आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण भारत का इंदिरा का सपना अब भी बाकी है…


इंदिरा गांधी का नाम विश्व की महानतम और शक्तिशाली महिलाओं में शामिल है। सशक्त आत्मशक्ति और असाधारण हिम्मत के लिए वह जानी जाती हैं। उनमें एक विशेष राजनीतिक दूरदृष्टि थी। उनके व्यक्तित्व के निर्माण के पीछे राजनैतिक व ऐतिहासिक घटनाओं का एक सिलसिला है, नैतिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि है, परिवार की वैभवशाली परंपरा है। इन्हीं सब ने मिलकर उनके बौद्धिक, भावात्मक और सैद्धांतिक व्यक्तित्व का निर्माण किया।

इंदिरा जी के प्रारंभिक जीवन का कालखण्ड राजनीतिक उथल-पुथल से भरा रहा। चरखा, सादगी, देशप्रेम ने सोचने-समझने का एक दूसरा ही दृष्टिकोण बना दिया था। सामाजिक मान्यताएं बदल रही थीं और एक नयी राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा था। विदेशी शिकंजे में जकड़ा भारत ग़ुलामी की ज़ंजीरें तोड़कर अपना नया रूप ग्रहण कर रहा था। ऐसे समय मेंं 19 नवंबर 1917 को इलाहाबाद में इन्दिरा गाँधी का जन्म हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। देश मेंं क्रांति हो चुकी थी और देश के राजनीतिक क्षितिज पर गांधी का सूरज चमक रहा था।

इंदिरा प्रियदर्शनी की प्रारंभिक शिक्षा से लेकर मैट्रिक तक की शिक्षा अव्यवस्थित रही। आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेहरू परिवार और फिर मां कमला की बीमारी इसके प्रमुख कारण रहे, परंतु जो शिक्षा इंदु ने गुरु रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी के साथ रह कर ग्रहण की वह बहुत ही कम लोगों को नसीब हुई।

महात्मा गांधी के साथ इंदिरा, Wikipedia

1923 में प्रारम्भ हुई स्कूली शिक्षा 1938 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से समाप्त हुई। इंदिरा प्रियदर्शनी  की स्थिति से पंडित नेहरू कभी बेख़बर नहीं रहे। जेलों में रहकर भी वे बेटी के लिए कितना सोचते थे यह इसी से जाना जा सकता है कि जेल से बराबर बेटी को हिम्मत और उत्साह दिलाने वाले नये विचारों व इतिहास के संबंध में देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत लंबे-लंबे पत्र लिखा करते थे। टैगोर ने शांति निकेतन छोड़ने के बाद पंडित नेहरू को लिखा कि, “मैंने उसे बड़े निकट से देखा और मेरे मन में यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि जिस तरह आपने उसका पालन-पोषण किया उससे उसमें आपके विचार व आपके चरित्र की दृढ़ता भी खूब है। उसके संपर्क में आने वाली सभी शिक्षिकाएं एक स्वर में उसकी बड़ाई करती हैं।”

लाहौर कांग्रेस अधिवेशन इंदु के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन लेकर आया। नमक सत्याग्रह ने तो मासूम के जीवन मे क्रांति ही ला दी। बारह वर्ष की इंदिरा ने बच्चों की एक वानर सेना का गठन किया और आनंद भवन के बग़ीचे में इसकी पहली सभा हुई। इस वानर सेना ने नोटिस, पर्चे व कागज़ात यहां से वहां पहुंचाना, झंडे बनाना, खबरें गुप्त स्थानों पर पहुंचाना आदि काम बख़ूबी किए। इस छोटी सी उम्र में इतने बड़े संगठन का निर्माण और नेतृत्व उस समय चौंकाने वाला था।

