स्थायी समिति की संस्तुति की रोशनी में ‘भाजपा हराओ’ का नारा कहीं गलत तो नहीं साबित हो गया?


खाद्य, उपभोक्ता एवं सार्वजनिक वितरण मामलों की 13 दलों वाली संसद की स्थायी समिति ने आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 को अक्षरशः लागू करने की संस्तुति सरकार को कर दी है। यह विधेयक उन तीन कृषि कानूनों में से एक है जिसे किसान काला कानून कहते हैं और इसे वापस लेने मांग को लेकर विगत कई महीनों से आंदोलनरत हैं। इन 13 दलों में भाजपा के अलावा कांग्रेस, एनसीपी, टीएमसी, शिवसेना, जेडी (यू), सपा, नागा पीपुल्स फ्रंट, नेशनल कांफ्रेंस, आप, डीएमके, पीएमके और वाईएसआरसीपी शामिल हैं। कांग्रेस समेत स्थायी समिति में शामिल कई ऐसे दल भी हैं जो संसद के बाहर तीनों कानूनों को वापस लिए जाने की मांग करते रहे हैं।

भारतीय राजनीति में जनता के मुद्दों पर जनता को ठगने की यह प्रवृत्ति नई नहीं है। कारपोरेट घरानों और पूंजीपतियों के संसाधनों से सत्ता की दहलीज़ तक पहुंचने के चलन और विवशता का यह स्वभाविक परिणाम है। स्थायी समिति की संस्तुति ने पूंजीपतियों के गोदाम तक किसानों की उपज के पहुंचने की एक और रुकावट दूर कर दी है। अब किसान आंदोलन को पूंजीपति आश्रित दलों से दूरी बनाते हुए अपना लक्ष्य और मार्ग तय करने के लिए नए सिरे से सोचने की पहले से कहीं अधिक ज़रूरत है।

सरकार द्वारा किसान आंदोलन की मांगों की अनदेखी करने और आंदोलन को बदनाम कर खत्म करने के लिए किसी भी स्तर तक जाने के पीछे पूंजी के खेल और राजनीतिक दलों की इसी प्रवृत्ति की सबसे बड़ी भूमिका है। स्थायी समिति ने अपनी सिफारिश में यह भी कहा है कि इस अधिनियम के लागू होने के बाद कीमतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है इसलिए ज़रूरी है कि सरकार लगातार सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर निगरानी रखे और आवश्यकता पड़ने पर उपचारात्मक कदम उठाए। समिति की सिफारिश का यह भाग किसान आंदोलन के आरोपों और जनता की आशंकाओं को अनुमोदित करता है। भारतीय राजनीति में पूंजी के दखल को, वाम और कुछ छोटे दलों को छोड़कर, सत्ता के खेल में शामिल देश के राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति से जोड़ कर देखा जाए तो आवश्यक वस्तुओं के मामले में भी निगरानी और उपचार के नतीजे पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों से बहुत अलग होंगे इसकी संभावना कम ही दिखती है।

किसान आंदोलन ने अपनी मांगों के प्रति मोदी सरकार के रवैये से खिन्न हो कर ‘भाजपा हराओ’ की नीति शायद इसलिए अपनायी थी कि इस प्रकार सरकार को मांगों के प्रति सकारात्मक दिशा में लाने का दबाव बनाया जा सकेगा। पांच राज्यों में होने वाले चुनावों, खासकर पश्चिम बंगाल में भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ इसे किसानों का पहला और लगभग प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रयोग कहा जा सकता है, लेकिन साथ ही स्थायी समिति के रवैये और किसान नेताओं के टीमएसी के प्रति झुकाव को देखते हुए इस बात की भी आशंका बढ़ जाती है कि इस विरोध के नतीजे किसानों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरेंगे।

