कवि होने की सादगी-भरी और संजीदा कोशिश


विगत चार दशकों से हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी प्रभावी और गरिमापूर्ण उपस्थिति दर्ज कराने वाले जुझारू एवं प्रखर साहित्यकार शैलेन्द्र चौहान के कृतित्व के मूल्यांकन को समेटती पुस्तक ‘वसंत के हरकारे’ मेरे सामने है। इस पुस्तक का संपादन-संयोजन साहित्यकार सुरेंद्र कुशवाह ने किया है।

शैलेन्द्र चौहान मूलतः कवि हैं लेकिन उन्होंने कहानियां, व्‍यंग्‍य, कथा रिपोर्ताज, संस्मरण और आलोचना के क्षेत्र में भी काम किया है। स्वतंत्र पत्रकारिता भी वे करते रहे हैं। ‘धरती’ नाम से एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन भी उन्होंने किया है जिसके कुछ विशेषांक साहित्य जगत में काफी चर्चित रहे। शैलेन्द्र के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ (1983), ‘श्वेतपत्र’ (2002) और ‘ईश्वर की चौखट पर’ (2004)। एक कहानी संग्रह- ‘नहीं यह कोई कहानी नहीं’ (1996), एक संस्मरणात्मक उपन्यास ‘पाँव जमीन पर’ (2010) भी प्रकाशित है। गत वर्ष उनकी काव्यालोचना पर ‘कविता का जनपक्ष’ नामक बहुचर्चित पुस्तक आयी है। उनकी इन रचनाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन समय-समय पर होता रहा है। अब ‘वसंत के हरकारे’ में सभी विधाओं पर आलोचनात्मक लेख, टिप्पणियां और पुस्तक समीक्षा का समायोजन कर एक साथ प्रस्तुत करने का महती दायित्व सुरेंद्र कुशवाह ने गंभीरता से निर्वाह किया है।

प्रारंभ में शैलेन्द्र के व्यक्तित्व और रचना कर्म पर अत्यंत आत्मीय तथा संवेदनापरक संस्मरण की शैली में विस्तार से सुपरिचित कवि-कथाकार अभिज्ञात ने चर्चा की है। अभिज्ञात का मानना है कि शैलेन्द्र आस्वाद के नहीं, आश्वस्ति के रचनाकार हैं। वे लिखते हैं कि शैलेन्द्र का होना मनुष्य समाज व दुनिया की बेहतरी के बारे में सोचते व्यक्ति का होना है। मुझे कई बार यह लगता है कि बेहतर सोचने वाले दुनिया के लिए उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितने कि बेहतरी के बारे में सोचने वाले।

शैलेन्द्र चूंकि मूलतः कवि हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि उनकी कविताओं की अधिक चर्चा हो। संभवतः इसलिए पुस्तक में दस आलेख दो-एक टिप्पणियों सहित कविताओं पर केंद्रित हैं। ‘श्वेतपत्र’ संग्रह की कविताओं पर बसंत मुखोपाध्याय लिखते हैं कि ‘शैलेन्द्र ने यथार्थ की अंदरूनी परतें उघाड़ने की अपनी जो विशिष्ट शैली विकसित की है वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। उनकी कविताओं में एक छोर पर तो यथार्थ की संवेदनात्मक उपस्थिति है वहीं जीवन और जगत का द्वंद्व संपूर्णता में उजागर करने की बलवती इच्छा भी है। इन कविताओं में अंतर्प्रवाहित काव्यात्मक ईमानदारी है। डॉ. वीरेन्द्र सिंह का मानना है कि ‘शैलेन्द्र चौहान विज्ञानबोध के भिन्न रूपाकारों तथा प्रतीकों का प्रयोग यथार्थ के किसी पक्ष को गहराने तथा व्यंजित करने हेतु करते हैं।’ यह बात श्री सिंह, शैलेन्द्र के कविता संग्रह ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’ की इसी शीर्षक वाली कविता के संदर्भ में कहते हैं जो अस्सी के दशक में एक दिहाड़ी मजदूर की निम्नतम सरकारी मजदूरी थी। यह कविता हाई वोल्टेज विद्युत पारेषण लाइन के निर्माण की श्रमसाध्य स्थितियों पर रची गयी है।

सुपरिचित कवि-गजलकार रामकुमार कृषक कहते हैं- ‘कविता के भावलोक में उतरने के लिए जरूरी है कि उसके बाह्य अथवा परिवेशगत यथार्थ को समझा जाए। समकालीन कविता के संदर्भ में यह और भी जरूरी है क्योंकि स्थितियां चाहे जितनी भी जटिल हों, यथार्थ से वे आज भी सीधे टकरा रही हैं। अकारण नहीं शैलेन्द्र चौहान की कविता कवि से कुछ इसी तरह संवाद करती है।’ ‘ईश्वर की चौखट पर’ संग्रह पर यह टिप्पणी कृषक जी ने की है।

