बदलाव की बाट जोहता गाबो का देश और हालिया राष्ट्रपति चुनावों के कुछ संदेश


श्रीलंका का भाग्यविधाता समझ लिया गया राजपक्षे परिवार आख़िरकार देश छोड़कर भागने को मजबूर हुआ। अभी हाल-हाल तक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री आदि कई और निर्णायक पदों पर काबिज़ रहे इस परिवार की मसीहाई-धर्मयोद्धा छवि को पालती-पोसती व्यवस्था पर सम्मोहित रही जनता ने आखिरकार अपनी जुबान और मुट्ठियाँ खोल ली हैं। वह यह बात समझ ही गयी कि इस पूरे तिलिस्म में जहां दुश्मन कभी तमिल तो कभी मुसलमान रहे, सत्ता की असली दुश्मन तो बहुसंख्यक जनता ही थी। वही जनता जो पिछले कई महीनों से बर्दाश्त के बाहर हो चुकी महंगाई, बेकारी, खाद्यान्न सहित जरूरत की सभी चीजों की सख्त कमी से जूझ रही है। इस जबरदस्त तख्तापलट ने एकबारगी पूरी दुनिया का ध्यान श्रीलंका जैसे छोटे मुल्क की तरफ ला दिया है।

देखा जाए तो ग्लोबल ख़बरों में आने या बने रहने का ‘सौभाग्य’ भौगोलिक और भू-राजनीतिक तौर पर छोटे समझे गए मुल्कों को साधारणतः हासिल नहीं होता है। दरअसल, सब कुछ बड़ा होने की अनिवार्य शर्तों वाली दुनिया और दुनियावी राजनीति में सिर्फ बड़े समझे गए मुल्कों, बड़े धर्मों, बड़ी भाषाओं, बड़ी अर्थव्यवस्थाओं, विशाल आर्थिक-सामरिक तंत्रों की ही पूछ होती है। जहां प्रासंगिक या महत्वपूर्ण होने के यही सारे इकलौते मापदंड बने रहते हैं, छोटी जगहों तथा तथाकथित छोटे करार दिए गए समाजों से आती बदलाव की जबरदस्त मिसालें दबी और भूली रह जाने को अभिशप्त होती हैं। फिर, ऐसी ही एक मिसाल अगर छोटे या दोयम मान लिए गए एक पूरे के पूरे महादेश लातीनी अमरीका से आयी हो और हमारी नजरों तथा बहसों से ओझल रह गयी हो, तो आश्चर्य कैसा! यहां हम इसी लातीनी अमरीका (जो वास्तव में उत्तर अमरीका में स्थित मेक्सिको, मध्य अमरीकी देशों, पूरे दक्षिण अमरीका तथा कैरिबियाई सागर में स्थित स्पेनी-पुर्तगाली-फ्रेंच भाषी द्वीपों का साझा सांस्कृतिक नाम है) से आते मुल्क कोलंबिया की कर रहे हैं।

आजकल खासकर जिस तरह हमारे देश में व्यापक असर डालने वाले हर सरकारी बदलाव को ‘ऐतिहासिक’ घोषित कर देने की ग्रंथि ने राष्ट्रीय बीमारी का रूप धारण कर लिया है, उसमें यह कहना कि कोलंबिया में हाल में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनावों के नतीजे ऐतिहासिक हैं शायद ही कोई ख़ास दिलचस्पी पैदा कर सके। फिर भी, कोलंबिया में जो हुआ है वह सही मायनों में ऐतिहासिक है। यह ऐतिहासिक क्यों है तथा इसकी व्यापकता और गहराई को समझने के लिए सिर्फ कुछ बातों पर गौर किया जाए।

