भारत में सहमति आधारित समावेशी राष्ट्रवाद का उभार और पतन: पुस्तक अंश


यह लेख इतिहासकार और बुद्धिजीवी सैयद इरफ़ान हबीब द्वारा संपादित पुस्तक ‘इंडियन नैशनलिज़म’ में लिखी उनकी लंबी भूमिका का अनूदित और संपादित अंश है। यह पुस्तक हिन्दी में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशनाधीन है। अनुवाद और सम्पादन अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।


आज हमारे इर्द-गिर्द जब राष्ट्रवाद पर इतना ज्यादा हो हल्ला हो रहा है, ऐसे में हमें इस पर बहस करने की ज़रूरत इसलिए है क्योंकि राष्ट्रवाद ने हमें और कुछ भयावह तरीकों से अपनी आगोश में ले लिया है।  हर आये दिन हमसे देश के लिए अपने प्रेम को साबित करने की मांग की जा रही है-  अपनी देशभक्ति के बारे में कभी नारे लगा कर तो कभी चीख-चीख कर बताने को कहा जा रहा है और कभी किसी र्ध्‍म विशेष का पालन करने को कहा जा रहा है। इन  मांगों पर जो कोई सवाल उठाता है उसके ऊपर राष्ट्रद्रोही होने का झूठा आरोप लगा दिया जा रहा है और देश का दुश्मन करार दिया जा रहा है। यह  खोखली नारेबाजी हम सभी को ले डूबे,  इससे पहले आइए समझने की कोशिश करते हैं कि हमारे देश में राष्ट्रवाद का इतिहास क्या रहा है और  किन स्वरूपों में वह इस देश में मौजूद रहा है।

मेरी उम्र के भारतीय,  जो आज़ादी के कुछ साल बाद पैदा हुए,  उनके भीतर राष्ट्रवाद को किसी शासनादेश के माध्यम से नहीं भरा  गया। माहौल ही कुछ ऐसा था कि वह अपने आप भीतर अनुप्राणित होता गया।  हमें इस बात को परिभाषित करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि हम भारतीय क्यों और कैसे थे,  बावजूद इसके कि हमने बिलकुल तभी विभाजन की खूंरेज़ त्रासदी झेली थी जिसे सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के नाम पर अंजाम दिया गया था।  आज हालांकि कुछ ऐसे लोग सत्ता में हैं जो हम से मांग कर रहे हैं कि हम मुखर तरीके से अपनी भारतीयता को रह-रहकर दोहराएं और साबित करते रहें।  उसकी भी कुछ शर्ते हैं।  वह भारतीयता के बहुरंगी संस्करण को पसंद नहीं करते बल्कि उन्हें वही परिभाषा पसंद है जो उनकी संकुचित मानसिकता को स्वीकार्य हो।  इस थोपे गये राष्ट्रवाद को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम राष्ट्रवाद के मूल स्रोतों तक जाएं और उसे इस तरह समझें जैसी उसकी परिकल्पना इस राष्ट्र का निर्माण करने वाले लोगों ने की थी। वह एक समावेशी राष्ट्रवाद था जिसे हमारे स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान सचेतन रूप से स्वीकार किया गया था और एक बहुलतावादी स्वतंत्र भारत के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया था।

हमारे राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की हमारी अवधारणा को उन पुरुषों और स्त्रियों के प्रामाणिक लेखन के आईने में समझा जा सकता है जिन्होंने हमारे लिए उसे परिभाषित किया थ।  इनमें से कई लोग राजनीतिक चिंतक थे और नेता थे जबकि कई अन्य आंदोलनकारी थे जो दिन रात उपनिवेश विरोधी संघर्षों में लगे हुए थे।  भारतीय राष्ट्र,  राष्ट्रवाद और संस्कृति की अवधारणा में वैज्ञानिकों और सांस्कृतिक आंदोलनकारियों ने भी अपना योगदान दिया। राष्ट्रवाद और संस्कृति के तत्वों से मिलाजुला यह योगदान दरअसल एक उदार-मध्यमार्गी राष्ट्रवाद की परिकल्पना करता था जो धीरे-धीरे कालांतर में एक ऐसे चरण में पहुंच गया जहां केंद्र में धर्म आ गया। फिर कई अन्‍य चरणों से होता हुआ यह अंततः आम सहमति आधारित एक समावेशी राष्ट्रवाद में परिणत हुआ।

आइए,  राष्ट्रवाद नाम की इस परिघटना के उभार पर एक वैश्विक निगाह डालते हैं। राष्ट्रवाद को एक ऐसी मानसिक अवस्था के रूप में परिभाषित किया गया है जो एक व्यक्ति की उसकी मातृभूमि,  स्थानीय परंपराओं और पूर्व स्थापित भौगोलिकता के प्रति अटूट समर्पण  को दर्शाती हो।  यह तो ‘18वीं सदी के अंत में हुआ जब आधुनिक अर्थों में राष्ट्रवाद निजी व सार्वजनिक जीवन में एक सामान्य स्वीकृत भावना के तौर पर स्वीकार किया गया’।  यह  निकट अतीत की ही बात है जब प्रत्येक राष्ट्रीयता से अपना एक राष्ट्र बनाने की मांग की गयी;  उससे पहले तक राष्ट्र राज्य के प्रति आस्था या वफादारी की अपेक्षा नहीं की जाती थी बल्कि यह विशिष्ट किस्म के सामाजिक वर्चस्व,  राजनीतिक संगठनों और विचारधारात्मक इकाइयों जैसे कि कबीलों या कुनबा,  शहर अथवा राज्य के सामंत,  शाही खानदान,  चर्च या धार्मिक समूह के प्रति वफादारी का पर्याय था।

