संदूकची में वंशवृक्ष: प्रकाश चंद्रायण की कविता और गोपाल नायडू का कविता-चित्र


चकित हो गया वृक्ष,
उसके कटे अंग से बनी संदूकची में रखा है वंशवृक्ष.

पुराने घर में थी पुरानी संदूकची,
धराऊ जिंसों से अटी-पटी.
कागज़-पत्तर,कलम-दवात,
बीते बखत की जड़ाऊ बात.
नक्शे-खसरे,जेबघड़ी-खुर्दबीन,
और वंशवृक्ष पीढ़ियों प्राचीन. एक सूनी दोपहर दादा ने निकाला,
संदूकची से तहाया वंशवृक्ष.
बड़े मुलायमियत से चौकी पर फैलाया,
मानो लीप रहे हों चौका.
मोटे शीशे के पीछे टटोलती आंखें,
सरक रही थी उंगलियां.
वंशवृक्ष की जड़ों से,
नई टहनियों तक कि यह रहे तुम
और वह रहे तुम्हारे पूर्वजों के पूर्वज.
बीच में फैला है बीस पीढ़ियों का विस्तार,
शाखाएं-प्रशाखाएं, कल्ले-टूसे
और निकलते आते अंखुए.
कल की फुनगियां.

एकदम भौंचक कर गया वंशवृक्ष,
नि:शब्द ढूंढ़ता रहा वे नाम.
जिन्होंने पैदा किए वंशधर,
पिरोयी पुरखों की लड़ी.
जिनकी स्मृतियों में संजोए थे नाम,
जिनकी कोख में पल रहे थे वे अनाम.
जिनके जनमते ही माताएं देती हैं दुलारु नाम –
मुन्ना-चुन्ना, मिट्ठू-बिट्टू.
पिता देते रहे दबंग पुकारु नाम –
सिकंदर, जोरावर, फन्नेफत्ते, बलविंदर.

आश्चर्य! कहीं नहीं थीं दादियों की दादियां,
क्यों नहीं थीं माताओं की माताएं.
कहां गईं बहुओं की बहुएं,
लुप्त हैं बहनें और बहनें.
गुम हैं बेटियों की बेटियां,
कहीं नहीं थीं कोई!

और… और कहीं नहीं थीं वे स्त्रियां,
जिन्होंने नामों को वरा था.
जिन्होंने नामों को जना था,
जिनकी महान स्मृतियों में दर्ज रहते हैं नाम.
सूखे पत्ते सी नदारद हैं वे,
जिन्होंने फैलाया वंशवृक्ष.
उन्हें गायब किया किसने,
वंशवृक्ष कब्जाया जिसने.

सबने सुने पुरखों के नाम,
वंशजों के नाम.
मंगल गीतों में और कुभाखा में भी,
कभी वे सुखी मन बधावा गाती थीं.
कभी दुखी मन भाखती थीं,
सुख-दुख में भी नहीं भूलती थीं नाम.
उनके अमिट स्मृतिपिटारे में संचित थे नाम,
पीढ़ियों के नाम.

वे गाती थीं पुरखों के गीत
और उत्सव का दिन बजता था.
झुकी रात खाली खेत में माटी पूजती थीं
और वंशजों का गान फूटता था.
धूलकणों से पगी राहों पर लौटती थीं,
पीढ़ियों को सुरों में लाती हुई.
तृप्त होती थीं
कि उन्होंने पुरखों का किया आवाहन.

….. बाबा के दुअरिया बजन बाजे ढोलका,
…..बाबू के दुअरिया बजन बाजे मंजीरवा.
गाते-गाते दुआर से नई जोड़ी को आंगन लाती थीं,
और अंगने में नवजातों की बलैयां लेती थीं.
वे सुख में अलापती थीं
और दुख में विलापती थीं,
वे गीतों का सदाबहार वृक्ष थीं,
लेकिन वंशवृक्ष में नहीं रहीं.
वंशवृक्ष होकर भी कटी रहीं
जैसे कटे वृक्ष से बनी संदूकची.
वे नहीं जड़ाऊ-धराऊ जिंस,
वे धरती की सहजीवी बीज.

वंशवृक्ष में तो नहीं,
मतदाता सूची में आ गईं.
संदूकची जैसी ही है संसद,
वहां कभी होंगी तो होंगी तिहाई।
जनगणना में दर्ज होंगी अधिया,
घरों में आधी में भी अधूरी।
वेश बदलकर आती रहेगी दूरी,
वंशवृक्ष की रिक्तियां कभी होंगी भरी-पूरी?

कुछ सौ पीढ़ियों का विस्तार नहीं है वंशवृक्ष,
उसका स्रोत है पहली अफ्रीकी मां.
जिसकी कोख में पली पहली संतान,
जिसने पिता को भी दिया नाम.
फिर नर ने क्यों मिटाया मादा की पहचान,
इस जैविक अपराध की कैसी शान?

चकित है वृक्ष,
कोई गाएगा मिटाए-काटे नामों के गीत!


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

View all posts by जनपथ →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *