करोगे याद तो हर बात याद आएगी… यादों में सागर सरहदी


1947 के विभाजन ने बड़ी संख्या में लोगों को उनकी जड़ों से उखाड़कर कहीं और रोप दिया था. ऐसा ही एक पौधा पाकिस्तान के एबटाबाद से उखड़कर दिल्ली के किंग्सवे कैम्प में आया था. नाम था सागर सरहदी, जो बाद में हिंदी सिनेमा लेखन का एक बड़ा दरख़्त बना.

1933 में एबटाबाद के नज़दीक बफ़ा गाँव में जन्मे सागर सरहदी किशोरवय तक गंगा सागर तलवार के नाम से जाने जाते थे. बाद में उन्होंने अपने मूल नाम से गंगा और तलवार हटाकर सागर रहने दिया और जे.एल.सरहदी जिनकी फिल्मों के वे मुरीद थे, उनसे प्रभावित हो पीछे सरहदी जोड़ लिया. पिता अफीम, शराब, चरस आदि के ठेकेदार थे और गाँव में बड़े आदमी के तौर पर उनका रूतबा था. कभी व्यापार के सिलसिले में उनके पिता जब शहर से बाहर जाते, सागर सरहदी दो-तीन दिनों के लिए दुकान संभाल लेते. बड़े भाई की एबटाबाद में नौकरी थी. सागर पहाड़, दरिया से घिरे अपने खूबसुरत से गाँव बफ़ा में खेलते-पढ़ते बड़े हो रहे थे. कुल जमा परिवार ख़ुशहाली को जी रहा था कि अचानक विभाजन और उसके पश्चात के दंगे शुरू हो गये.

विस्थापित जीवन

रातोंरात अपनी ज़मीन, अपना वतन छोड़कर जाना किसी को कुबूल नहीं होता, लेकिन विभाजन के बाद की हिंसा लगातार विकराल रूप लेती जा रही थी. भय और नफ़रत की ऐसी लहर चल पड़ी थी कि पीढ़ियों से साथ रह रहे समुदाय के लोग एक दूसरे के लिए संदिग्ध हो गए थे. अंततः कई के समझाने पर कि मिट्टी का मोह उनकी जान की क़ीमत से बड़ा नहीं है, वे सपरिवार भागकर कश्मीर आये और फिर वहां से दिल्ली. तब पाकिस्तान छोड़कर आये रिफ्यूजियों के लिए दिल्ली के कई इलाकों में बड़ी संख्या में टेंट लगाए गए थे. किंग्सवे कैम्प में लगे टेंटों की इसी भीड़ में इनके परिवार ने भी पनाह ली. बाद में यह परिवार मोरी गेट के एक छोटेसे घर में आ गया.

रिफ्यूजियों के लिए यह भीषण संघर्षों से भरा दौर था. न समाज, न छत, न रोजगार. विस्थापन की इस पीड़ा से सागर सरहदी कभी मुक्त नहीं हो पाए. वह कहते:

इसने मेरे भीतर एक स्थायी किस्म का गुस्सा भर दिया. कोई सत्ता किसी को उसकी अपनी मिट्टी, आबोहवा, समाज से कैसे उखाड़ सकती है?

वह बातचीत में इस बात से परेशान हो उठते थे. एक असीम क्षोभ, दुःख और उम्मीदों से से भरकर वह कहते:

मुझे वापस बफ़ा की उन्हीं गलियों में जाना है. उसी दरिया में तैरना है. उन्हीं पहाड़ों पर घूमना है. मेरी दुनिया वही थी. मैं उसे फिर से एक बार देखना चाहता हूँ.

दिल्ली में प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच सागर सरहदी ने मैट्रिक की परीक्षा पास की. उनके बड़े भाई रोजगार की तलाश में बंबई चले गए थे. उनके पीछे सागर सरहदी भी बंबई आ गये और ख़ालसा कॉलेज और बाद में संत जेवियर्स में पढ़ने लगे. उनका मानना था, दुनिया भर में फैले ज्ञान को अगर हासिल करना है तो अंग्रेजी सीखनी पड़ेगी और उन्होंने सचेतन अंग्रेजी से स्नातक की पढ़ाई की, हालांकि बाद में प्राइवेट संस्थानों में पार्ट टाइम पढ़ाकर कुछ ख़र्च निकालने की गरज से वह ख़ुद की पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाए और अंग्रेजी से स्नातकोतर की परीक्षा में अनुतीर्ण हो गए. यहीं से उन्होंने औपचारिक कक्षाओं की पढ़ाई को अलविदा कह दिया और विज्ञापनों की एक एजेंसी बोमस में बतौर अनुवादक काम करने लग गए.

सुबह नौ से छः बजे की ड्यूटी में उन्हें जल्द ही आभास हो गया कि वह नौकरी के लिए नहीं बने हैं. जब वह थक-हारकर ऑफिस से लौटते, कुछ भी लिखने-पढ़ने की स्थिति में नहीं होते. एक दिन उन्होंने ऊबकर वह नौकरी छोड़ दी, पर इसके साथ ही रोज़ी-रोटी का संकट आन पड़ा. रोजगार तो चाहिए था लेकिन वह कुछ ऐसा काम चाहते थे जिससे उन्हें आर्थिक सुदृढ़ता मिले, नाम हासिल हो, इज्ज़त मिले और वह काम उनकी आत्मा के करीब भी हो.

इसी बीच उनके पिता ने उनकी शादी तय कर दी. वह हत्थे से उखड़ गए. उन्होंने कहा:

भाई, भाभी और बच्चों के साथ हम एक कमरे में रहते हैं. शौचालय के लिए हमें बाहर जाना पड़ता है. इन अपमानजनक हालात में एक लड़की को लाकर उसकी ज़िंदगी ख़राब करने का हक़ हमें नहीं है. और पिता मान गए. फिर उन्होंने कभी शादी के लिए नहीं कहा. मुझे भी विवाह जैसी संस्था में कोई दिलचस्पी नहीं थी और मैंने अविवाहित रहना चुना.

फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत

फिल्में देखना सागर सरहदी को ख़ासा पसंद था. यह चस्का उन्हें मैट्रिक के दौरान ही लग गया था. राजकपूर, गुरुदत्त और सबसे बढ़कर जी.एल.सरहदी के वह बड़े प्रशंसक थे. उन्हें यह बात समझ में आ गयी थी कि सिनेमा ही वह ठिकाना है जहां लिखने से पैसे भी मिलेंगे और यह उनके मन का भी काम होगा. और यहीं से वह फिल्मों की ओर रुख़ कर गये. 

सागर सरहदी का पहला प्रेम थियेटर रहा. वह नाटक लिखते और उसे निर्देशित करते, हालांकि वह कहते हैं कि शुरूआती दौर में उन्होंने जितने नाटक किये, सब फ्लॉप रहे. कई नाटकों में उन्हें दर्शकों की हूटिंग भी झेलनी पड़ी, लेकिन इन्हीं नाटकों ने उन्हें फिल्म के मुकाम तक पहुंचा दिया. भारत-पाकिस्तान को लेकर उनका एक नाटक था, जिसे देखने मशहूर निर्देशक यश चोपड़ा भी पहुंचे थे. उन्हें यह निमंत्रण उनके चीफ़ असिस्टेंट डायरेक्टर रमेश तलवार ने दिया था जो सागर सरहदी के भतीजे थे. यश चोपड़ा को सागर सरहदी का यह नाटक काफी पसंद आया. तब वह ‘कभी-कभी’ फिल्म की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने सागर सरहदी को इस फिल्म के संवाद लिखने का ऑफर दिया. इसी के साथ सागर सरहदी के फ़िल्मी सफ़र ने रफ़्तार पकड़ ली.

इसके बाद सागर सरहदी ने कई सफल फिल्में लिखीं, जिनमें ‘सिलसिला’, ‘चाँदनी’, ‘दीवाना’, ‘रंग’, ‘कहो न प्यार है’ आदि काफी लोकप्रिय हुईं. दिलचस्प बात यह कि इनकी लिखी कमोबेश सारी फ़िल्में रोमांटिक रहीं. सागर सरहदी बहुत बेबाकी से यह स्वीकार करते थे कि वे इतनी सारी रोमांटिक फ़िल्में इसलिए लिख पाए क्योंकि उन्होंने बीसियों प्रेम किये. वह कहते थे: ‘’मैंने शादी नहीं की. संभव है शादी हो जाती तो मैं भी दूसरों की तरह परिवार से सम्बन्धित गृहस्थ जीवन की कहानियां लिख रहा होता.”

यश चोपड़ा उनके गाढ़े शुभचिंतकों में रहे. ‘चांदनी’ फिल्म का ज़िक्र करते हुए सागर सरहदी कहते थे:

हमारी जोड़ी बेहद सफल थी, लेकिन किसी एक बात पर हमारे बीच एक छोटी-सी रिक्तता आ गयी. वे उस समय ‘चांदनी’ बना रहे थे. उन्होंने मुझे छोड़ किसी और को बतौर लेखक रखा था, लेकिन शूटिंग बीच में रूक गयी थी. वजह, नये लेखक का लिखा यश चोपड़ा को नहीं भा रहा था. आख़िरकार उन्होंने मुझे सन्देश भिजवाया, आ जाओ और इसे पूरा करो. मैंने ‘चांदनी’ लिखी और वह एक सुपरहिट फिल्म साबित हुई.