अगर आपको एक ऐसे देश के बारे में बताया जाए जहां आज़ादी के दो सौ साल बाद नाम में अलग लेकिन विचार तथा व्यवहार के मामले में सालों-साल एक-जैसी लगती आयीं उदारवादी तथा रूढ़िवादी पार्टियों[i] के सिर्फ दो राजनीतिक विकल्प के बीच झूलते रहने के बाद आज सही मायनों में प्रगतिशील रुझानों वाली एक सरकार आयी है, तब आप क्या कहेंगे! आप क्या कहेंगे जब हम आपको बताएं कि उस मुल्क के लोगों ने, जो पूरे लातीनी अमरीका में संयुक्त राज्य अमरीका का सबसे विश्वस्त जूनियर पार्टनर रहा है, एक ऐसी सरकार चुनी है जो अब इस भूमिका को मानने से सीधा-सीधा इंकार करती है! क्या कहा जाए उस मुल्क में आए इस जबरदस्त राजनीतिक बदलाव के बारे में, जहां की आबादी का एक ठीकठाक हिस्सा होने के बावजूद काले लोगों को अभी तक सही मायनों कोई सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सशक्तिकरण हासिल नहीं हुआ था! और अब वहां एक ऐसी महिला उपराष्ट्रपति के तौर पर चुनी गयी हैं जो काली हैं तथा जो हाल-हाल तक घरों में झाड़ू-पोंछा का काम करती रही हैं। नयी उपराष्ट्रपति बनने वाली फ्राँसिया मार्केस ने  फर्श से अर्श तक का सफर तय किया है और अपने जीवट की बदौलत आज वहां के लोगों की राजनीतिक पसंद बनी हैं।

कोलंबिया के बारे में छपी हालिया ख़बरों की पड़ताल करें, तो उसमें तीन बातें ख़ास तौर पर उभर कर सामने आती हैं: कई तरह की विविधता जीने वाला यह देश लातीनी अमरीका के सबसे असमान मुल्कों में शुमार है; पूरे लातीनी अमरीका में संयुक्त राज्य अमरीका का सबसे विश्वस्त सहयोगी है तथा लातीनी अमरीका के सबसे ज्यादा रूढ़िवादी समाजों में एक है। अगर हम कोलंबिया तथा पूरे लातीनी अमरीका में उसकी स्थिति को समझने की कोशिश करें, तो यह तीन सूत्र वाक्य ही कोलंबिया की पूरी तस्वीर बता देते हैं। यही नहीं, दरअसल ये सारी बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। 

कोलंबिया और लातीनी अमरीका का इतिहास बताता है कि संयुक्त राज्य अमरीका का सैन्य सहयोग करना जिस-जिस देश ने भी स्वीकार किया है, वह आंतरिक रूप से भयानक गैर-बराबरी, असमानता और लोकतंत्र की कमी से भी जूझता रहा है। वो इसलिए क्‍योंकि पिछले दो सौ साल से लातीनी अमरीका के लगभग सभी ‘आज़ाद’ मुल्कों में जब-तब काबिज़ हो जाने वाली सैन्य तानाशाहियों को सबसे ज्यादा सहयोग संयुक्त राज्य अमरीका की सरकारों ने ही दिया। और इन तानाशाहियों ने बदले में संयुक्त राज्य की कंपनियों के आगे अपने-अपने देशों के बेशकीमती संसाधन लूटे जाने के लिए खोल दिए। आज पूरी दुनिया में कुख्यात बनाना रिपब्लिक की पूरी अवधारणा और आगे चलकर कई और देशों में त्रासद रूप से दुहरायी गयी सच्चाई दरअसल लातीनी अमरीका के साथ संयुक्त राज्य अमरीका का सामान्य व्यवहार रहा है। संयुक्त राज्य के सिर्फ जूनियर नहीं बल्कि सही मायनों में दोयम पार्टनर की भूमिका निभाने वाली तथा इन सारी स्थितियों से फ़ायदा उठाने वाली स्थानीय पूँजीवादी-नस्लवादी ताकतें किसी भी बदलाव की विरोधी रही हैं। 

