ब्रिटेन सरकार का फ़रमान और ‘फारेनहाइट 451’ के मुहाने पर खड़ी दुनिया


आप भले मेरी किताबें और यूरोप के सबसे उन्नत मस्तिष्‍कों की किताबें जला देंगे, लेकिन उन विचारों का क्या जो उन किताबों में समाये थे और जो करोड़ों रास्तों से आगे बढ़ चुका है और बढ़ता ही रहेगा!

हेलेन केलर, एन ओपन लेटर टू जर्मन स्टुडेंट्स

Fahrenheit 451: यही उस फिल्म का नाम है जो साठ के दशक के मध्य में (1966) में रिलीज़ हुई थी। चर्चित फ्रेंच निर्देशक त्रूफो द्वारा निर्देशित इस एकमात्र इंग्लिश फिल्म की तरफ उस वक्त लोगों का अधिक ध्यान नहीं गया था। प्रख्यात अमेरिकी लेखक रे ब्रेडबरी के इसी नाम के प्रकाशित एक उपन्यास (1951) पर आधारित यह फिल्म उस भविष्य की कल्पना करती है जब किताबें गैर-कानूनी घोषित की जाएंगी और दमकल विभाग वाले उन तमाम किताबों को जला देंगे, जो उनके हाथ लगती हैं। फारेनहाइट 451 दरअसल उस तापमान का आंकड़ा है जब किताबें जलती हैं।

दूसरे विश्वयु़द्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में जो कम्युनिस्ट विरोध की उन्मादी मुहिम सरकार की शह पर चल पड़ी थी, जब बड़े-बड़े लेखक, कलाकारों, संस्‍कृतिकर्मियों को जबरदस्त प्रताड़ना से गुजरना पड़ा। एक ऐसा दौर, जब ‘लोगों को अपने साये से भी डर लगने लगा था’, उस पृष्ठभूमि में यह उपन्यास लिखा गया था, जिसने शोहरत की बुलंदियों को छुआ है। अब तक उसकी पचास लाख प्रतियां बिक चुकी हैं।

वक्त़ निश्चित ही बदल गया है।

आज की तारीख में हम तीस के दशक में नाज़ी काल में चले ‘पुस्तक जलाओ अभियानों’ जैसे असभ्य दिखने वाले काम नहीं कर सकते हैं या अमेरिका की तरह ऐसा माहौल भी नहीं बना सकते कि किताबों की आलमारियों से सीधे किताबों को हटाया जाए। यह अलग बात है कि हुकूमती जमातें नयी-नयी तरकीबें ढूंढती रहती हैं कि लोग किताबें पढ़ें ही नहीं। ब्रिटेन के शिक्षा महकमे द्वारा हाल ही में जारी एक आदेश को इसी सन्दर्भ में देखना चाहिए।

उसने इंग्लैण्ड की स्कूलों के लिए यह निर्देश जारी किया है कि वह ऐसे समूहों और संगठनों के संसाधनों का इस्तेमाल करना बन्द कर दें जिन्होंने पूंजीवाद की समाप्ति की इच्छा जाहिर की है। उसके लिए पूंजीवाद विरोध ‘‘एक अतिवादी राजनीतिक विचार’’ है, जिसे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामीवादविरोध/एंटीसेमिटिज्‍म/और गैर-कानूनी गतिविधि’ की हिमायत के साथ जोड़ा जा सकता है।

उम्मीद की जा सकती है कि हुकूमत में बैठे जानकारों, आलिमों ने इस आदेश के जारी किये जाने से पहले इस मसले पर जरूर गौर किया होगा और इसकी अहमियत तथा पाठयक्रमों पर उसके संभावित असर को जाना होगा। इसके बावजूद हम कुछ संभावनाओं की बात कर सकते हैं।

इस निर्देश से एक तरह से ब्रिटेन के अपने इतिहास को पाठ्यक्रम में रखना गैर-कानूनी हो जाएगा- जैसे समाजवाद की एक जमाने की ताकतवर शक्तियां, लेबर पार्टी तथा ट्रेड यूनियन संघर्ष आदि- क्योंकि अपने लम्बे इतिहास में उन्होंने हमेशा ही पूंजीवाद से परे जाने, पूंजीवाद को समाप्त करने आदि की बातों पर जोर दिया है।