अंग्रेज इतिहासकार  एली  कीदूरी ने लिखा है, “अक्सर राष्ट्रवाद को नव कुनबावाद के रूप में भी परिभाषित किया जाता है”।  यह दरअसल राष्ट्रवाद के भीतर अंतर्निहित दूसरों के प्रति  डर का परिचायक है जहां एक राष्ट्र  बाहरियों को अपने से अलग मानता है,  बरतता है और उनके प्रति  असहिष्णु  व्यवहार करता है।  एक समूह के  बतौर  वह अजनबी,  बाहरी आदि को पसंद नहीं करता और उन्हें अपने समूह में शामिल करने में संकोच करता है।  राष्ट्रवाद के ऐसे संस्करणों को आमतौर से फासीवादी विचारधाराओं से जोड़कर देखा जाता रहा है या ऐसे शासनों से,  जिन्होंने एक धार्मिक,  नस्ली या भाषायी समूह के भीतर बाकी दूसरे समूह के प्रति नफरत फैलाकर खुद को ताकतवर बनाने का काम किया।

सौ वर्ष से ज्यादा पुराने राष्ट्रवाद ने इतनी लंबी यात्रा के दौरान  नये अर्थ  और नयी परिभाषाएं ग्रहण किए हैं।  दुनिया के इतिहास में इसकी भूमिका के चलते इतिहासकारों, राजनीतिक वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने इसकी आलोचना की है।  इसके बावजूद राष्ट्रवाद आज भी सर्वाधिक सशक्त राजनीतिक भावनाओं में एक है और सबसे नाजुक भी,  जिसे बड़ी आसानी से राजनीतिक,  सांस्कृतिक,  भाषायी और इनसे भी बढ़कर, धार्मिक अस्मिताओं के इर्द-गिर्द सूत्रबद्ध किया जा सकता है।

हमने देखा है कि धर्मों ने कैसे खुद को राष्ट्रवादी विचारधाराओं में तब्दील किया और इसके सहारे बहुसंख्यक के वर्चस्व को स्थापित किया, अल्‍पसंख्‍यकों के धर्म अनुयायियों के खिलाफ कैसे भेदभाव बरता और राज्‍य के नागरिक होने के बतौर उनके वैध अधिकारों का मर्दन किया। मसलन, पाकिस्‍तान की सैद्धांतिकी में इस्‍लाम को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में परिणत किया गया जिसका इस्‍तेमाल मुसलमानों के बहुसंख्‍यक पंथ को दूसरों के खिलाफ एकजुट करने में किया गया। राष्‍ट्रवादी विचारधारा के रूप में धर्म का यह रूपांतरण इस रूप में सुविधाजनक है कि सदियों से मान्‍य किसी आस्‍था से उपजी सशक्‍त और दृढ़ वफादारी का राष्‍ट्रवादी दोहन कर पाते हैं।

भारत जैसे एक विविध देश में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के नेताओं ने सांस्‍कृतिक, धार्मिक और भाषायी पहचानों से पार जाने का सचेतन चुनाव किया था। वे लोगों की जिंदगी में धर्म और संस्‍कृति के महत्‍व से सचेत थे और इसे उन्‍होंने अपने लेखन में भी माना है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हालांकि विकासवाद और आर्थिक राष्‍ट्रवाद पर ज़ोर दिया जिसने वि‍विध पहचान वाले लोगों की जिंदगी को प्रभावित भी किया। नेहरू लगातार कहते रहे कि सांस्‍कृतिक और धार्मिक अर्थ में राष्‍ट्रवाद को जिस तरह से सीमित किया जाता है, वह इतना संकीर्ण और ओछा है कि देश के सामने खड़ी विशाल समस्‍याओं को हल नहीं कर सकता। उनका आर्थिक राष्‍ट्रवाद हालांकि साम्राज्‍यवाद के उभार के साथ नत्‍थी उस राष्‍ट्रवाद से अलहदा था, जो उपनिवेशवाद के माध्‍यम से पूंजी निवेश के लिए कच्‍चे माल, बाजार और मैदानों की तलाश के संघर्ष में मुब्तिला रहता था। इसके उलट, नेहरू के लिए उपनिवेश के दौर में लोगों की आय और जिंदगी का स्‍ता ऊंचा करने के लिए आर्थिक राष्‍ट्रवाद पर आधारित एक आर्थिक कार्यक्रम की दरकार थी।

राष्‍ट्रवाद एक दुधारी तलवार है: यह लोगों को जोड़ सकती है और दूसरी तरफ बुरी तरह बांट भी सकती है। ऐतिहासिक रूप से यह राष्‍ट्रवाद समुदायों में अपार खुशी का स्रोत रहा ल‍ेकिन साथ ही राष्‍ट्रवादों के बीच परस्‍पर टकरावों के चलते अमन चैन को खतरा भी बना रहा। योरप में राष्‍ट्र राज्‍यों का उदय और एशिया व अफ्रीका में उपनिवेशवाद का अंत राष्‍ट्रवाद के प्रगतिशील और मुक्तिदायी गुणों को दर्शाता है। इसने बौद्धिक और सांस्‍कृतिक मोर्चे पर सूजनात्‍मकता के लिए जगह बनायी और उपनिवेश रह चुके देशों में नयी जान फूंकी। अपने विकृत अवतार में हालांकि इसने औपनिवेशिक उत्‍पीड़न को पैदा किया और फासीवाद को उभारने का काम किया, जिसने नरसंहारों को जन्‍म दिया। यही वजह थी कि हैराल्‍ड लास्‍की ने राष्‍ट्रवाद को समकालीन दुनिया में कालभ्रम कह कर नकार दिया- एक ऐसा कालबाह्य और पुराना जड़ जमाया रोग जो इंसानियत के लिए महामारी पैदा करता है और जिसका उपचार झाड़ फूंक से नहीं हो सकता। राष्‍ट्रवाद ‘’एक किस्‍म की धार्मिक आस्‍था में तब्‍दील हो चुका है, जो आसानी से विकृत होकर उत्‍पीड़न और शक्ति संचयन का पर्याय बन सकता है’’। राष्‍ट्रवाद, साम्राज्‍यवाद को पोषित करता है और साम्राज्‍यवाद बदले में वापस उन्‍हीं लोगों के भीतर राष्‍ट्रवाद का पोषण करता है जिन्‍हें वह नियंत्रित करने की ख्‍वाहिश रखता है। हमारा जो अपना राष्‍ट्रवाद है, वह औपनिवेशिक उत्‍पीड़न की प्रतिक्रिया में उभरा था।