‘बाज़ार’ की तैयारी

सागर सरहदी का झुकाव जवानी के दिनों से ही मार्क्सवाद की ओर था. हायर सेकेंडरी की पढ़ाई के दौरान वह प्रोग्रेसिव राइटर्स एशोसिएशन से जुड़ गए थे, जहां इन्हें कैफ़ी आज़मी, सरदार ज़ाफरी, इस्मत चुगताई जैसे बड़े लेखकों, चिंतकों को सुनने, समझने का मौक़ा मिला. अफ़साने लिखने-पढ़ने की उनकी शुरुआत यहीं से हुई थी. इन्हीं गोष्ठियों, बैठकों, बहसों में उनका रुझान मार्क्सवाद और मनोविज्ञान की ओर बढ़ा था. वह बातचीत के क्रम में कैफ़ी आज़मी के योगदान को अलग से उल्लेखित करते हैं जिन्होंने उन्हें पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया.

सागर सरहदी सिनेमा से जुड़े उन विरले लोगों में से हैं, जो घंटों किताबें पढ़ना पसंद करते थे. मुंबई के सराय कोलीबाड़ा इलाके में स्थित उनके घर में दीवारों के समानांतर आलमारियों में किताबें भरी पड़ी हैं. उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे कोई पुरानी लाइब्रेरी के बीच रह रहा हो. उनके पास उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में दुनिया भर की कविताओं, गज़लों, अफ़सानों, मनोविज्ञान, मार्क्सवाद आदि से सम्बन्धित किताबें उपलब्ध हैं. किताबें उनकी दिनचर्या का जरूरी हिस्सा थीं. वह कम से कम दिन के पांच घंटे किताबों के साथ ज़रूर बिताते थे.

रोमांटिक फिल्मों की तमाम सफलताओं के बावजूद सागर सरहदी के भीतर मार्क्सवाद से उपजी समझ और संवेदना के अनुरूप फिल्में नहीं बना पाने की बेचैनी कायम थी. अपने एक साक्षात्कार में इस पर विनोद करते हुए उन्‍होंने “फिल्म ‘कभी-कभी’ में नायक बने अमिताभ और नायिका राखी के एक संवाद का जिक्र करते थे:

‘तुमने अपनी आँखें देखी हैं?’
नायिका पूछती है- ‘क्या ख़ास बात है मेरी आँखों में?’
नायक कहता है- ‘जहाँ देखती हैं, एक रिश्ता कायम कर लेती हैं.’

ये खुबसूरत संवाद सागर सरहदी की कलम से निकले थे. वह बताते थे:

एक फिल्म में मुझे नायिका बनी सलमा आगा की आँखों की तारीफ़ करनी थी जो हल्की नीली थीं. मैंने लिखा था, ‘तुम्हारी आँखों में आसमान झांकता है.’ लेकिन मुझे लगा इसके बाद कोई तीसरी आँखें आएँगी और मुझे फिर उनकी तारीफ़ में कुछ लिखना होगा. यह एक किस्म का स्टीरियोटाइप था. एक लड़का जो कच्ची उम्र में अपनी ज़मीन से दर-बदर होता है, कैम्पों की बदरंग ज़िंदगी जीता है, जीवन के दूसरे मोर्चों पर संघर्ष करता है और जब लिखने की बारी आती है वह सौन्दर्य पर लिख रहा होता है. यह बात मुझे सालती थी. मुझे अपने भीतर चल रही टीस और छटपटाहट की कहानी कहनी थी. और यहीं से फिल्म ‘बाज़ार’ की शुरुआत हुई.

उस समय सागर सरहदी के पास एक स्वतंत्र फिल्म बनाने के लिए पैसे नहीं थे. लोग इन्हें सलाह देते थे, ऐसी कहानी वाली फिल्म चलेगी नहीं, लेकिन यश चोपड़ा और शशि कपूर के सहयोग से सागर सरहदी इसे बनाने में कामयाब रहे. यश चोपड़ा ‘बाज़ार’ को प्रोड्यूस करने के लिए तैयार थे पर सागर सरहदी इसे अपने तौर-तरीकों से बनाना चाहते थे. वह इसमें किसी किस्म का दखल नहीं चाहते थे. यश चोपड़ा ने उनके इस मत का सम्मान किया और बिना किसी शर्त सहयोग देने को राज़ी हो गए. शशि कपूर तब तक जो उनके मित्र बन चुके थे, उन्होंने भी बेशर्त साज़ो-सामान मुहैया करवाया. और इन्हीं वज़हों से सागर सरहदी बिना मुश्किलात के यह फिल्म बना पाए. प्रारम्भ में फिल्म ने कुछ खास नहीं किया, लेकिन बाद में इसे दर्शकों और आलोचकों दोनों का प्यार हासिल हुआ और यह एक क्लासिक का दर्ज़ा पायी.