इस संदर्भ में बात अगर कोलंबिया की क्रूर आर्थिक असमानता की करें, तो इसका अंदाज़ा वहां पिछले दो-तीन साल से चल रहे जन-आंदोलनों से भी होता है। यह परंपरागत असमानता कोविड के दौरान और भी भयावह हो गयी है। आंकड़ों पर गौर फरमाएं, तो पिछले कुछ साल से कोलंबिया में असमानता के ख़िलाफ़ बदलाव की बढ़ती हुई छटपटाहट का अंदाज़ा लगाया जा सकता है: कोलंबिया में मौजूदा गरीबी दर पिछले कुछ साल से लगातार 40 प्रतिशत के ऊपर रही है। यह गरीबी परम्परागत रूप से मूलवासी, काले तथा मिश्रित नस्ल के समुदायों के हिस्से ही आती रही है, जो देश की आबादी का 40 प्रतिशत हैं[ii]। वहीं, देश के संसाधनों पर कुंडली मारे बैठे गिनती के कुछ धनकुबेर इसी कोलंबिया में स्विट्ज़रलैंड की ज़िंदगी जीते हैं। दुसरी तरफ युवाओं के बीच बेरोजगारी दर बढ़कर 20 प्रतिशत हो चुकी है। यह तस्‍वीर उस देश की है जहां कुल पांच करोड़ की आबादी में 90 लाख लोग 28 साल या उससे कम उम्र के हैं। आबादी में युवाओं का हिस्सा कोलंबिया के अभी तक के इतिहास में आज सबसे ज़्यादा है। अगर हम इन सब आंकड़ों को साथ मिला कर देखें तो हमें एक ऐसे देश की तस्वीर मिलती है जहां आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा त्रस्त है और अपने हालात से बाहर निकलने और एक बेहतर देश बनाने के लिए बेचैन है। कोलंबिया के इतिहास पर गौर करें तो आबादी का यही बड़ा हिस्सा पिछले करीब 200 साल से बदलाव तथा बेहतरी के लिए लड़ता रहा है, बल्कि ठीक-ठीक कहें तो यह संघर्ष 500 साल से लगातार जारी है।

“नो आ ला रेफोर्मा, आर्रीबा एल पुएब्लो, आबाखो दूके”. “अब सुधार नहीं चाहिए, जनता ज़िंदाबाद, दूके (तब के बेहद अलोकप्रिय राष्ट्रपति इवान दूके) मुर्दाबाद! स्रोत: Photos: Deadly Protests Across Colombia – The Atlantic. Accessed on 17-08-222 at 12:32 pm.

सदियों से यात्रियों और व्यापारियों के देखे और लिखे के कारण यूरोप इंडिया को सोने और बेशुमार दौलत की खान मानता आया है। इसी इंडिया तक पहुंचने का दूसरा समुद्री रास्ता खोज लेने की सनक में कोलम्बस 1492 में दरअसल उन द्वीपों पर पहुँचा था, जिन्हें अब वेस्ट इंडीज़ कहा जाता है। आगे चलकर साल-दर-साल आज के लातीनी अमरीका पहुंचने वाले स्पेनी आक्रमणकारियों के सैकड़ों दस्तों, फिर वहां काबिज़ हुई औपनिवेशिक सत्ता के शुरुआती दिनों से ही यह संघर्ष चलता रहा है। स्पेनी/यूरोपीय/गोरे लोगों के हितों को भयावह हिंसा के साथ थोपने वाली यह सत्ता शुरू से बहुसंख्यक मूलवासी समुदायों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संस्थाओं तथा परम्पराओं को निर्ममता से कुचलती रही है।

बाहर से आयी बीमारियों तथा खदानों और बागानों में हाड़तोड़ काम से तिल-तिल कर बड़ी संख्या में दम तोड़ते मूलवासी लोगों की जगह खटने के लिए औपनिवेशिक सत्ता ने कुछ ही दशकों के भीतर अफ्रीकी गुलामों को यहां लाना शुरू किया। सोलहवीं सदी में शुरू हुए इस अमानवीय सिलसिले ने कोलंबिया ही नहीं बल्कि आज के पूरे लातीनी अमरीकी समाज को न सिर्फ हाशिये का एक और आयाम दिया, बल्कि जीवट, संघर्ष, संगीत और नृत्य की अनगिनत जीवंत परपम्पराएं भी दी हैं। कोलंबिया के सन्दर्भ में यह बात इतने गहरे रूप से मौजूद है कि यह क्यूबा, हैती, डोमिनिकन रिपब्लिक,  मेक्सिको, ब्राज़ील तथा पेरू के साथ उन लातीनी अमरीकी मुल्कों में शामिल है जहां न सिर्फ मूलवासी समुदायों के साथ-साथ अफ्रीकी मूल के समुदाय भी काफी बड़ी संख्या में मौजूद हैं, बल्कि इनके साथ मिलकर वे बदलाव की इबारत भी लिख रहे हैं।

स्रोत: https://eurweb.com/2016/05/19/this-is-why-we-march/. Accessed on 17-08-222 at 10:10 pm.