बीसवीं सदी के आरंभ से ही ये दावे किए गए कि भारत तो सदियों से एक राष्‍ट्र रहा है। प्राचीन और मध्‍यकालीन साम्राज्‍य और यहां तक कि जागीरें भी, जिनकी प्रजा राजा के प्रति वफादार रहती थी और ‘’खानदान की भक्ति में गौरव का अहसास करती थी’’, भ्रम में भारतीय राष्‍ट्रवाद का पर्याय मान ली जाती हैं। इन पुराने साम्राज्‍यों में राष्‍ट्र होने का बमुश्किल ही कोई लक्षण रहा होगा। इनमें प्रजा होती थी, नागरिक नहीं जिनके पास नागरिक और जनतांत्रिक अधिकार हों। राष्‍ट्रवाद ही नागरिकों को एक राष्‍ट्रीय पहचान देता है और सभी स्‍थानीय व क्षेत्रीय पहचानों के मुकाबले उसे ऊपर रखता है। यह पहचान तमाम बहुमूल्‍य अधिकारों और कर्तव्‍यों के साथ आती है, जो जनता की चेतना को व्‍यापक बनाकर रूपांतरित करती है। के.एन. पणिक्‍कर जैसा कि कहते हैं, आरंभिक राष्‍ट्रवादियों में से एक सुरेंद्रनाथ बैनर्जी ने स्‍वाधीनता संघर्ष पर अपनी पुस्‍तक का बहुत उपयुक्‍त नाम रखा था: अ नेशन इन द मेकिंग। एक निर्मित होते राष्‍ट्र के विचार में पणिक्‍कर के अनुसार उपनिवेशवाद से मुक्‍त होने की प्रक्रिया शामिल थी, बजाय मौजूदा ‘मेक इन इंडिया’ वाले नारे के, जो दोबारा औपनिवेशीकरण के खतरे से लबरेज़ है।

भारत में राष्‍ट्रवाद

राष्‍ट्रवाद का प्रबल स्‍वरूप उपनिवेश विरोधी और सेकुलर था, जो उन्‍नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभ में उभरना शुरू हुआ। अकसर यह दलील दी जाती है कि राष्‍ट्रवाद का उदय औद्योगीकरण, शहरीकरण और मुद्रण पूंजीवाद से संभव हुआ। राजनीतिविज्ञानी और इंतिहासकार बेनेडिक्‍ट ऐंडर्सन ने इसकी काट में कहा है कि अफ्रो एशियाई विकासशील जगत में राष्‍ट्रवाद पश्चिम के किसी एक या दूसरे प्रारूप का अनुकरण था। इस तरह वे इन महाद्वीपों की जनता का अपने किस्‍म के राष्‍ट्रवाद के विकास में कोई बौद्धिक योगदान नहीं मानते हैं। पिछले कुछ दशकों के दौरान उनकी इस स्‍थापना की काफी आलोचना हुई है। मसलन, पार्थ चटर्जी उनसे असहमत होते हुए हैं कि सत्‍ता के लिए संघर्ष की शुरुआत से काफी पहले भारतीय समाज अपने निजी सांस्‍कृतिक वृत्‍त के भीतर अपने राष्‍ट्र की परिकल्‍पना करने में लगा हुआ था, भले ही राज्‍य की कमान उस वक्‍त तक उपनिवेशवादियों के हाथों में थी। इसी बिंदु पर उन्‍होंने अपनी सम्‍प्रभुता का अपना एक अधिकार क्षेत्र परिकल्पित किया और एक ऐसी भारतीय आधुनिकता को निर्मित किया जो आधुनिक तो थी लेकिन पश्चिमी नहीं थी।

आज़ादी के संघर्ष के दौरान हमारा राष्‍ट्रवाद न केवल राजनीति में बल्कि साहित्‍य में भी सूत्रीकृत हो रहा था। उन्‍नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत की सबसे सशक्‍त आवाज़ों में एक बंकिम चंद्र चटर्जी ने अपने उपन्‍यासों में, खासकर आनंदमठ में, हमारे लिए राष्‍ट्रवाद की बुनियादी परिभाषा दी थी। जैसा कि सुदीप्‍त कविराज कहते हैं, बंकिम ने स्‍व और पर यानी बंगालियों और भारतीयों के बीच की परिकल्पित सीमा को दोबारा खींचा तथा ‘भारतीय राष्‍ट्रवाद’ के स्रोतों को निरूपित करने में मूलभूत भूमिका निभायी। बंकिम चंद्र के ऐतिहासिक उपन्‍यासों में, जो वास्‍तविक इतिहास का एक काल्‍पनिक विस्‍तार थे, भारत की अधीनता को और पीछे ले जाकर उसमें प्राक्-आधुनिक इस्‍लामिक साम्राज्‍यों के शासन को भी शामिल किया गया। यह इस्‍लामिक शासन को विदेशी आक्रमण के रूप में देखने की एक पुनर्व्‍याख्‍या थी, एक तरह से आधुनिक साम्राज्‍यवाद का अतीत में पीछे की ओर कालबाह्य विस्‍तार। बाद में यह व्‍याख्‍या उन लोगों के काम आयी जिन्‍होंने साम्‍प्रदायिक राष्‍ट्रवाद को हवा दी और ज्‍यादा शैतानी इस्‍लामिक शासन के मुकाबले अंग्रेज़ी राज को उदार माना। 

