स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की ज़रूरत और प्रासंगिक मांगें


निजी क्षेत्र के अस्पताल और अन्य स्वास्थ्य सेवाएँ सामान्यतया ग़रीब तबके की पहुँच से इतनी बाहर रहती हैं कि उनके होने न होने से ग़रीबों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये सेवाएँ आमतौर पर समाज के धनी और उच्च मध्यमवर्गीय हिस्से के काम आती हैं जो स्वास्थ्य पर इतना अधिक ख़र्च कर सकते हैं। देश में आम लोग सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाकर ठीक होते रहे हैं। अच्छा हो या बुरा हो, इस भेदभावपूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले मॉडल की तरह देश में स्वीकार कर लिया गया था क्योंकि कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा या तो सरकारी और सस्ती स्वास्थ्य सेवाएँ हासिल कर लेता था और या फिर कुछ भी नहीं हासिल कर पाता था। निजी क्षेत्र के बड़े महँगे अस्पताल उनकी निग़ाह से बाहर रहते थे। 

उदारीकरण की शुरुआत के बाद से सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र को सिकोड़ा जाने लगा और निजी क्षेत्र को मुनाफ़ा कमाने के अधिक अवसर मुहैय्या करवाये जाने लगे। देश में 2014 के चुनावों में विजय हासिल करने के बाद भाजपा सरकार ने कॉंग्रेस सरकार द्वारा शुरू की गईं निजीकरण की नीतियों को बहुत तेज़ रफ़्तार के साथ आगे बढ़ाया। जितने सार्वजनिक उपक्रम पिछले 65-70 वर्षों में खड़े किये गए थे, उन्हें धड़ाधड़ निजी हाथों में सौंपा जाने लगा। कोविड आपदा के आने पर महसूस किया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाएँ कितनी मददगार हुईं लेकिन मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था ने उसे भी आपदा में अवसर की तरह देखा और निजी क्षेत्र के अस्पतालों और दवा कंपनियों को अकल्पनीय फ़ायदा पहुँचाया। 

फिर भी आमतौर पर जो अनुभव कोविड काल का रहा, उसमें देखा गया कि न केवल ग़रीब लोगों के लिए निजी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं थीं बल्कि जो पैसे खर्च करने में सक्षम थे, उन्हें भी निजी स्वास्थ्य सेवाओं से वो सेवाएँ नहीं मिल सकीं जिनके लिए वो बरसों-बरस भारी रकम लुटाते रहे हैं। ज़्यादातर काम वही सरकारी अस्पताल और सरकारी डॉक्टर और स्टाफ आया जिसे निजीकरण के युग में हाशिये पर धकेला जा रहा था, जिनकी ज़मीनें बेचीं जा रहीं थी, जिनके स्टाफ को ठेके पर रखा जा रहा था, जहाँ से दवाइयाँ मुफ़्त देना बंद किया जा रहा था।  

1990 के दशक के बाद से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के संजाल को धीरे-धीरे नाकारा करना शुरू कर दिया गया था। अस्पतालों में से दवाएँ ग़ायब हो गईं थीं, जाँचों के लिए मरीजों को प्राइवेट पैथोलॉजी लेबोरेटरी भेजा जाने लगा था। एक्स-रे, ईसीजी मशीनें या अन्य ज़रूरी उपकरण भी सरकारी अस्पतालों में ठीक-ठाक हालत में नहीं मिलते थे। सरकारी अस्पतालों की फंडिंग में सरकार ने कटौती कर दी थी। कुलमिलाकर, धीरे-धीरे सरकारी अस्पतालों से मरीजों का विश्वास कमज़ोर कर दिया गया और क़रीब-क़रीब 80% मरीज मजबूरी में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की तरफ मुड़ गए। धीरे-धीरे ये बात सबकी जानकारी में होते हुए भी सबके लिए मान्य हो गई कि निजी चिकित्सक न केवल पैसे ज़्यादा लेते हैं, बल्कि अनावश्यक जाँचें करवाते हैं और फिर जाँचों पर कमीशन खाते हैं। इसी तरह दवा की छोटी-मोटी  दुकानों से लेकर विशालकाय दवा कम्पनियाँ भी डॉक्टरों को तरह-तरह से उपकृत करती हैं ताकि उनकी दवाएँ डॉक्टरों के ज़रिये ज़्यादा बेचीं जा सकें। सब कुछ ज़ाहिर होते हुए भी सब ईमानदार बने रहते हैं, समाज में प्रतिष्ठित स्थान हासिल कर लेते हैं और आम मरीज के पास कोई विकल्प मौजूद न होने के कारण वो इन्हें ही अपना माई-बाप मानता रहता है। यही का यही हाल शिक्षा, परिवहन, बिजली, वित्त, बैंकिंग, बीमा आदि सभी क्षेत्रों में हुआ है।  