इस ऐतिहासिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो कोलंबिया के हालिया चुनावी नतीजों में राष्ट्रपति चुने गए गुस्तावो पेत्रो से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है फ्रांसिया मार्केस का उप-राष्ट्रपति चुना जाना। वह पिछले कुछ साल से अफ्रीकी मूल के कोलंबियाई लोगों के मुद्दों के साथ सबको प्रभावित करने वाले सवालों पर आगे बढ़कर मोर्चा लेती रही हैं। 

एक रपट के मुताबिक़ ब्राज़ील के बाद सबसे ज़्यादा अफ्रीकी मूल के लोग कोलंबिया रहते हैं, जो खुद को आफ्रो-कोलम्बियानो  कहलाना पसंद करते हैं[iii]। आबादी का एक अहम हिस्सा होने के बावजूद यह समुदाय सदियों से कोलंबिया के पिछड़े इलाकों में गुजर-बसर करता रहा, या फिर बड़े शहरों तथा राजधानी बोगोता में अमानवीय स्थितियों में लगभग नगण्‍य मजदूरी पर खटता रहा है। ऐसे ही इलाकों में शुमार ला काउका से आने वाली मार्केस अपनी ज़िंदगी में बेहतरी की जद्दोजहद के साथ-साथ अपने जैसे लाखों लोगों के लिए बदलाव की कोशिशों का प्रतीक रही हैं। उनकी पहचान हाल के आठ-दस वर्षों में कोलंबियाई लोगों के जल, जंगल, जमीन के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों में अगुआ नेता की रही है।

वर्ष 2014 में ऐसे ही एक संघर्ष में मार्केस ने ला तोमा राज्य में चल रहे सोने के अवैध खनन के खिलाफ आवाज़ बुलंद की थी। तब मार्केस और उनकी 80 साथियों ने ला तोमा से राजधानी बोगोता तक करीब 560 किलोमीटर पैदल मार्च किया था। 2014 का आंदोलन उनके तमाम संघर्षों में महज एक रहा है, जिसके लिए 2018 में उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा गोल्‍डमैन पुरस्‍कार दिया गया था। यह याद रखा जाना चाहिए कि कोलंबिया सहित पूरे लातीनी अमरीका में जल, जंगल सहित पर्यावरण की लड़ाई लड़ने वालों को दुनिया में सबसे हिंसक हालात का सामना करना पड़ता है और हर साल कई आंदोलनकारियों की बर्बर हत्या बाकी दुनिया के लिए खबर भी नहीं बन पाती। मध्य अमरीकी देशों में शुमार होन्दुरास के लेंका मूलवासी समुदाय से आने वाली बेर्ता कासेरेस ऐसा ही एक नाम हैं। देश के पश्चिम में बहने वाली नदी ग्वालकार्क पर बाँध बनाने को आमादा माफिया के गुंडों ने 2015 में उनकी हत्‍या कर दी थी। 

मार्केस जिन मुद्दों पर अपनी पहलकदमी और भागीदारी जोर-शोर से करती रही हैं, वे मुद्दे जीवन, अस्मिता और अस्तित्व के ऐसे सवाल हैं जो 19वीं सदी के शुरुआती दशकों में स्पेनी कब्ज़े से आज़ाद हुए कोलंबिया के दो सौ साल के सफर में आज तक पूरी तरह से सुलझाए नहीं जा सके हैं। कोविड तथा उसके पहले और बाद की तमाम राजनीतिक-आर्थिक बदइंतजामी और गलत फैसलों ने इन सवालों को और ज्यादा तीखा बना दिया है। यह यूं ही नहीं है कि राजधानी बोगोता सहित पूरा कोलंबिया पिछले दो-तीन साल से शिक्षा, रोजगार, महंगाई और राजनीतिक परिवर्तन के मुद्दों को लेकर सड़क पर उतरी जनता का गुस्सा देख रहा है। ये सारे लोग जो अपनी जिंदगी दाँव पर लगाकर, पुलिस तथा सेना से डटकर मुकाबला कर रहे थे, वे रंग तथा नस्ल की खाइयों को पाटकर सचमुच पूरे कोलंबिया की नुमाइंदगी कर रहे थे।