इतिहासकार क्रिस बेली ने भी भारतीय राष्‍ट्रवाद की जड़ें उपनिवेश पूर्व काल में मानी हैं, जिसे वे ‘पारंपरिक देशभक्ति’ का नाम देते हैं। उनके मुताबिक यह ‘भूमि, भाषा और सम्‍प्रदाय के साथ जुड़ाव की एक सामाजिक रूप से सक्रिय भावना थी’ जो पश्चिमीकरण की प्रक्रिया से काफी पहले इस उपमहाद्वीप में विकसित हुई। कंपनी राज में इस भावना ने खुद को विभिन्‍न रूपों में अभिव्‍यक्‍त किया और अंतत: इसकी परिणति 1857 के गदर में होती है। यही ‘पारंपरिक देशभक्ति’ उपनिवेश विरोधी संघर्ष के दौरान काफी बहस मुबाहिसे का बायस बनी और तमाम किस्‍म के भाषायी, धार्मिक, क्षेत्रीय, जातिगत और सामुदायिक समूहों से आने वाले लोगों की भागीदारी से भारतीय राष्‍ट्रवाद बनी। इस राष्ट्रवाद की जड़ों को अंग्रेजी राज से पहले के भारत में तलाशने की बहुत कोशिशें हुईं, लेकिन बाल गंगाधर तिलक जैसे बड़े नेता यह मानते थे कि “भारतीय राष्ट्रवाद हाल में ही पैदा हुई एक ताकत है और हमारे जीते जी ही हमारे समय में इसने खुद को एक सार्वभौमिक मिशन की चेतना में परिवर्तित कर लिया है गोया यह नियति पर विजय पाने जा रही हो.”

यह राष्ट्रवाद समावेशी था और भारत की विविधता व बहुलता को प्रतिबिंबित करता था। यह सभी स्तरों पर- राजनैतिक, सांस्कृतिक और साथ ही धार्मिक- विविधताओं को मान्यता देता था और उन्हें फलने- फूलने की जगह और सम्मान देता था। इसी के समानांतर हमने दो तरह के धार्मिक राष्ट्रवाद का उभार देखा: हिंदू और मुसलमान। यह दोनों ही किस्में अतीत में हिंदू और मुसलमान समुदायों के परस्पर विलगाव और एकाश्मता की पेश की गयी औपनिवेशिक तस्वीर से बहुत गहरे प्रभावित थीं। ये राष्ट्रवाद अनिवार्यत: उपनिवेश-विरोधी नहीं थे बल्कि इनकी ज्यादा दिलचस्पी धर्म आधारित राष्ट्रवाद की अपनी राजनीतिक विचारधारा को इतिहास के प्रयोग से वैधता दिलाने में थी ताकि राजनीतिक समर्थन जुटाया जा सके। कालांतर में मुस्लिम धार्मिक राष्ट्रवाद ने पाकिस्तान की पहचान को परिभाषित किया जबकि हिंदू धार्मिक राष्ट्रवाद ने भारत को पाकिस्तान की ही प्रतिकृति बनाने में पूरा जोर लगा दिया। ऐसे विचारों में औपनिवेशिक नीतियों का प्रभाव बिल्कुल साफ झलकता है।

यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय से भिन्न दिशा में हुआ। विखंडित हो रहे मुगल साम्राज्य की आंतरिक गतिकी से संचालित जो राजनीतिक विकास यहां हो सकता था उसे उपनिवेशवाद के हस्तक्षेप ने अवरुद्ध कर दिया। विशाल मुगल साम्राज्य ढह गया, उसने कई सारे क्षेत्रीय रजवाड़ों और छोटी जागीरों को जन्म दिया। इससे पहले कि ये सभी किसी राजनीतिक परिवर्तन की प्रक्रिया के तहत राष्ट्र-राज्य में तब्दील हो पाते, ब्रिटेन की प्रभुतर सैन्य तकनीक ने पैक्स ब्रिटानिका के तहत भारत को ‘एक’ करने का हस्तक्षेप कर डाला। औपनिवेशिक राज्य में शोषण और पीड़ा ने एक राष्ट्र के बतौर लोगों को आपस में जोड़ा; बेनेडिक्ट एंडरसन के शब्दों में कहें, तो लोग अब एक ‘राजनीतिक समुदाय’ के रूप में अपनी कल्पना कर पा रहे थे। यह परिकल्‍पना औपनिवेशिक आधुनिकता के रोपण से ठोस हो गयी जिसने सांस्‍कृतिक, सामाजिक और आर्थिक राष्‍ट्रवाद का विस्‍फोट कर दिया। राष्‍ट्रीय आंदोलन की अगुवाई करने वाला मध्‍यवर्ग, जिसने अपने सरोकारों का सूत्रबद्ध करने के लिए एक लोकवृत्‍त का निर्माण किया था, उसकी जड़ें औपनिवेशिक शासन में हुए सामाजिक परिवर्तनों में थीं। ऐसा कहने का आशय यह नहीं है कि राष्‍ट्रवाद पूरी तरह उपनिवेशवाद का उत्‍पाद था। इसके उलट राष्‍ट्रवाद, उपनिवेशवाद का प्रतिपक्ष था। यह उपनिवेशवाद से लड़ने का सबसे मज़बूत हथियार था, जिसने एशिया, अफ्रीका, निकट पूर्व और मध्‍यपूर्व के भूतपूर्व उपनिवेशों में नए राष्‍ट्र-राज्‍यों के निर्माण को प्रेरित किया। इसने विरोध और अवज्ञा के आंदोलन से राष्‍ट्र-निर्माण के एक आंदोलन में खुद को रूपांतरित किया।          

यह उपनिवेश विरोधी आंदोलन, जो राष्‍ट्रवाद के रूप में अभिव्‍यक्‍त हो रहा था, खुद को इसने केवल राजनीति तक सीमित नहीं रखा। राष्‍ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों, जैसे कला, शिक्षा, विज्ञान, संस्‍कृति और समाज इत्‍यादि में इसने बड़े बदलाव किए। द डॉन सोसायटी जैसे नए मंच और उसका अखबार डॉन मज़बूती से राष्‍ट्रवादी भावना को स्‍वर दे रहा था। द डॉन भारतीय राष्‍ट्रवाद का एक सशक्‍त वाहक बनकर उभरा। यह भारत और भारतीय सभ्‍यता पर सांस्‍कृतिक, समाजशास्‍त्रीय और आर्थिक अध्‍ययनों की समीक्षा था। उपनिवेशवाद और पश्चिम के बरक्‍स अपर्याप्‍तताबोध पर इस प्रतिक्रिया ने समूचे भारत में भारी बौद्धिक व राजनीतिक विमर्श को आलोडि़त किया। सेकुलर औा धार्मिक दोनों ही मोर्चों पर यह एक शुरुआत थी जिसने आधुनिक भारतीय राष्‍ट्र का निर्माण किया। राष्‍ट्र की जो अवधारणा इस तरह उभरी, वह राजा केंद्रित हिंदू समाज पर आधारित नहीं थी बल्कि एक राज्‍य और समाज पर आधारित थी जो उदारवाद, जनतंत्र और नागरिक स्‍वतंत्रताओं से युक्‍त होगा। राष्‍ट्रवाद ने बौद्धिक वर्ग को एक ऐसी राजनीतिक व्‍यवस्‍था की कल्‍पना करने में सक्षम बनाया जो सामंती और औपनिवेशिक दोनों ही व्‍यवस्‍थाओं से अलग हो।

आज राष्‍ट्रवाद का बहुत बोलबाला है, खासकर दुनिया के इस हिस्‍से में। बेंजामिन ज़कारिया ने 2011 में लिखी अपनी पुस्‍तक का उपयुक्‍त ही नाम दिया है: प्‍लेइंग द नेशन गेम: द एम्बिगुटीज़ ऑफ नेशनलिज्‍म इन इंडिया। उन्होंने पहले ही तमाम किस्म के राष्ट्रवादों का एक अंदाजा लगा लिया था जो बाद में उभरे और देश में होने वाली किसी भी घटना को वैधता प्रदान करने का औज़ार बने। ऐसी राष्ट्रवादी भावना अपने आप में कोई नयी नहीं है। नया कुछ है, तो वह है राज्य द्वारा उसे प्रायोजित किया जाना। इस उग्र स्वरूप वाले राष्ट्रवाद के हिसाब से देखें तो हम में से ज्यादातर लोग पर्याप्त राष्ट्रवादी नहीं हैं और हमें बार-बार यह याद दिलाए जाने तथा राज्य द्वारा तय किए गए राष्ट्रवादी विचार के निकष पर खींचे जाने और आजमाये जाने की ज़रूरत है। मेरे जैसे लोगों के लिए राष्ट्रवाद तो तमाम और लोगों की तरह ही हमारे पलने-बढ़ने का एक स्वाभाविक हिस्सा रहा है; हमारे लिए राष्ट्रवादी होना किसी सचेतन प्रयास का परिणाम नहीं था। हमने कभी महसूस नहीं किया कि हमें किसी प्रतीक की जरूरत है, यहां तक कि तिरंगे की भी नहीं, जिससे हम अपने राष्ट्रवाद को प्रदर्शित कर सकें। राष्ट्रवाद का उत्सव मनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा हम कुछ फिल्मी गीतों का प्रयोग कर लेते थे, खासकर कवि प्रदीप के लिखे हुए गीत।

अस्‍सी के दशक तक हमारा राष्ट्रवाद बहुत लचीला रहा। यह न तो आक्रामक था और न ही विद्वेषपूर्ण। आजादी के तीन चार दशक तक हमारा राष्ट्रवाद दरअसल स्वाधीनता संघर्ष की समावेशी और समग्र भावना का एक विस्तार बना रहा। हमारी जिंदगी में सबसे ज्यादा राष्ट्रवादी क्षण हर साल 30 जनवरी को दिन में 11:00 बजे आता था जब एक सायरन बजता था और हम सब बापू को श्रद्धांजलि देने के लिए मौन में एक साथ खड़े हो जाते थे। आजकल यह चलन से बाहर हो चुका है। पाकिस्तान के साथ 1965 और 1971 में हुई दो जंग ने भी ऐसे लड़ाकू राष्ट्रवाद को नहीं उभारा था, जैसा आज हम देख रहे हैं।

