गृहिणियों को पगार देने का चुनावी वादा और सार्वजनिक दायरे में बराबरी के अवसर का सवाल


बीच बीच में एक बात जो कई तरफ से आती है – कभी एनजीओ द्वारा तो कभी महिला अधिकार के पक्षधरों की तरफ से तो कभी चुनावी जुमले के रूप में, कि महिलाओं को उनके गृहकार्य के लिए मेहनताना मिले। इस बार तमिलनाडु की कई पार्टियों ने चुनावों को देखते हुए यह घोषणा की है कि जीतने के बाद गृहिणियों को गृहकार्य के लिए सरकार मेहनताना देगी।

आज से लगभग दस साल पहले केंद्र में सत्तासीन सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की पहल पर घरेलू महिलाओं के काम के आर्थिक महत्व का आकलन करने की कोशिश हुई थी। उस वक्त भी कहा गया था कि गृहिणियों को उनके पतियों के वेतन से 20 फीसद पगार के रूप में मिलेगा। यानि जिस गृहिणी का पति वेतन पाता होगा, उसे वाया पति पगार मिलेगा। 

चुनावी वादे कितने पूरे होते हैं यह तो हम सभी जानते हैं इसलिए इस पर बात ना करें तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन इन घोषणाओं तथा समझदारियों से हम स्त्री के मुद्दे पर समझ के बारे में चर्चा जरूर कर सकते हैं।

पहली बात तो यह है कि महिलाओं के हिस्से अधिकतर ऐसा काम आता है जो अवैतनिक है जैसे घर-गृहस्थी का काम, देखभाल का काम, चाहे वह बच्चों का हो, बुजुर्गों का हो। लेकिन इस मसले का समाधान यह नहीं है कि इसके बदले इसका पैसा दे दें। यह घोषणा की बात नहीं है, यह बताएं कि पैसा देगा कौन? इस निजीकरण के दौर में जब सरकार रही सही सार्वजनिक संस्थानों में विनिवेश की बात कर रही है, सब कुछ निजी हाथों में सौंपा जा रहा हो, तो क्या यह निजी संस्थान या कंपनियां, घर के अंदर के काम का मेहनताना देने आएंगी?

ऐसे मौके पर घर का काम कितना जरूरी और महान है इसकी चर्चा चल निकलती है, कुछ लोग गृहकार्य की प्रतिष्ठा बढ़े इसकी भी लड़ाई लड़ने लगते हैं। यह काम महत्वपूर्ण है इसमें कोई दोराय नहीं है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि इस अत्यंत जरूरी और ‘प्रतिष्ठित’ काम को वही करता रहे जो करता है। महिलाएं समाज और पारिवारिक ताने-बाने की नींव में कैसे हैं, उनकी भूमिका परिवार को बनाने-संवारने में कितनी अहम है आदि बातों से महिमामंडित किया जाता है परंतु दूसरे सदस्यों की इन कामों में  भूमिका बनाने में बाधा क्या है इसकी चर्चा अधिक नहीं होती है। इस अवैतनिक काम के साझेपन पर ही बात करने और कारण तलाशने की जरूरत है क्योंकि कोई भी समाज कितना भी आधुनिक हो वह सारे काम पैसों से नहीं तोल सकता है।

सरकार से जो आर्थिक सहायता मिलती है उसका आधार क्या है यह जानना जरूरी है, जैसे बेरोजगारी भत्ता हर बेरोजगार को मिलना चाहिए क्योंकि बेरोजगार को रोजगार चाहिए, लेकिन अगर रोजगार उपलब्ध नहीं है तो व्यक्ति अपना खर्च कहां से चलाएगा? उसी तरह विद्यार्थी की पढ़ाई का खर्चा सरकार को उठाना चाहिए क्योंकि वह आय करने वाला समूह नहीं है और इसी तरह सभी बुजुर्ग जो आराम करने की अवस्था में हैं उन्हें पेंशन मिलनी चाहिए।

महिलाओं को इस श्रेणी में इसलिए नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि उन्हें नौकरी यदि नहीं मिलती है तो उन्हें बेरोजगार की श्रेणी में गिना जाए। श्रमबल में बराबर की हिस्सेदारी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, इसके बिना जेण्डर गैर-बराबरी और भेदभाव का हल नहीं निकाला जा सकता है। काम का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है और यह किसी की सदिच्छा की बात नहीं है कि हम हर काम को काम मान लें। ‘‘हर हाथ को काम चाहिए, काम का पूरा दाम चाहिए’’- युवाओं के आंदोलनों में यह एक नारा होता था। सार्वजनिक दायरे में काम करना, अपने सहकर्मियों के साथ काम करना, कर्मचारी की मानसिकता से लैस होकर काम करना और बाहरी दुनिया के साथ अंतर्क्रिया करना, सीखना-जानना आदि ढेरों ऐसे पक्ष हैं जिससे कोई इंसान वंचित रह जाएगा यदि उसे घर में ही सब कुछ उपलब्ध करा दिया जाए। जब कोई व्यक्ति बूढ़ा हो जाए तो जरूर घर पर आराम करे, सहूलियत के मुताबिक काम करे।

यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बड़ी ही सुविधा से हमारे समाज के पितृसत्तात्मक सोच का फायदा उठा कर आधी आबादी को श्रमबल के दायरे से बाहर करने तथा घर तक सीमित करने और साथ ही सस्ते श्रम में तब्दील करने की जुगाड़ में रहती है। ध्यान रहे कि घर के अन्दर स्त्री द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले काम का मसला अर्थशास्त्रियों से लेकर नारीवादी आन्दोलन के बीच लम्बे समय से चर्चा के केन्द्र में रहा है। पितृसत्तात्मक मूल्यों मान्यताओं से प्रभावित हमारे समाज में घर के इस काम को काम भी नहीं समझा जाता रहा है और यह धारणा बलवती रही है कि महिलाएं कुछ काम नहीं करती हैं या वे कमाती नहीं हैं। यह इस बात में भी परिलक्षित होता है कि परम्परागत रूप से हमारे यहां घरेलू श्रम की आय नहीं आंकी जाती है इसीलिए वह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जोड़ी भी नहीं जाती है। वैसे, कुछ अदालती फैसले भी इस मसले पर नयी रौशनी डालते दिखते हैं और समाज में व्याप्त इस मिथक को तोड़ते हैं कि महिलाएं ‘कुछ काम नहीं करती है।’ 

कुछ साल पहले की बात है दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने एक अहम फैसले में सड़क हादसे में एक गृहिणी की मौत पर बतौर मुआवजा 7.33 लाख रूपए उसके परिजनों को देने का निर्देश दिया। इस गृहिणी की आय अदालत ने प्रति माह छह हजार रूपए आंकी। कोर्ट ने इस फैसले का आधार सुप्रीम कोर्ट के एक जजमेन्ट को बनाया। ‘लता बधवा बनाम स्टेट ऑफ बिहार’ केस 1989 का है जिसमें दुर्घटना में एक गृहिणी की मौत हो गयी। सुप्रीम कोर्ट ने इस महिला की आय उस समय 3,000 प्रति माह आंकी थी। बढ़ती महंगाई तथा बदलती जीवनशैली के अनुरूप तीस हजारी कोर्ट ने यह राशि बढ़ा कर 6,000 रूपए कर दी। उम्र की सीमा सुप्रीम कोर्ट ने 34 से 59 साल तय की थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक संतोष रानी की उम्र 50 वर्ष बतायी गयी। अतः 9 साल की उसकी आय तथा साथ में कुछ हर्जाना मिला कर ट्रक की इन्श्योरेन्स कम्पनी को देने का निर्देश दिया गया।

किसी को आर्थिक सहायता का एक आधार गरीबी या किसी अन्य प्रकार की निःसहायता भी हो सकती है। गरीब भी एक अस्थायी या बदले जा सकने वाली पहचान है, लेकिन औरत की पहचान के साथ गृहस्थी को हमेशा के लिए जोड़ देना पारंपारिक सोच है। यद्यपि गृहस्थी के काम महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे  स्त्री  और पुरुष दोनों के हिस्से में आना चाहिए।

यदि बात चुनावी घोषणाओं तक सीमित होती तो बात आयी गयी हो जाती, लेकिन इसका प्रभाव जनमानस पर भी पड़ता है जो औरत की सांचाबंद/स्टीरियोटाइप छवि का निर्माण करता है।

हम देख सकते हैं कि हमारे देश में पहले से ही श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी कम रही है। इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादकीय के मुताबिक (10 मार्च 2021 ) फीमेल लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (एफएलएफपी) 1990 से 2019 के बीच 30.28 से 20.52 तक पहुंचा, जो दक्षिण एशिया के इस हिस्से में सबसे कम आंकड़ा है। यहां तक कि यमन, सोमालिया, ईराक, सीरिया आदि देश जो भारत से भी गरीब और संकटग्रस्त हैं, वे भी इस मायने में बेहतर हैं। महिलाओं को घर की चहारदीवारी के भीतर तक अपनी दुनिया सीमित रखने के लिए तमाम पूर्वाग्रह तथा मान्यताएं पहले से विद्यमान हैं, सार्वजनिक दायरे की असुरक्षा की चिन्ता अलग से है।

यही नहीं, इस महामारी में लगातार यह ख़बरें भी आती रहीं कि महिलाओं ने तुलनात्मक रूप से अपनी नौकरियां अधिक खोई हैं। असंगठित क्षेत्र के कामों में महिलाओं की भागीदारी अधिक थी और इसी क्षेत्र के काम पर महामारी का सबसे अधिक प्रभाव भी पड़ा है।

सभी राजनीतिक पार्टियों और सरकारों का प्रयास यह होना चाहिए कि अधिकाधिक महिलाओं को कैसे घर से बाहर आने के लिए प्रेरित किया जाए ताकि श्रमबल में उनकी भागीदारी बढ़े। इसके लिए सुरक्षित कार्यस्थल के साथ काम का अवसर भी बढ़ाया जाना चाहिए। ऐसा तो नहीं है कि यह स्थिति सरकारों को पता ही ना हो, फिर यदि ऐसे प्रस्ताव आते हें तो यह जानबूझकर महिलाओं को अधिकारों वंचित करनेवाला तथा उन्हें घर तक सीमित रखने का प्रयास है।

आखिर घर का काम और देखभाल का काम स्त्री-पुरुष के बीच साझेदारी का काम कब बनेगा?

तमिलनाडु ने ही एक जमाने में प्रगतिशील कदम उठाते हुए किन्नरों तथा ट्रांसजेंडरों के लिए शिक्षा एवं नौकरी में स्थान दिया था। वह भारत का पहला ऐसा राज्य बना जिसने इस समुदाय के लोगो को जोड़ने के लिए नीतिगत पहल की थी। क्या वह इस दिशा में भी आगे बढ़ेगा?


(कवर तस्वीर परी से साभार)


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