फ्रांसिया मार्केस, स्रोत: BBC

राष्ट्रपति चुने गए गुस्तावो पेत्रो ने भी कोलंबियाई समाज के बड़े हिस्से की इस बेचैनी को आवाज़ दी है। पेत्रो ने अपने मुद्दों की जो फेहरिस्त जारी की है, उन मुद्दों को वे दो ख़ास तरह के न्याय की कसौटी पर रखते रहे हैं: सामाजिक न्याय तथा पर्यावरणीय न्याय। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से पूरी दुनिया प्रकृति का विनाश कर के विकास कर लेने की जिद के चलते आज एक ख़तरनाक मोड़ पर पहुंच गयी है। पर्यावरणीय न्याय पर पेत्रो का जोर इस बात को रेखांकित करता है कि कोलंबिया के लोगों ने एक समाज के तौर पर अब यह तय कर लिया है कि विकास की इस अवधारणा व परियोजना को पूरी तरह से नकारना ही एकमात्र विकल्प है। इस बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोलंबिया के लोगों के इस निर्णायक फैसले ने पूरी दुनिया में राजनीति को नये तरीके से देखे और समझे जाने की उम्मीद कायम की है।  

एक बेहतर पर्यावरण में सबकी बराबर की भागीदारी को लेकर प्रस्तावित सुधार वाम-प्रगतिशील राजनीति में भी एक नये नजरिये की शुरुआत है। परम्परागत रूप से, जिसे हम भारत में भी देख सकते हैं, विकास के साधनों जैसे कि बड़े उद्योग, बड़ी सड़कें, बड़े बाँध आदि पर दक्षिणपंथ से बुनियादी तौर पर कोई असहमति न रखकर (दोनों विकास की पश्चिमी और आधुनिक मान्यताओं से ही बँधे रहे हैं) सिर्फ विकास के परिणामों के समानतापूर्ण वितरण की बात करने वाली विचारधारा लोगों के बीच अपने इसी द्वंद्व और पाखण्ड की वजह से कमजोर पड़ती जा रही है। ऐसे में विकास की विनाशक अवधारणाओं को बुनियादी तौर पर चुनौती देते हुए अलग-अलग पायदानों तथा हाशिये पर खड़े समुदायों की जरूरतों के हिसाब से आगे का रास्ता खोजने की राजनीतिक कोशिशों की जरूरत अहम हो गयी है। यहां यह जोड़ना भी जरूरी है कि पेत्रो के नेतृत्व में बने गठबंधनपाक्तो इस्तोरिको यानी ऐतिहासिक गठबंधन (pacto histórico) ने यह घोषणा की है कि उनकी सरकार  विकास की अनिवार्य शर्त मान लिए गए पेट्रोलियम तथा कोयले आदि के दोहन को सिलसिलेवार तरीके से बंद कर के पूरी अर्थव्यवस्था का आधार बदलना चाहती है। पेत्रो के गठबंधन ने यह ऐलान भी किया है कि देश के आर्थिक आधार को बढ़ाने और न्यायसंगत बनाने के लिए पूँजीपतियों पर टैक्स लगाया जाएगा तथा बिना किसी इस्तेमाल के पड़ी हज़ारों एकड़ बेनामी जमीन को काम में लाया जाएगा।