डॉ. शंभु गुप्त का मत है कि ‘शैलेन्द्र चौहान दरअसल बिंबधर्मिता को एक व्यापक पैमाने पर अपनाते हैं। वे टुकड़ा-टुकड़ा बिंब के स्थान पर यथार्थ के एक समूचे चित्र या समूची स्थिति के अंकन का प्रयास करते हैं।’ डॉ. अजय कुमार साव शैलेन्द्र को प्रतिरोध का बुनियादी हस्ताक्षर निरूपित करते हैं तो डॉ. सूरज पालीवाल मानते हैं कि शैलेन्द्र की कविता, कविता के प्रचलित मानदंडों के विरोध में खड़ी है। विजय सिंह का मानना है- ‘कुछ कवि जिन्होंने सचमुच कवि होने की सादगी भरी संजीदा जद्दोजहद की है वे इस भीड़ में अलक्ष रहे आए हैं। उनका इस तरह अलक्ष रह जाना उन पाठकों को तो सालता ही है जो गंभीर और लोकप्रिय कविता के बीच किसी अच्छी कविता का इंतजार करते हैं। शैलेन्द्र चौहान एक ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविता भाषा के स्तर पर सहज तो है लेकिन लोकप्रिय नहीं है क्योंकि उसके भीतर एक महत्वपूर्ण वैचारिक द्वंद्व है जो मनुष्य के सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नयन की आकांक्षा का अनूठा पर वास्तविक उपक्रम है’।

शैलेन्द्र की कहानियों पर डॉ. प्रकाश मनु का विस्तृत आलेख है। मनु लिखते हैं- ‘कहानीकार की मूल प्रतिज्ञा इन्हें कटे-संवरे या तराशे हुए रूप में सामने रखकर पाठकों को कथा-रस में सराबोर करना शायद रहा ही नहीं। शैलेन्द्र अपनी कहानियों में अपनी गुम चोटों और अपने आसपास के परिवेश की टूट-फूट और छूटती जा रही जगहों को दिखाना कहीं ज्यादा जरूरी समझते हैं।’ शैलेन्द्र चौहान के उपन्यास ‘पांव जमीन पर’ पर टिप्पणी करते हुए महेन्द्र नेह कहते हैं- ‘पांव जमीन पर’ मात्र विषाद और संत्रास के चित्र नहीं हैं बल्कि जीवन के बहुरंगी अनुभवों का वह रस वहां कदम कदम पर मौजूद है जो लोक का प्राणतत्व और उसकी आत्मशक्ति है। जीवन का उल्लास जहां छलकता हुआ मिला है शैलेन्द्र ने खूब खूब ऊसमें डूबा, तैरा और नहाया है।

इस उपन्यास पर अर्जुन प्रसाद सिंह का मत है- ‘पांव जमीन पर’ पुस्तक में शैलेन्द्र चौहान ने भारतीय ग्राम्य जीवन की जो बहुरंगी तस्वीर उकेरी है उसमें एक गहरी ईमानदारी है और अनुभूति की आंच पर पकी संवेदनशीलता है। ग्राम्य जीवन के जीवट, सुख-दुख, हास-परिहास, रहन-सहन, बोली-बानी को बहुत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। यह सब मिलकर पाठक के समक्ष सजीव चित्र की सृष्टि करते हैं और चाक्षुश आनंद देते हैं।’

शैलेन्द्र चौहान की आलोचना पुस्तक ‘कविता का जनपक्ष’ पर दो आलेख हैं। डॉ. शीलचंद पालीवाल का मत है- ‘आलोचक शैलेन्द्र चौहान ने इस पुस्तक में कविता के जनपक्ष को समझाने के लिए उसे मुख्यतः दो रूपों में व्याख्यायित किया है। एक- जनपक्ष का आंतरिक पक्ष और दूसरा जनपक्ष का शिल्प पक्ष। इन आलेखों के अलावा शैलेन्द्र द्वारा संपादित ‘धरती’ पत्रिका के बारे में जानकारीपूर्ण सामग्री है। उनकी पत्रकारिता पर संक्षिप्त टिप्पणी है और शैलेन्द्र पर शेख मोहम्मद की एक आत्मीय एवं महत्वपूर्ण कविता है मित्र- शैलेन्द्र चौहान।

कुल मिलाकर शैलेन्द्र चौहान के कृतित्व पर एक गंभीर परिचयात्मक आलोचना विमर्श है जिसे संपादक सुरेंद्र कुशवाह ने पूरी जिम्मेदारी और समर्पण के साथ प्रस्तुत किया है। एतदर्थ वे साधुवाद के पात्र हैं।


पुस्तक : वसंत के हरकारे- कवि शैलेन्द्र चौहान
संपादक- सुरेंद्र सिंह कुशवाह
मूल्य- 300 रुपये
प्रकाशक- मोनिका प्रकाशन, 85/175, प्रतापनगर, जयपुर


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