ठहराया जा सके।  अंतत: यह मुनाफे का ऐसा सौदा बन जाता है जो एक औसत कामगार की तुलना में एक निठल्ले आदमी को ज़्यादा अच्छे परिणाम और बेहतर प्रतिष्ठा दिला सकता है”

एम्मा गोल्डमैन, जो “देशभक्ति को स्वतन्त्रता के लिए खतरा बताती हैं”, कहती हैं कि “वाकई यह दर्प, दंभ और ‘घमंड’ देशभक्ति के लिए बुनियादी लक्षण हो जाते हैं”। देशभक्ति के आधुनिक संस्करण के बारे में वे बताती हैं कि “यह देशभक्ति यह मानकर चलती है कि हमारी धरती कई छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित है और हर टुकड़ा लोहे के दरवाजों से घिरा हुआ है। जो इस धरती के जिस टुकड़े पर पैदा हो गया वो खुद को  उन सबसे बेहतर, कुलीन (श्रेष्ठ), महान और  ज़्यादा बुद्धिमान मानने लगता है जो इसी धरती के किसी और टुकड़े पर पैदा हुआ है। अब यह उनका कर्तव्य है कि वो धरती के उस टुकड़े पर पैदा होने के नाते अन्य टुकड़ों में बसे लोगों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए लड़े, मारे और खुद मर जाए”।

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वो बताती हैं कि ‘देशभक्ति एक बेइंतिहा महंगा और बेहद खर्चीला उद्यम भी है’। यह कितना मंहगा है इसे हर देश के सालाना बजट में देखा जा सकता है। हथियारों के सौदों में देखा जा सकता है। यह देखना दिलचस्प है कि जहां एक तरफ पूरी दुनिया एक धरती और ‘एक गाँव’ में सिमटने का दावा करने लगी है तब से यह देशभक्ति भी और ज़ोर पकड़ने लगी है। यह एक गंभीर अंतर्विरोध है जिसके कारण देशभक्ति और ज़्यादा मंहगी हुई जाती है क्योंकि अब यह केवल हथियार खरीदने तक सीमित नहीं रही बल्कि इसे अब उन कॉरपोरेट्स के कभी न भरने वाले भूखे पेट को भी भरना है और जिसके लिए देश के तमाम चल अचल संसाधनों को देशभक्ति की सुरक्षित आड़ में सभी देशों के नागरिकों की आम सहमति से इनके सुपुर्द करते रहना है।

हिंदुस्तान में तो कम से कम यह अनायास नहीं हुआ है कि एक पूंजीपति सांसद नवीन जिंदल इस मामले में अगुआ बने कि देश का झण्डा जब चाहें, जो चाहें, जहां चाहें, जैसे चाहें, फहरा सकें। आज देश का झण्डा इसलिए सर्वत्र देखा जा रहा है क्योंकि इसके सम्मान से जुड़ी आचार संहिता बेहद लचर हो गयी है। यह ख्याल नवीन जिंदल को ही क्यों आया? यह समझना शायद अब इतना कठिन न रहा हो।

कुछ प्रतीकों को फुटनोट नहीं बनने देना चाहिए। उन्हें वहीं रखना चाहिए जहां वाकई उन्हें होना चाहिए। आज देश के पचहत्तरवें स्वतन्त्रता दिवस के बाद झण्डा पकड़ कर खड़े, लेटे, सोये जागे लोगों का खुमार भी शाम तलक उतर जाएगा लेकिन इतनी मात्रा में सड़क पर उतरे इन झंडों का क्या होगा? यह देखने से पहले इसके बारे में सोचना ज़रूरी है।  तिरंगे की शान से भला किसे परहेज होगा? नाशुक्रे हैं हम जो एक-दूसरे की देशभक्ति और देशप्रेम पर सवाल उठाते हैं। बेतालीम ही हैं हम जो मानते हैं कि इन 140 करोड़ लोगों में केवल हम ही सबसे बड़े देशभक्त या देशप्रेमी हैं। बाकी दुनिया से श्रेष्‍ठ तो खैर हम हैं ही। हम इतने श्रेष्ठ हैं कि हमें इतिहास से कुछ नहीं सीखना है। हमें कहा गया है कि जैसा मन करे अपना ऐसा इतिहास लिखना है जो हमें खुद को पसंद आवे। हम लिख रहे हैं इतिहास, दिखा रहे हैं अपनी देशभक्ति- सत्ता से बिना एक सवाल पूछे, अपने दुख-तकलीफ़ों और जायज हकों के मारे जाने को तमाशबीन बनकर देखते हुए! हम निज़ाम के लिए मुफीद अवाम हैं क्योंकि हम एक देशभक्त अवाम हैं। हमें हमारी देशभक्ति मुबारक हो…।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जनपथ पर बात बोलेगी नाम से स्तम्भ लिखते हैं


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