आज भारत में राष्ट्रवाद और संस्कृति की अवधारणा का जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है वह विकृत है। अब यह राष्ट्र या संस्कृति के बारे में कोई गंभीर चिंतन का मामला नहीं है बल्कि एक लोकप्रिय बहुसंख्यकवादी अलगाववाद द्वारा उछाला गया महज एक नारा है। हुआ यह है कि इतने वर्षों में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में जो ताकतवर तबका हाशिये पर पड़ा रहा था, वह अचानक मुख्यधारा के केंद्र में आ गया है। राष्ट्रवादी मुहावरेबाजी हमेशा से लोगों का ध्रुवीकरण करने में एक उपयोगी औजार साबित हुई है। यह दुनिया भर में कारगर रही है और विनाशक परिणामों के साथ अक्सर इसका इस्तेमाल किया गया है। लोगों की आदिम प्रवृत्तियों को अपील करके जगाने वाली यह राजनीति व्लादीमिर पुतिन से लेकर शिंजो आबे, एरदोगन, डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी तक दुनिया भर में समान रूप से देखी जा सकती है। इन सब ने जनता को ‘अन्य’ का भय दिखाकर सफलतापूर्वक बांटा है। इनके नारे में ‘अन्य’ को देश के दुश्मन, संस्कृति के दुश्मन और राष्ट्र के विकास यहां तक कि उसके वजूद को खतरे के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आज हमारे राष्ट्रवाद को लगातार एक शत्रु की जरूरत पड़ती है, एक ऐसी चीज जिससे नफ़रत की जा सके। यह राष्ट्रवाद एकरूपता की मांग करता है, किसी भी विचलन को पसंद नहीं करता बल्कि यह कहें कि राष्ट्रवाद की अपनी प्रस्थापना पर सवाल उठाए जाने से ही नफ़रत करता है। यह संस्कृतियों, विचारों, खाने-पीने के तरीके, पहनने-ओढ़ने के तरीके और यहां तक कि मनोरंजन के अलग-अलग साधनों में विविधता को भी पसंद नहीं करता। आज राज्य द्वारा संरक्षित यह सनकी राष्ट्रवाद हमारे नागरिकों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने वाला सबसे खतरनाक हथियार है।

एरिक हॉब्‍सबॉम ने इस झंडाधारी राष्ट्रवाद को बीसवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप में ही उभरते हुए देख लिया था, जहां विदेशियों के खिलाफ देश का झंडा लहराया जाता था। उन्होंने पाया था कि हर किस्म के राष्ट्रवाद का आधार दरअसल एक ही है: जनता द्वारा अपने राष्ट्र के प्रति भावनात्मक स्तर पर पहचाने जाने की स्वीकार्यता और राजनीति, खासकर चुनावों का जनतांत्रिकरण, जो लोगों को इस भावना के इर्द-गिर्द एकजुट करने के पर्याप्त मौके देता था। आज हम भारत में जिस परिघटना से गुजर रहे हैं, हॉब्‍सबॉम ने उसे ही स्वर देते हुए कहा था कि जब राज्य इस किस्म के राष्ट्रवाद को भड़का कर लोगों को इकट्ठा करते हैं तो वे उसे ‘देशभक्ति’ का नाम देते हैं। पहले से स्थापित राष्ट्र-राज्यों में उभरे मूल ‘दक्षिणपंथी’ राष्ट्रवाद का अंतिम लक्ष्‍य देशभक्ति पर अपना एकछत्र दावा करना था और इस तरह बाकी हर किसी को किसी न किसी किस्म का देशद्रोही ठहरा देना था। राष्ट्रवाद को दरअसल एक धर्मशास्त्र में बदला जा रहा था जहां उसकी आलोचना करना धर्मविरोधी था, कुफ्र था। आज भी ऐसे लोग हैं जो राष्ट्रवाद को एक पवित्र और पूजनीय स्वरूप देकर खुलेआम अभिव्यक्ति की आजादी को खतरा पैदा कर रहे हैं। हाल ही में शिव विश्वनाथन ने कहा था कि ‘स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रवाद से- जो विचारों का एक बहुरंगी समुच्‍चय था- राष्ट्र की एकरूपता तक का संक्रमण अब पूरा हो चुका है’।

यह संक्रमण हालांकि अचानक नहीं हुआ। इसके बीज आजादी के पहले ही बो दिए गए थे जब आजादी का संघर्ष अपने उन्‍वान पर था। जैसा कि मैंने पहले बताया, हमें अपने स्वतंत्रता संघर्ष से जो विरासत मिली उसने धर्म, भाषा, जाति, वर्ग और यहां तक कि क्षेत्र से पार जाते हुए समावेशी तरीके से हमारे राष्ट्रवाद और संस्कृति को परिभाषित किया। उसे बेशक उन हिंदुओं और मुसलमानों से चुनौती मिली जो अलग-अलग पहचानो के इर्द-गिर्द भारतीयों को बांटने के प्रति कटिबद्ध थे। बीसवीं सदी की शुरुआत से ही दो तरह के समूहों के बीच संघर्ष चल रहा था। एक वे जो भारत की अनेकता में एकता की तलाश करने में जुटे थे और दूसरे वे जो भारत को अलग-अलग राष्ट्रों में बांटने में जुटे थे। मौजूदा दौर में राष्ट्रवाद की चादर में बड़ी चालाकी से लपेटे गए बहुसंख्यकवादी राजनीतिक व सांस्कृतिक उभार को समझने के लिए हमें 1920 से 1940 के दशक के बीच के दौर को देखना होगा जब समावेशी विरासत को अपने शुरुआती निर्माणकाल में ही इन ताकतों से चुनौती मिलना शुरू हो गई थी। जो लोग भारत को संप्रदायवाद और प्रतिगामी मूल्यों के इर्द-गिर्द गढ़ने की ख्वाहिश रखते थे, हिंदू और मुस्लिम दोनों, उनके लिए एक धर्मनिरपेक्ष और भविष्योन्‍मुखी भारत का विचार दिक्कत पैदा करने वाला था। वे लोग भारत को बांटने में सफल हो गए, जिसके चलते जानमाल का बड़ा नुकसान हुआ। पाकिस्तान ने राष्ट्र और मजहब दोनों को आपस में मिलाकर खुद को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया लेकिन उसे 1971 में गहरा झटका लगा जब भाषा और संस्कृति ने धर्म को ही चुनौती दे डाली जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ। इधर भारत में जो कोई भी पाकिस्तान की राह चलना चाहता था, उन्होंने मिलकर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने का भारी दबाव डाला हालांकि वे अपने प्रयास में नाकाम हो गए लेकिन अपने प्रतिगामी और विभाजनकारी एजेंडे को जारी रखते हुए उन्होंने उन सबको प्रताड़ित किया जो एक नया स्वतंत्र भारत बुनने का संघर्ष कर रहे थे।