इसका मतलब यह होगा कि महान ब्रिटिश लेखक जैसे थॉमस पेन, इरिस मर्डाक, विलियम मॉरिस आदि भी पाठ्यक्रमों से बाहर कर दिए जाएंगे क्योंकि उनके लेखन में भी पूंजीवाद विरोध के तत्व मिलते हैं या कमसे कम यह बात मिलती है कि इन्सानियत का अंतिम भविष्य मुनाफा हासिल करना नहीं होगा।

इस निर्णय की विसंगतियों को अध्यापकों ने ही नहीं, बल्कि आम नागरिकों ने भी रेखांकित किया है। एक अध्यापक जो ‘निधर्मी’ हैं लेकिन एक कैथोलिक स्कूल में पढ़ाते हैं उन्होंने संपादक के नाम ख़त में एक दिलचस्प प्रश्न पूछा: ‘दर्शन को सिखाते हुए क्या मुझे प्लेटो का रिपब्लिक पढ़ाते हुए भी सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि उसमें राज्य द्वारा नियंत्रित, एक गैर-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की बात की गयी है?’ जैसे कि उम्मीद की जा सकती है कि टोरी सरकार के इस फैसले की व्यापक भर्त्सना हुई है और उसे सत्ताधारी कान्जर्वेटिव पार्टी के तहत बढ़ रहे ‘‘अधिनायकवाद’’ के तौर पर देखा जा रहा है। यह निर्णय विचलित करने वाला है अलबत्ता आश्चर्यचकित नहीं करता।

Victor Orban, Hungary PM

दरअसल, कन्जर्वेटिव पार्टी ने हमेशा ही लोकतंत्र के मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी बातों के प्रति अपने सन्देह को प्रकट किया है और आज की तारीख में जबकि कोविड महामारी को लेकर सरकार के ढुलमुल रुख, ब्रेक्जिट सम्बंधित रणनीति आदि के चलते जब उसकी अपनी कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगे हैं तो शायद उसने यही नतीजा निकाला है कि यही वह मौजूं वक्त़ है कि किसी अनपेक्षित दिशा में मोर्चा खोल दिया जाए।

उन्हें यह सबसे आसान प्रतीत होता है कि ‘ब्रिटिश मूल्यों’ की रक्षा के नाम पर किसी किस्म के सांस्कृतिक युद्ध को छेड़ा जाए ताकि अपना खोया जनाधार वापस पाया जा सके और इसके लिए सबसे जरूरी है कि जनता के सामने खड़ी समस्याओं से उसका ध्यान बांटा जाए।

हम देख सकते हैं कि ‘अतिवादी राजनीतिक रुख’’ के प्रति उनकी अचानक चिन्ता, दरअसल एक ढाल है जिसके इस्तेमाल से वह इस सांस्‍कृतिक युद्ध को छेड़ना चाहते हैं, जिसके माध्यम से वह उन व्यक्तियों, संस्थाओं को निशाना बनाना चाहते हैं जो यथास्थिति को लेकर सवाल उठाते हों। चर्चित वामपंथी ब्रिटिश स्तंभकार ओवेन जोन्स, अपने एक कॉलम में इस बात को रेखांकित करते हैं कि ओरबान की अगुआई का हंगेरी इन दिनों कन्जर्वेटिव पार्टी का मॉडल बना हुआ है और ब्रिटेन के ‘संभावित भविष्य’ को देखना हो तो आप वहां जा सकते हैं।

उनके मुताबिक हंगेरी आज भी लोकतंत्र का आवरण पहने हुए है, चुनाव वहां होते रहते हैं, विपक्ष भी मौजूद है, लेकिन सत्ताधारी वर्ग अपना अतिराष्ट्रवादी एजेण्डा आगे बढ़ाने में मुब्तिला है, जहां उसका सबसे प्रिय हथियार ‘‘सांस्‍कृतिक युद्ध’’ है जिसमें आप्रवासियों को निशाना बनाया जा रहा है या ट्रांस अधिकारों (trans rights) के दमन के लिए महामारी का इस्तेमाल किया जा रहा है। जितने आनन-फानन में ब्रिटेन ने स्कूली पाठ्यक्रम को बदल डाला, वह भी अविश्वसनीय लगता है।

दक्षिण एशिया के इस हिस्से में सांस्‍कृतिक युद्ध- जो पहले के विशाल ब्रिटिश साम्राज्‍य का ही हिस्सा था- उसी गतिमानता के साथ आगे बढ़ रहा है जहां हम देख रहे हैं कि पाकिस्तान अब अरबीकरण की दिशा में आगे बढ़ा है जबकि भारत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रणीत हिन्दू राष्ट्र की दिशा में तेजी से डग बढ़ा रहा है।

हमारी प्रस्तुत चर्चा के लिए यह प्रासंगिक होगा कि शिक्षा के दायरे में किस किस्म के बदलाव किए गए हैं। मिसाल के तौर पर, प्रेस में यह ख़बरें भी छपी हैं कि किस तरह पाकिस्तान की नयी शिक्षा नीति ‘धर्म आधारित समाज’ तैयार करना चाहती है।

परवेज़ हुदभॉय के मुताबिक इसका मकसद है कि मदरसा और अन्य स्कूलों को एक ही पलड़े पर रखा जाए

पाकिस्तान के शिक्षा जगत में आ रहे इन बदलावों के बारे में लिखते हुए प्रोफेसर परवेज़ हुदभॉय, जो लाहौर तथा इस्लामाबाद में भौतिकी के जाने-माने अध्यापक हैं और प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं, अपने नियमित कॉलम में बताते हैं कि इस कदम के कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं: उसका मकसद है कि मदरसा और अन्य स्कूलों को एक ही पलड़े पर रखा जाए,  वह मुमकिन बनाती है कि इत्तेहाद तंजिमाज-इ-मदारिस (मदरसा संगठनकर्ताओं का गठबन्धन) से जुड़े नुमाइन्दे यह तय करें कि पाकिस्तान के बच्चे क्या पढ़ें, यहां तक मौजूदा पाठ्यपुस्तकों की जांच का जिम्मा भी उन्हें दिया गया है, नर्सरी से आगे की हर कक्षा के लिए धार्मिक सामग्री अनिवार्य होगी। क्लास 1 से 5 के पाठ्यक्रम में इतनी धार्मिक सामग्री होगी जितनी सामग्री का स्तर भी बहुत ऊंचा होगा,  धार्मिक पठन सामग्री नर्सरी की कक्षाओं से ही अनिवार्य होगी। कक्षा 1 से 5 तक के पाठयक्रम में मदरसों के पाठ्यक्रमों की तुलना में अधिक धार्मिक सामग्री दिखती है। इसका निहितार्थ ही होता है भेदभाव से भरा क्योंकि गैर-मुसलमानों के लिए इस्लाम की पवित्र किताब कुरान के अध्ययन की मनाही है।

हम कल्पना ही कर सकते हैं कि मदरसा और अन्य स्कूलों को एक ही स्तर पर रखने तथा धार्मिक विद्वानों को सभी स्कूलों की पाठयपुस्तकें तय करने का अधिकार देने के कितने खतरनाक नतीजे आ सकते हैं।

क्या वह इस स्थिति से गुणात्मक तौर पर भिन्न होंगे जब नाजी समूहों ने किताबों को जलाने की मुहिम तीस के दशक की शुरूआत में चलायी थी क्योंकि उनका कहना था कि यह सभी किताबें नाज़ी विरोध के विचारों को प्रचारित-प्रसारित करती हैं। जिन किताबों को उन्होंने निशाना बनाया उनमें यहुदी, शांतिवादी, धार्मिक, उदारवादी, अराजकतावादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट और सैक्सोलोजिस्ट जैसे विविध किस्म के विद्वानों की किताबें थीं।

निस्सन्देह, यह विचार कि आधुनिक शिक्षा को मदरसों के समकक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है, अपने आप में ही समस्यापूर्ण है क्योंकि आधुनिक शिक्षा जहां आलोचनात्मक चिन्तन पर आधारित है, मदरसे की शिक्षा में ऐसा कोई आधार नहीं होता है। उसका मकसद यही होता है कि धार्मिक परिपाटियों का पालन करने वाले आज्ञाकारी विद्यार्थी का निर्माण किया जाए और मौत के बाद बेहतर जीवन की बात की जाए। साफ बात है कि यहां आलोचनात्मक चिन्तन पर पाबंदी रहती है।

पाकिस्तान के शिक्षा जगत के अध्ययनकर्ता बताते हैं कि वहां की शिक्षा व्यवस्था में जिन बदलावों को अंजाम दिया जा रहा है, वैसे बदलावों की कल्पना तो जनरल जिया उल हक़ ने भी नहीं की होगी, जिन्होंने पाकिस्तान को इस्लामीकरण के रास्ते पर मजबूती से ला खड़ा किया।