इसी से जुड़ी एक अहम बात कोलंबिया में कोका की खेती पर कही गयी है। नेटफ्लिक्स पर पूरी दुनिया में देखी गई सिरीज़ नार्कोस ने हमें कोका पौधों से निकलने वाले कोकीन से तबाह हुए कोलंबिया के बारे में बता ही दिया है। हमने उन खूंखार लेकिन पैसे और अय्याशी में डूबे ड्रग माफियाओं को देखा है, जो न सिर्फ कोका की अवैध खेती कराते हैं, बल्कि अवैध अड्डों से कोकीन बनाकर पूरे देश की व्यवस्था को ठेंगे पर रखकर उसका कारोबार भी करते हैं। हमें यह भी दिखाया गया है कि कैसे दशकों से पंगु रही कोलंबिया की पुलिस और राजनीतिक व्यवस्था संयुक्त राज्य अमरीका की कृपादृष्टि के बगैर एक कदम भी चल नहीं सकती। यह और बात है कि इस सिरीज़ ने इस खेती में लगे किसानों की लाचारी को बिलकुल नजरअंदाज कर हमारी नजरों से छुपा देने का काम भी किया है। ऐसे में पेत्रो का यह ऐलान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि ऐसे किसानों को दूसरे नगदी पौधों की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। अभी तक की प्रचलित नीति यह रही है कि उनके खेतों को लगाकर नष्ट कर दिया जाता था। इसके उलट अब उनकी आय बढ़ाने के सायास प्रयास होंगे जिससे कि वे लाचारी में ड्रग माफियाओं के चंगुल में न फंसें।

पेत्रो के नेतृत्व में कमान संभालने वाले गठबंधन ने यह भी ऐलान किया है कि पूरे देश में मुफ्त उच्च शिक्षा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की शुरुआत की जाएगी। एक अहम ऐलान यह भी है कि अकेले अपने बच्चों को पालने वाली माँओं को सम्मानजनक जीवन के लिए एक निश्चित न्यूनतम रकम दी जाएगी। 

पेत्रो और मार्केस जिस नयी सरकार की शुरुआत करने जा रहे हैं, उन्होंने कोलंबिया के लिए जो कार्यक्रम और प्रस्ताव रखे हैं, वो सब लातीनी अमरीका के एक महत्वपूर्ण और दिलचस्प ऐतिहासिक-भौगोलिक मुहाने पर बसे इस देश के लिए एक नये दौर की शुरुआत कर सकते हैं। पेत्रो ने इस नयी शुरुआत और राजनीति की बुनियाद रखते हुए कहा है कि उनकी राजनीति संवाद की राजनीति होगी। उनकी सरकार केवल वोट करने वाले तबकों की ही नहीं, बल्कि सबको सुनने की और साथ लेकर चलने की कोशिश करेगी। फ्रांसिया मार्केस ने यह ऐतिहासिक सच बार-बार जाहिर किया है कि “कोलंबिया की अभी तक की सभी सरकारों ने लोगों, न्याय तथा शान्ति की तरफ पीठ कर रखा था”। कोलंबिया की पहली काली उपराष्ट्रपति बनकर वह अपने जैसे कोलम्बियाई लोगों को सुनने वाला, उनकी कद्र करने वाला देश बना सकती हैं। 

उम्मीद तो यही है कि शकीरा और गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की चमकीली, आकर्षक और सम्मोहक दुनिया रहा यह देश, जो हाल-फिलहाल सिर्फ नार्कोस  के खूंखार पात्रों के नामों से जाना गया, अपने लाखों नाउम्मीद लोगों के लिए बदलाव के नये रास्ते तलाशेगा। 

राष्ट्रपति चुने गए गुस्तावो पेत्रो ने कोलंबियाई समाज के बड़े हिस्से की बेचैनी को आवाज़ दी है, स्रोत: TRT World

गाब्रिएल गार्सिया मार्केस (जिन्हें लोग प्यार से गाबो कहते थे) के कालजयी उपन्यास एकाकीपन के सौ वर्ष (1967) के कथानक की धुरी रहे बुएनदीया परिवार में दो नाम आउरेलियानो तथा खोसे आर्कादियो हर पीढ़ी में दुहराये जाते हैं। इसी बुएनदीया परिवार की चौथी पीढ़ी में आता है खोसे आर्कादिया बुएनदीया का किरदार।