आज की दक्षिणपंथी ताकतें, जो अक्सर खुद को राष्ट्रवादी आवरण में पेश करती हैं, इन्होंने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में कोई हिस्सा नहीं लिया। इनसे जब इनके अतीत के बारे में सवाल किया जाता है तो ये भागकर अपने सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यभारों में छुप जाती हैं जिनमें ये लगी हुई थीं और बड़ी आसानी से इस बात की उपेक्षा कर देती हैं कि बाकी कितनों ने उस दौरान औपनिवेशिक राज के हाथों उत्पीड़न झेला और बलिदान दिया। हाल ही में नेहरू स्मृति संग्रहालय और पुस्तकालय में लगी एक प्रदर्शनी पर मेरा ध्यान गया जहां दक्षिणपंथ के एक अग्रणी नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी की झांकी लगी हुई थी। वहां 15 से 20 पैनल थे जिन पर उनके जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा और सामाजिक-राजनीतिक जीवन का विवरण दर्शाया गया था। कुछ पर 1930 और 1940 के दशक में हिंदू महासभा के साथ उनकी सक्रियता दिखाई गई थी और कुछ पैनल उनके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर केंद्रित थे। एक भी पैनल ऐसा नहीं था जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ हुए किसी भी आंदोलन या स्वाधीनता संघर्ष में उनकी भागीदारी अथवा उनके किसी भी संबंध का जिक्र रहा हो।

औपनिवेशिक चरण का कहीं ज्यादा विस्तृत और स्पष्ट उदाहरण हमें 1920 के दशक के मध्य में स्थापित गीता प्रेस में मिलता है, जिसका घोषित लक्ष्य सनातन हिंदू धर्म की रक्षा और उसका प्रचार करना था जबकि उसका प्रच्‍छन्‍न राजनीतिक एजेंडा उसकी पत्रिका कल्याण में छपता था। स्वतंत्रता सेनानियों के बीच एक प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारतीय राष्ट्र बनाने को लेकर जो सहमति थी उस पर गीता प्रेस बहुत आक्रामक तरीके से सवाल करता था जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा की सहमति व भागीदारी शामिल थी। इनके सामाजिक सुधार का मुख्य बिंदु बांटने वाले प्रतिगामी मुद्दों को उभारना था। ऐसा वे मनुस्मृति का इस्तेमाल करके करते थे और पुरुष वर्चस्व वाले हिंदू समाज में महिलाओं को उनकी जगह दिखाते थे, साथ ही पितृभूमि और पुण्यभूमि की अवधारणाओं पर आधारित अपने अलगाववादी राष्ट्रवाद की परिभाषा का हल्ला मचाते थे। यह धार्मिक अतिवाद उनकी दृष्टि में मुस्लिम सांप्रदायिकता को टक्कर देने के लिए अनिवार्य था, जबकि वे इस बात से गाफिल थे कि ऐसा करके वे दरअसल अलगाववादियों के काम को ही आसान कर रहे हैं। वे बड़ी आसानी से अपनी सांप्रदायिकता को तो राष्ट्रवाद बताते थे जबकि मुस्लिम सांप्रदायिकता को अलगाववाद हालांकि तथ्य यह है कि दोनों ही एक-दूसरे के पूरक थे और एक के बिना दूसरे का वजूद मुमकिन नहीं था। ऐसे तमाम कांग्रेसी थे जो कल्याण पत्रिका के लिए लिखते थे और उसकी कई तरीकों से मदद करते थे। इनमें से ज्यादातर लोग ऐसा हिंदू धर्म के भले को सोचकर करते थे क्योंकि वे मानते थे कि हिंदू धर्म खतरे में है। जवाहरलाल नेहरू से भी उसके संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार ने संपर्क करने की कोशिश की थी लेकिन कई बार के बावजूद नेहरू ने उनके अलगाववादी और प्रतिगामी विचार को समर्थन देने व पत्रिका में योगदान देने से इनकार कर दिया था। आजादी के पहले ही नेहरू ने इन ताकतों के बारे में कहा था कि ‘लोग जिसे संस्कृति कहते हैं, उसकी आड़ में ये ताकतें हमारे दिमाग और हमारे नजरिये को तंग बनाती हैं। यें ताकतें किसी भी खालिस संस्कृति का अनिवार्यत: निषेध है और पाबंदी हैं क्योंकि संस्कृति तो दिल और दिमाग को खोलने का काम करती है’। आजादी के संघर्ष से निकला यह राष्ट्रवाद- स्‍वाधीनता संघर्ष की वह विरासत जिसे आरएसएस और उसके बिरादर 1930 के दशक से ही चुनौती दे रहे हैं- आज सबसे गंभीर खतरों का सामना कर रहा है।

आजकल हम यह भी सुनते हैं कि देश बदल चुका है और इस ‘नए’ भारत के साथ हमारी यह विरासत शायद अप्रासंगिक हो चुकी है। यहां तक कि आजकल गांधी को भी पुराना मान लिया गया है और हमें कहा जा रहा है कि अब गांधी से दशकों पुराने मोह को हमें छोड़ देना चाहिए। जाहिर है कि आजादी के बाद बीते दशकों में यह देश लगातार बदलता रहा है, इसके बावजूद राष्ट्र निर्माण के कुछ बुनियादी उसूल ऐसे हैं जो हमेशा प्रासंगिक और वैध रहेंगे। हमारे राष्ट्रवाद ने सभी भारतीयों के सामूहिक गौरव को प्रतिबिंबित किया है। कोई भी ऐसा नागरिक नहीं रहा जो धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र के चलते इसके दायरे से बाहर छूट गया महसूस करता हो। जैसा कि गोपालकृष्‍ण गांधी ने कहा था, ‘’भारत सभी भारतीयों से है और सभी भारतीय मिलकर भारत हैं’’। यही भावना हमारे संविधान के मूल में है। इस मूलभूत भावना से कोई भी विचलन इस राष्‍ट्र के निर्माता लोगों के बीच असहजता और असुरक्षा को पैदा करेगा। यह आइडिया ऑफ इंडिया और भारतीय राष्‍ट्रवाद गहन विमर्श और मंथन का परिणाम था जिसकी शुरुआत बीसवीं सदी के आरंभ में हुई। आज इसी उदार राष्‍ट्रवाद का सत्‍व दांव पर लगा हुआ है, जिसे इस राष्‍ट्र ने पिछली सदी के दौरान पाला-पोसा है।