विश्लेषक बताते हैं कि इमरान खान, दरअसल इसी वायदे के साथ सत्ता में आए हैं कि वह उसे ‘‘मदीना के स्वर्णिम युग’ में ले जाना चाहते हैं। हम देख सकते हैं कि ‘स्वर्णिम अतीत’ की बातें ‘चिरवैरी’ कहे जाने वाले मुल्क के तमाम प्रबुद्धजनों को आकर्षित करती है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मौजूदा हुक्मरान मुल्क को रामराज्य की दिशा में ले जाना चाहते हैं – जो एक तरह उनके अपने सपनों का हिन्दू राष्ट्र है।

अगर ब्रिटेन की कन्जर्वैटिव पार्टी ने एक ऐसा मसविदा तैयार किया है ताकि ब्रिटेन के अपने छात्रा और युवा अपने खुद के इतिहास को ही पढ नहीं सकें जबकि यहां सत्ताधारी उनकी हमखयाल ताकतें इतिहास की सांप्रदायिक चेतना को आगे बढ़ाने में लगी हैं; जिसके तहत अतीत के सांप्रदायिक नज़रिये को आगे बढ़ाने के लिए वह पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन में लगी हैं; जिसके तहत हिन्दू राजाओं की तारीफ के पुल बांधे जाएं तथा अन्य लोगों के योगदान को अनुल्लेखित रखा जाए या उसे गलत ढंग से प्रस्तुत किया जाए।

इस बार हालांकि लोगों के सामने गढ़ा हुआ इतिहास (मैन्युफैक्चर्ड हिस्टरी) भी पेश किया जा रहा है। केन्द्र में सत्तासीन मोदी सरकार ने बाकायदा एक कमेटी बना कर ‘इतिहास में हिन्दू फर्स्ट’ की अवधारणा पर मुहर लगाने के लिए इस कवायद को तेज़ किया है। प्रस्तुत पैनल को ‘बारह हजार साल से’ अधिक समय से भारतीय संस्‍कृति के उद्गम और विकास के समग्र अध्ययन और शेष दुनिया के साथ उसकी अन्तर्क्रिया के अध्ययन के लिए बनाया गया है। (देखें, पेज 63, रिलीजियस नैशनलिज़म, राम पुनियानी, मीडिया हाउस 2020)

‘विशेषज्ञों की इस कमेटी’ के गठन के पीछे का विचार यही है कि सरकार अपने हिन्दू वर्चस्वगान के एजेण्डा को ही आगे बढ़ाने में मुब्तिला है और उसे इस सच्चाई से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि भारतीय उपमहाद्वीप में पहला मनुष्य कब पहुंचा इसके बारे में आधुनिक सिद्धांत क्या बताते हैं?

टोनी जोसेफ, आरंभिक भारतीय, 2019

विगत साढ़े छह वर्षों में शिक्षा के दायरे को लगातार उद्वेलित रखा गया है। अब स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा संस्थान, जो विचारों के मुक्त प्रवाह तथा निःसंकोच आदान-प्रदान की जगहें समझीं जाती थीं, अब मायावी लगने लगी हैं। आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहली दफा हो रहा है कि असहमति रखने वाले छात्रों एवं अध्यापकों पर तरह-तरह से लांछन लगाये जा रहे हैं।

वह वक्त चला गया जब विश्वविद्यालय को ‘सार्वभौमिक ज्ञान को सिखाने का स्थान’ कहा जाता था

जॉन न्यूमैन, द आयडिया आफ युनिवर्सिटी

क्या किताबें- जिन्हें ज्ञान का भंडार कहा जाता है और जो लोगों को सोचने के लिए मजबूर करती आयी हैं, इस हमले से बच सकेंगी? शायद फारेनहाइट फिल्म का आखरी दृश्य इसका जवाब देता प्रतीत होता है।

कहानी का मुख्य पात्र गाय मोन्टाग (Guy Montag), जो फायरमैन है और किताबों को जलाने की मुहिम में खुद सक्रिय रहता है, वह पड़ोसी पुस्तकप्रेमी परिवार की बेटी से बातचीत के बाद बदल जाता है। वह घर छोड़ देता है और ग्रामीण इलाके में पहुंचता है जहां उसकी मुलाकात एक विशाल समूह से होती है जो बुक पीपल नाम से अपने आप को संबोधित करता है। इस समूह ने किताबों को बचाये रखने के लिए एक अलग किस्म की पहल की है- उन्हें पूरा याद कर लेने की। 

गाय मोन्टाग को भी एक किताब मिलती है और वह तुरंत उसे याद करने में जुट जाता है।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार, वामपंथी कार्यकर्ता और अनुवादक हैं

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