किसान आंदोलन को अब यह भी महसूस करना होगा कि सरकार के अड़ियल रवैये के पीछे उसके सामने मौजूद यह तथ्य भी रहे होंगे कि कम या अधिक पूंजीपतियों की झूठन से अन्य राजनीतिक दलों के हाथ भी गंदे हैं। अपने आकाओं को खुश करने के लिए उनकी भूमिका किसान आंदोलन को जन आंदोलन बनाने के बजाय सामयिक राजनीतिक लाभ प्राप्त करने से अधिक नहीं होगी जिसका नतीजा अंततः राजनीतिक विवाद और किसान आंदोलन के बिखराव के रूप में होगा। किसान आंदोलन ने राजनीतिक दलों के साथ मंच साझा न कर के अपने हाथ जलाने से तो बचा लिए थे लेकिन भाजपा सरकार पर अपनी मांगों के लिए दबाव बनाने के प्रयास में भाजपा विरोध की उनकी रणनीति, स्थायी समिति की संस्तुति की रोशनी में, गलत दिशा में उठाया गया कदम लगता है।

किसान आंदोलन में देश की राजनीति को नई दिशा देने की अपार संभावना और क्षमता है। जिस प्रकार से इस आंदोलन ने सीमित स्तर पर ही सही साम्प्रदायिक और जातीय विभाजन की खाई को पाटा है उसमें यह संकेत भी छुपा हुआ है कि अगर किसान आंदोलन से किसी राजनीति का उभार होता है तो उसकी दिशा क्या होगी। आंदोलन की इस उपलब्धि से समाज के कई वर्गों का उसके प्रति आकर्षण बढ़ा है। किसान नेताओं ने अब तक अपने मंचों से राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से दूर रखा। एक एतबार से आंदोलन पर मज़बूत पकड़ होने तक यह सही भी था क्योंकि राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ मंच साझा करने से विवाद की संभावना अधिक थी। इस तरह दुष्प्रभाव से आंदोलन को बचाना प्राथमिकता होनी चाहिए थी, लेकिन किसान नेताओं को यह महसूस करना होगा कि अब परिस्थितियां काफी हद तक उनके अनुकूल हैं और यह भी कि राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना समस्या का व्यवहारिक और स्थायी समाधान मुश्किल है।

‘भाजपा हराओ’ नारे के साथ उसके राजनीतिक हस्तक्षेप के सम्भावित परिणाम और 13 दलों वाली संसद की खाद्य, उपभोक्ता एवं सार्वजनिक वितरण मामलों की स्थायी समिति की आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 को लागू करने की अनुशंसा ने उसके जोखिम को भी खोल कर रख दिया है। इन दलों के पूंजी प्रेम और पूंजीपतियों की भारतीय सत्ता में घुसपैठ ऐसे संकट को बार बार खड़े करते रहेंगे।

किसान आंदोलन को केवल तीन कृषि कानूनों को वापस लेने तक अपने आंदोलन को सीमित न रखते हुए देशहित में अन्य ज्वलंत समस्याओं को समाहित कर चुनावी राजनीति में कदम रखने की ज़रूरत है। किसान नेता अपने साथ मज़दूरों और वंचित समाज को जोड़ते हुए पूरी दृढ़ता के साथ अपनी मांगों से सहमत विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे समूहों और दलों के साथ गठजोड़ या समझौता कर सकते हैं जिनके हाथों में पूंजीपतियों की झूठन नहीं लगी है।

इस बात का खास ध्यान रखना होगा कि वैचारिक दुर्बलता से ग्रस्त नेता या दल पर दांव नहीं लगाया जा सकता, न ही उन नेताओं पर भरोसा करने की गलती ही की जा सकती जो सरकारी मशीनरी के भय से ग्रस्त हों और अपनी गर्दन बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हों। इस बात को भली भांति समझना होगा कि वैचारिक आधार पर सबसे करीब पाए जाने वाले दलों के साथ ही ऐसा कोई गठजोड़ या समझौता व्यवहारिक होगा। इसकी शुरूआत किसान आंदोलन के सबसे अधिक प्रभाव वाले क्षेत्र में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से की जा सकती है।


लेखक आजमगढ़ स्थित सामाजिक कार्यकर्ता और अनुवादक हैं


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