इलाहाबाद के एक पारसी युवक फ़िरोज़ गांधी ने पंडित मोतीलाल जी से प्रेरित हो कर राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू किया था। इंदिरा जी से बचपन से ही उनकी घनिष्ठता रही। अपनी मां कमला देवी के जर्मनी में इलाज के दौरान उनकी सेवा समर्पण भावना ने इंदिरा जी को अत्यधिक प्रभावित किया और 26 मार्च 1942 को हिन्दू रीति-रिवाज से बहुत ही साधारण ढंग से उनकी शादी सम्पन्न हुई। वैवाहिक जीवन, पिता की देखभाल एवं राजनीतिक गतिविधियां एक साथ चलती रहीं, जिससे वे अपने बच्चों के लिए समय नहीं दे पायीं। उन्होंने स्वयं लिखा है, “मेरे सार्वजनिक कार्यों ने अक्सर मुझे बच्चों से दूर रखा है। अगर वे इसके बारे में कभी सोचते भी हैं तो ठीक है क्योंकि इससे मैं भारत के सभी बच्चों के लिए अच्छा भविष्य बनाने का प्रयत्न करती हूं।”

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ और इसी के साथ इंदिरा जी के जीवन मे व्यस्तताओं का दौर शुरू हुआ। 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र की घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की मदद करना धीरे-धीरे उनकी आदत में शुमार हो गया। वे पंडित नेहरू के साथ विदेश जातीं, महान राजनीतिज्ञों से मिलतीं, चुनावों में कांग्रेस के प्रचार के लिए देशव्यापी दौरा करतीं। राजनीति के अलावा सामाजिक कार्यों में खूब दिलचस्पी लेतीं। उनकी सेवाओं के लिए 1953 में संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें ‘मदर्स अवार्ड’ देकर सम्मानित किया।

जवाहरलाल नेहरू के साथ इंदिरा और उनके दो पुत्र राजीव और संजय, Wikipedia

वास्तव में इंदिरा गांधी की ‘राष्ट्रीय सेवाओं’ की अपनी एक पृष्ठभूमि थी। 1942 के आंदोलन में उनका योगदान सर्वविदित है तथा 1955 से लगातार कांग्रेस कार्यकारिणी की सदस्य थीं। इन्हीं विशेषताओं के साथ 8 फ़रवरी 1956 को श्रीमती गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का महान व गौरवशाली पद संभाला।

कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने आर्थिक कार्यक्रमों पर विशेष बल दिया। उनका विचार था कि कांग्रेस को अपने कार्यक्रम लागू करने में कोई रुकावट नहीं आ सकती। उन्होंने आर्थिक कार्यक्रमों की सफलता के लिए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता पर विशेष बल दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में केरल में कम्युनिस्ट सरकार को गिराने के कारण एक उन्हें एक तबके की आलोचना का सामना करना पड़ा।

जवाहरलाल नेहरू के निधन के पश्चात 9 जून सन् 1964 को शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। इंदिरा जी को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय मिला। अपने मंत्रि‍काल में इंदिरा जी ने आकाशवाणी में बहुत से महत्वपूर्ण सुधार किये। उनका पूरा प्रयत्न था कि आकाशवाणी एक स्वतंत्र सांस्कृतिक विभाग के रूप में कार्य करे।

लालबहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के पश्चात बड़ी विषम परस्थितियों में 24 जनवरी 1966 को इंदिरा जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। 26 जनवरी को राष्ट्र के नाम अपने प्रथम सन्देश में उन्होंने कहा, “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे धर्म, भाषा और प्रदेश भिन्न हैँ, लेकिन हमारा राष्ट्र एक है और हम एक हैं।”

1967 के चुनाव नतीजों के बाद विपक्षी दलों के हौसले बढ़े हुए थे। आज़ादी के बाद पहली बार आधा देश कांग्रेस प्रभाव से बाहर हो गया था, परंतु इंदिरा जी अकेले ही इस भयावह स्थिति से जूझने में व्यस्त थीं। ऐसे में इंदिरा गांधी के अथक प्रयास से डॉ. ज़ाकिर हुसैन राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। उनका राष्ट्रपति होना भारत की धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक माना गया। 1967 का अंत आते-आते गैर-कांग्रेसी सरकारों का पतन होने लगा और जनता इंदिरा जी की ओर आशा एवं विश्वास से देखने लगी।

16 जुलाई 1969 को इंदिरा गांधी ने स्वीकृत समाजवादी नीतियों एवं आर्थिक नीतियों की अवहेलना के प्रश्न पर वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को पद से बर्खास्त कर दिया। इंदिरा जी ने स्वयं वित्त मंत्री का पद संभाला और एक अध्यादेश के द्वारा देश के चौदह बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, जो कि एक ऐसा कदम था जिसने जनता में पर्याप्त आत्मबल पैदा किया तथा बैंकों को जनसुलभ बनाया। इंदिरा जी ने इसके बाद राजाओं के प्रिवी पर्स को खत्म किया। उन्होंने कहा, “यह उस विशेष दिशा में एक कदम मात्र है जिस ओर देश जाना चाहता है और जहां वह किसी के बावजूद जाएगा। अगर हम इस कदम को नहींं उठाएंगे तो पीछे छूट जाएंगे।”

President Nixon and Prime Minister Indira Gandhi during her arrival ceremony at the White House. November 5, 1971

बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम में सहयोग देने के पश्चात इंदिरा जी की लोकप्रियता और राजनीतिक स्वरूप उच्चतम शिखर पर पहुंच गया। एक देश की प्रधानमंत्री व लोकप्रिय नेता के पद से उठकर वे मानवता की एकमात्र नेता पद पर जा बैठीं। पाकिस्तान और भारत के बीच उपजी कटुता एवं देशभर में उनकी नीतियों के खिलाफ हो रहे आंदोलनों से घबराकर उन्होंने आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी और देश के तमाम विरोधियों को जेल में डाल दिया। बीस सूत्री कार्यक्रम के ज़रिये इंदिरा जी ने जनता के सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति के प्रयास किये, लेकिन ऊपरी तौर पर कानून-व्यवस्था नियंत्रण में रही पर अंदर-अंदर विरोध सुलगता रहा।

1977 के आम चुनाव में इंदिरा जी की पराजय हुई, परंतु जनता को जल्द ही इसका एहसास हुआ और 1980 में वे पुनः भारी बहुमत से विजयी हुईं। उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अत्यधिक सम्मान मिला, कॉमनवेल्थ सम्मेलन का आयोजन व विकासशील तथा गुटनिरपेक्ष देशों द्वारा श्रीमती गांधी को अपना नेता चुना जाना राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए सुअवसर था। वे देश की अखंडता के लिए चिंतित थीं, लेकिन इसी बीच देश मेंं कुछ स्वार्थी राजनीतिक तत्वों ने विघटनकारी कार्रवाइयाँ शुरू कर दीं। उन्होंने लंबे अरसे तक आपसी बातचीत द्वारा समझौते का रास्ता अपना कर शांतिपूर्ण हल निकालने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु विवश होकर उन्हें आतंकवादी आंदोलन को दबाने के लिए स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी।

इसके अतिरिक्त असम, कश्मीर कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी समस्याएं मुँह बाये खड़ी थीं, लेकिन इंदिरा गांधी अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ और कुशल कार्यशैली से सभी समस्याओं से लोहा लेती रहीं और एक समस्या में उलझी रहकर दूसरी समस्या का हल निकालती रहीं। ऐसे में ही उनके अंगरक्षकों द्वारा 31 अक्टूबर 1984 उनकी हत्या कर दी गयी और इस तरह भारत के एक गौरवशाली इतिहास का दुःखद अंत हुआ।

रूस में जारी इंदिरा गांधी का टिकट, 1984

वास्तव में भारतीय राजनीति में ‘इंदिरा युग’ अनेक महान संभावनाओं और उपलब्धियों का युग था, साथ ही गंभीर चुनौतियों का भी। श्रीमती गांधी को हर मोर्चे पर लड़ना-जूझना पड़ा। साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, अलगाववाद तथा सामाजिक व्यवस्था के विचारहीन पहलू भारतीय एकता को तोड़ रहे थे। जहां उन्हें आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न भारत का निर्माण करना था, वहीं दूसरी ओर एक अभिशप्त सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर न्यायपूर्ण व्यवस्था का सृजन करना था। श्रीमती गांधी ने जीवनपर्यन्त और प्राण देकर भी इसका निर्वहन किया।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व जाने-माने इतिहासकार हैं


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