तेजी से बदलते हुए इस ताने बाने में जरूरत है कि हम गंभीरतापूर्वक राष्‍ट्रवाद और संस्‍कृति की अवधारणाओं पर आत्‍ममंथन करें। हमें वापस उन मूल विवरणों और परिभाषाओं की तरफ जाने की जरूरत है जो हमारे नेताओं ने भारतीय राष्‍ट्रवाद के संदर्भ में दी थीं। हमें मूल अभिलेखों को देखना होगा तथा राष्‍ट्र, राष्‍ट्रवाद और संस्‍कृति को परिभाषित व सूत्रबद्ध करने की प्रक्रिया के बारे में पढ़ना होगा। इन अभिलेखों में हम पाएंगे कि कई जगह राष्‍ट्रवाद और देशभक्ति को एक दूसरे के पर्याय की तरह प्रयोग किया गया है, दोनों के बीच फ़र्क धुंधला गया है। यहां मैं दोनों के बीच अंतर को स्‍पष्‍ट करना चाहूंगा। देशभक्ति का अर्थ है अपने देश के प्रति लगाव और उसकी रक्षा करने की इच्‍छा, जबकि राष्‍ट्रवाद देश के प्रति एक कहीं ज्‍यादा अतिवादी समर्पण का रूप है। इसीलिए राष्‍ट्रवाद की मुख्‍य कमी यह है कि यह लोगों को अंधा कर सकता है। अपने देश के प्रति प्रेम तो जरूरी है ही, लेकिन यह प्रेम यदि संवैधानिक मूल्‍यों या जनतांत्रिक आदर्शों से भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो गया तो यह विकृत हो जाता है।

राष्‍ट्रवाद के उभार पर लौटते हुए हम पाते हैं कि अधिकतर जिन लोगों ने राष्‍ट्र और राष्‍ट्रवाद के बारे में लिखा और सोचा, वह औपनिवेशिक भारत की गलत औपनिवेशिक व्‍याख्‍या तथा यहां के लोगों के दमन और शोषण की प्रतिक्रिया में था। आरंभिक प्रतिक्रियाएं एक किस्‍म के अपर्याप्‍तताबोध के इर्द गिर्द केंद्रित रहीं, जो भारत पर यूरोप में किए गए उस विपुल लेखन का परिणाम था जिसमें बौद्धिक, सांस्‍कृतिक और साथ ही राजनैतिक रूप से भारत को कमतर दिखाया गया था। जिन भारतीयों ने इस पर प्रतिक्रिया दी वे विविध क्षेत्रों से आए हुए लोग थे- धर्म, राजनीति, इतिहास, विज्ञान और संस्‍कृति। जाहिर है वे सभी सामाजिक संलग्‍नता वाले स्‍त्री-पुरुष थे, राष्‍ट्र और उसकी जटिलताओं पर सबसे पहले सोचने वाले समाज सुधारक थे, ऐसे वैज्ञानिक, साहित्‍यकार और संस्‍कृतिकर्मी थे जिन्‍होंने भारतीय राष्‍ट्रवाद और संस्‍कृति की अपनी खुद की दृष्टि को सूत्रबद्ध किया। हमारे राष्‍ट्रवादी बड़े ज्ञानी लोग थे, जैसा कि उनके लिखे से पता चलता है। वे भारत को अपनी परिकल्‍पना में जैसा मानते थे, उसके हिसाब से उसे गढ़ने के लिए इन्‍होंने ऐतिहासिक अतीत में गहरे गोता लगाया।

ऐसे चिंतकों के लिखे की कालावधि उन्‍नीसवीं सदी के अंत से स्‍वतंत्र भारत के कुछ दशकों तक फैली हुई है। यह राष्‍ट्र निर्माण और राष्‍ट्रवाद के उभार का एक अहम चरण था। हम बेशक इस पर बहस कर सकते हैं कि राष्‍ट्रवाद के उभार से पहले भारत का अस्तित्‍व एक राष्‍ट्र के रूप में था या नहीं, हालांकि भारतीय राष्‍ट्र का आरंभिक बिंदु अब और पीछे की ओर धकेला जा रहा है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री के इतिहास से उत्‍साही लगाव ने हिंदू धर्म के आरंभिक बिंदु को कम से कम एक सहस्राब्दि पीछे धकेल दिया है। अगर यह दावा सही भी हुआ, तो जैसा कि अर्नेस्‍ट गेलनर कहते हैं, ‘’राष्‍ट्र राष्‍ट्रवाद को पैदा नहीं करते बल्कि इसका उलटा सही है: राष्‍ट्रवाद राष्‍ट्रों को पैदा करता है।‘’ इससे भी आगे बेनेडिक्‍ट एंडरसन को सुनें, ‘’राष्‍ट्रवाद राष्‍ट्रों का आत्‍मचेतना से जागृत होना नहीं है; यह उन जगहों पर राष्‍ट्रों का आविष्‍कार करता है जहां वे नहीं थे।‘’


सैयद इरफ़ान हबीब

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