‘बाज़ार’ के केंद्र में महिलाएं थीं. ऐसी महिलाएं जो आर्थिक तौर पर कमज़ोर थीं और तिस पर मुसलमान थीं. यह उन पर तिहरे मार की तरह था. इस पुरुषवादी समाज की नजर में वह केवल एक देह थीं, जिसे एक दिन विवाह जैसे सांस्थानिक तरीके से अथवा सीधे तौर पर बिक जाना था. ‘बाज़ार’ चारित्रिक  मजबूती लिए अपने महिला किरदारों के ज़रिये समाज के इन्हीं पहलुओं पर बात करती है. ग़रीबी, लाचारी, इज्ज़त के नाम पर दोहरापन, पुरुषवादी और वर्गवादी लंपटता को फिल्म ने बहुत बेबाकी से समेटा है. स्पष्टतया मेलोड्रामा की शक्ल में होने के बावजूद ‘बाज़ार’ के भीतर का यथार्थवाद इसे एक बड़ी फिल्म बनाता है. स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, फारुख शेख, सुप्रिया पाठक जैसे उस समय के बेहतरीन कलाकरों ने अपने यादगार अभिनय से इस फिल्म को पूर्णता दी थी. सागर सरहदी ने अपने कैरियर में ढ़ेरों फिल्में की लेकिन अकेले ‘बाज़ार’ ने उन्हें अमर कर दिया.

‘चौसर’ और भविष्य की योजनाएं

सागर सरहदी ने नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के साथ एक फिल्म बनायी थी, जिसका नाम है ‘चौसर’. यह तब की बात है, जब नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अपने संघर्ष के दौर से गुजर रहे थे और छोटी-मोटी भूमिकाएं कर अपनी जगह बनाने में लगे थे. ‘चौसर’ बनकर तैयार है, पर विडम्बना की इसे ख़रीददार नहीं मिल रहा. वह कहते थे:

अजीब समय है कि एक अच्छी फिल्म को लेने वाला कोई नहीं है. लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी है. एक बार ‘चौसर’ रिलीज़ हो जाये तो मैं ‘बाज़ार 2’ बनाने की शुरुआत करूँगा. मैंने ‘बाज़ार’ के बनने पर भी एक किताब लिखी है. यह भी जल्द ही पाठकों के सामने होगी.

वह बीच-बीच में उम्र के असर से होने वाली दिक्कतों से परेशान रहते थे. कई बार स्मृतियाँ साथ नहीं देती. अकेलापन सालता, लेकिन फिल्मों, किताबों और जीवन को लेकर उनका ज़ज़्बा, जिजीविषा अद्भुत थी. वह नयी पीढ़ी के लिए कहते, “मोबाइल ने इस पीढ़ी का बहुत नुकसान किया. इसने कला, साहित्य, विचार, अध्ययन की संस्कृति आदि को ‘टेक ओवर’ कर लिया.” वह अपना बेसिक मोबाइल दिखाते हुए कहते:

मैं भी मोबाइल रखता हूँ लेकिन बातचीत भर के लिए. इसे ख़ुद पर हावी नहीं होने देता. होने भी नहीं देना चाहिए.

सागर सरहदी फिल्म इंडस्ट्री के उन चुनिंदा लोगों में थे, जिन्हें ज़माने की शोहरत भी नहीं बदल पायी. मार्क्सवाद के पाठ ने उन्हें इतना मजबूत बनाया था कि उनका दिल हमेशा शोषितों-पीड़ितों के लिए धड़कता रहा. सादे कुर्ते-पाजामे में उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह शख्स अपने समय का बहुचर्चित फिल्म लेखक सागर सरहदी है. कोई कभी भी उनसे सीखने-समझने उनके घर आ सकता था. इसी वजह से वह अपने घर पर युवा साथियों से घिरे रहते थे. उनके साथ थियेटर, साहित्य, सिनेमा पर घंटों चर्चाएँ जमती थीं.

‘बाज़ार’ के गाने बज रहे हैं और लग नहीं रहा कि एक और उस्ताद हमारे बीच से चला गया.


लेखक कहानीकार हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मीडिया के शोधार्थी रहे हैं


About मिथिलेश प्रियदर्शी

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