जातिवाद, ब्राह्मणवाद और साम्प्रदायिकता के खिलाफ सामाजिक न्याय का एक किसान-बहुजन योद्धा

चौधरी चरण सिंह को जनसामान्य ‘किसान मसीहा’ और भारत के पांचवें प्रधानमन्त्री के तौर पर तो जानता है लेकिन कुछ मामलों में उनके व्यक्तित्व को उनके मूल विचारों और कृतित्व से उलट ही जानता और समझता आया है।

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हिन्दू-मुस्लिम एकता और आज़ादी के नायक मौलाना मोहम्मद अली जौहर

भारत में स्वतंत्रता की घोषणा मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने की थी। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह मोहम्मद अली थे जिन्होंने देश के सबसे बड़े नेताओं में से एक सी.आर. दास को आंदोलन में शामिल होने के लिए राजी किया था। इसलिए उनके जीवन और योगदान को समझने के लिए इससे बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता।

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आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण भारत का इंदिरा का सपना अब भी बाकी है…

साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, अलगाववाद तथा सामाजिक व्यवस्था के विचारहीन पहलू भारतीय एकता को तोड़ रहे थे। जहां उन्हें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न भारत का निर्माण करना था, वहीं दूसरी ओर एक अभिशप्त सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर न्यायपूर्ण व्यवस्था का सृजन करना था। श्रीमती गांधी ने जीवनपर्यन्त और प्राण देकर भी इसका निर्वहन किया।

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कॉमरेड ए.बी. बर्द्धन की याद में भारत के मज़दूर आंदोलन पर एक व्‍यापक नज़र

कॉमरेड ए. बी. बर्धन के 95वें जन्मदिवस तथा श्रम संगठन ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस (एटक) की स्थापना के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज द्वारा 25 और 26 सितम्बर को आयोजित ज़ूम मीटिंग का विषय था “भारत के मजदूर आंदोलन की विरासत और आज के संघर्ष”।

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बस्ती में मनाया गया जंग-ए-आज़ादी के महानायक क्रांतिवीर पिरई खां का स्मृति समारोह

उनके नेतृत्व में चले स्वतंत्रता संग्राम में गुरिल्ला क्रांतिकारियों ने लाठी-डंडे, तलवार, फरसा, भाला, किर्च आदि लेकर मनोरमा नदी पार कर रहे अंग्रेज अफसरों पर 10 जून, 1857 को धावा बोल दिया जिसमें लेफ्टिनेंट लिंडसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंगलिश, लेफ्टिनेंट रिची, लेफ्टिनेंट काकल और सार्जेंट एडवर्ड की मौके पर मौत हो गई थी।

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महमूद दरवेश: कौन नहीं रो पड़ा था जिसकी मौत पर एक गैर-मुल्क में हुए कविता-पाठ में!

एक कवि के लिए इतना प्रेम, इतना जज़्बा, इतना आदर, इतना गहरा अपनापन – यह इस लेखक के लिए एक अद्वितीय दृश्य था। महमूद दरवेश का यश, उनका हुनर, उनका मर्म, तब तक विश्व-भर में प्रख्यात था, लेकिन एक गैर-राष्ट्र वाली कौम का एक राष्ट्र-कवि माने जाने वाले व्यक्ति के प्रति इतनी भावपूर्ण और कृतज्ञपूर्ण आवेग देखते ही बनता था।

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“बनारस में रह कर मैं बनारस से कितना दूर था और गिरीश कितने पास”!

बात 1990 के दशक की है जब मैं प्रो. इरफ़ान हबीब के एक आमंत्रण पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास, उच्च अध्ययन केंद्र में एक माह की विज़िटरशिप के लिए …

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सीताराम सिंह: समाजवाद का एक आफ़ताब

सीताराम सिंह जी आज हमारे बीच होते तो हम उनकी 101वीं सालगिरह मना रहे होते। वे सौ की उम्र पूरी करने से पहले 2018 में हमारे बीच से चले गए

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