गांव छोड़ब नहीं: उड़ीसा के विस्थापन-विरोधी जन आंदोलनों की गाथाएँ

प्रस्तुत पुस्तक मूलत: पालग्रेव मैकमिलन और आकार बुक्स (2020) से प्रकाशित अंग्रेज़ी भाषा में छपी “रसिस्टिंग डिस्पोज़ेशन — द ओडिशा स्टोरी” का हिंदी अनुवाद है। हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा सेंटर फ़ॉर ह्यूमन साइंसेस, भुवनेश्वर द्वारा प्रकाशित (2020) “गां छाड़िबु नहीं” शीर्षक से यह पुस्तक, उड़िया भाषा में भी उपलब्ध है।

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पुस्तक संस्कृति का ह्रास

आज लेखक अपने पैसों से पुस्तकें छपवा कर स्वप्रचार कर रहे हैं। यह एक दयनीय स्थिति है। इस स्थिति में साहित्य के नाम पर लेखन, सृजन आत्मभिव्यक्ति भर ही है।

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डर लगता है कि मेरा वैचारिक बदलाव आपको पसंद नहीं आएगा: शिक्षक के नाम एक विद्यार्थी का पत्र

मेरी भी इच्छा थी कि यदि मैं लिख दूंगा तो यह बातें आप तक भी पहुंच जायेंगी। सर, मेरी इच्छा रहती है कि मैं आपको अपना लिखा हुआ पढ़कर सुनाऊं और आप कहें कि ”तुम्हारी चिट्ठी सुनने का सुख मिला।”

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पॉलिटिकली Incorrect: रैदास के बेगमपुरा में किताबों के लंगर भी होते, काश!

दिल्‍ली के बॉर्डरों पर रैदास के असंख्य बेगमपुरा उग आए हैं। बस इस बेगमपुरा में एक चीज़ की कमी खलती है- किताबों की। सिंघु पर कुछ लोगों ने मिल कर भगत सिंह लाइब्रेरी बना दी है, जहां लोग बैठकर पढ़ते हैं। एक-दो किताबों की दुकानें भी अस्थाई डेरे में शामिल हो गई हैं।

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ब्रिटेन सरकार का फ़रमान और ‘फारेनहाइट 451’ के मुहाने पर खड़ी दुनिया

दक्षिण एशिया के इस हिस्से में सांस्‍कृतिक युद्ध- जो पहले के विशाल ब्रिटिश साम्राज्‍य का ही हिस्सा था- उसी गतिमानता के साथ आगे बढ़ रहा है जहां हम देख रहे हैं कि पाकिस्तान अब अरबीकरण की दिशा में आगे बढ़ा है जबकि भारत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रणीत हिन्दू राष्ट्र की दिशा में तेजी से डग बढ़ा रहा है।

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