वह कोलंबिया में स्थित बागानों से बाहर के देशों को केला निर्यात करनी वाली उस कम्पनी में काम करता है जिसके मालिकान संयुक्त राज्य अमरीका में बैठे हैं। वह उस कत्लेआम का भी चश्मदीद है, जब हड़ताल कर रहे उसके हज़ारों मजदूर साथियों को कोलंबिया की सेना मारकर उनकी लाशें समंदर मे फ़ेंक देती है। इस भयावह त्रासदी को पूरी तरह से झुठला देने, ख़बरों से ग़ायब कर देने वाले समाचारपत्रों तथा रेडियो के आगे बेबस वह खुद अपने घर में किसी को यह बता नहीं पाता और अपनी जान बचाने के लिए एक कोठरी में तिल-तिल कर जीने को, पागल बना दिए जाने को अभिशप्त है।

पिछली दो सदियों से कोलंबिया में हाशिये पर पड़े समुदायों में कई ऐसे चेहरे और नाम मौजूद हैं जिनमें इस पात्र का अक्‍स हम देख सकते हैं। उम्‍मीद है कि इस पात्र को अब न्याय मिल सकेगा। वही पात्र, जो 1940 के दशक में बदलाव का चेहरा बने खोर्खे एलिएसेर गाईतान में उम्मीद देखते हुए तब निराश हो जाता है जब देश के पहले प्रगतिशील राष्ट्रपति बनने जा रहे उस नेता की 9 अप्रैल 1948 को सरेआम ह्त्या कर दी जाती है। तब से लेकर आज तक कोलंबिया अपने उस सपने के टूट जाने की त्रासदी से उबर नहीं पाया है। उसके बाद चले गृहयुद्ध में हज़ारों बेगुनाहों की मौत हो चुकी है। आज का कोलंबिया गुस्तावो पेत्रो और फ्रांसिया मार्केस की अगुवाई में गाईतान के साथ देखे गए बदलाव और बेहतरी के उसी सपने को हासिल करने चला है, जिसे हकीकत में बदलने की कोशिश गाईतान ने 1928 में युनाइटेड फ्रूट कम्पनी के खिलाफ हुई मजदूरों की बगावत में अहम भूमिका निभाकर की थी।

उस बर्बर हत्याकांड की जगह से कुछ ही फासले पर मौजूद रहे गाब्रिएल गार्सिया मार्केस आगे चलकर अपने सबसे मशहूर उपन्यास में 9 अप्रैल के उस दिन को, गाईतान के किरदार को और मजदूरों के भुला दिए गए उस संघर्ष को दुबारा ज़िंदा करते हैं। आज मार्केस जहां कहीं भी होंगे, कोलंबिया में आए बदलाव की शुरुआत को देखकर खुश होंगे! 


नोट

[i] इन दो पार्टियों के बीच कई मुद्दों को लेकर दिखती अद्भुत एकता और साम्यता की विडंबना लेखक गार्सिया मार्केस अपने बहुचर्चित उपन्यास एकाकीपन के सौ वर्ष  (1967) में खूब  जाहिर करते हैं। उनका एक अहम किरदार कर्नल आउरेलियानो बुएनदीया कहता है: “उदारवादी और रूढ़िवादियों में बस इतना ही फर्क है कि उदारवादी शाम को पांच बजे चर्च जाते हैं और रूढ़िवादी शाम के आठ  बजे”! 

[ii] Colombia’s new president Petro proposes ambitious tax reforms | Elections News | Al Jazeera. Accessed on 17-08-2022 at 11:02  am.

[iii] Afro-Latinos in Latin America and Considerations for U.S. Policy – EveryCRSReport.com. Accessed on 17-08-2022 at 10:51 am.


सन्दर्भ 

  1. https://www.orfonline.org/expert-speak/the-colombian-presidential-elections/
  2. https://www.nytimes.com/live/2022/06/19/world/colombia-election-results
  3. https://www.theguardian.com/commentisfree/2022/jun/23/the-guardian-view-on-colombias-election-a-chance-for-a-change.
  4. https://www.aljazeera.com/news/2022/6/20/colombia-election-latin-america-leftist-leaders-praise-petro-win.
  5. https://www.npr.org/2022/06/19/1106118791/tight-colombian-runoff-pits-former-rebel-millionaire.

(लेखक कलबुरगी स्थित कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के विदेशी भाषा अध्ययन विभाग में स्पैनिश के असिस्टन्ट प्रोफेसर हैं)


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