कोविड-19 के दौर में इन निजी अस्पतालों ने बेतहाशा पैसा बनाया। पहले दौर में लॉकडाउन की घोषणा होते ही निजी अस्पतालों ने अस्पताल खाली करवा लिए। गंभीर मरीजों को भी घर भेज दिया गया और कहा कि अब घर जाइए और भगवान भरोसे रहिए। जिन्हें कोरोना नहीं हुआ था लेकिन किसी की किडनी ख़राब थी या कोई दिल का रोगी था, उन्हें डॉक्टरों ने देखना ही बंद कर दिया। सरकारी एम्बुलेंस की तुलना में निजी क्षेत्र में 10 गुना ज़्यादा एम्बुलेंस हैं लेकिन उन्होंने भी काम करना बंद कर दिया। जो मज़दूर या ग़रीब विद्यार्थी स्मार्ट फ़ोन नहीं चलाते थे उनके मोबाइल रिचार्ज नहीं हो सके। वे हॉस्टल में या काम की जगह पर जहाँ थे, वहीं फँसकर रह गए। उनका अपने घ-परिवार से भी संपर्क छूट गया। कई जगह महिलाऍं  भी थीं जिन्हें माहवारी से लेकर अनेक तक़लीफ़ें आईं लेकिन इलाज और दवा उनकी पहुँच से दूर रहे। कहने के लिए कुछ हेल्पलाइन नंबर भी थे लेकिन कोरोना का आतंक ऐसा बना दिया गया था कि सरकारी कर्मचारियों के अलावा कुछ सिरफ़िरे समाजसेवी और दूसरों की चिंता करने वाले लोग ही थे जो उस दौरान भी हर रिस्क उठाकर लोगों की मदद करते रहे। 

कोविड की दूसरी लहर में सरकार ने निजी अस्पतालों को स्वास्थ्य सेवाएँ देने के लिए बाध्य किया। बाध्यता के चलते निजी अस्पतालों ने अपने दरवाज़े तो खोल दिए लेकिन सब जानते हैं कि कोविड के मरीज का निजी अस्पतालों में इलाज का पैकेज लाखों रुपये रोज़ का था। पंजाब, दिल्ली और केरल ही ऐसे राज्य थे जहाँ सरकार ने बेतहाशा महँगे कर दिए गए इलाज के मामले में कुछ हस्तक्षेप किया और मरीजों को राहत दिलवायी। दवाओं की जमाख़ोरी खुलेआम हुई। राजनेताओं ने ज़रूरत न होने पर भी अपने क्षेत्र के मतदाताओं को उपकृत करने के लिए जिस दवा का नाम चला, वो थोक में ख़रीद कर रख ली।  नतीजा ये हुआ कि जो कोविड के मरीज न होकर साधारण नजले-जुकाम के मरीज भी थे, उन्हें भी दवाएँ हासिल न हो सकीं। रेमडेसिवीर के नाम पर सादा पानी के इंजेक्शन भी ज़रूरतमंदों को एक-एक लाख रुपये में  बेच दिए गए। और इसमें केवल ऐसे ही कुछ दुष्ट व्यक्ति विशेष शामिल नहीं थे बल्कि दवा की दुकानों, एजेंसियों, डॉक्टरों और नेताओं का पूरा तानाबाना शामिल था। इन सभी कारणों से सरकारी अस्पतालों पर काफ़ी अतिरिक्त भार आ गया जबकि उन्हें 1991 के बाद से धीरे-धीरे कमज़ोर करने की प्रक्रिया पहले ही जारी थी। जिन मरीजों को टेस्ट में कोरोना पॉजिटिव आया लेकिन कोई और बीमारी का लक्षण उन्हें नहीं था, उन्हें भी सरकारी अस्पतालों में भर्ती कर दिया गया। नतीजा ये हुआ कि जो छोटी-मोटी बीमारी के भी मरीज थे, जिनका सामान्य स्थितियों में घर पर ही इलाज हो जाता था, लेकिन कोरोना के डर ने उन्हें अस्पतालों की ओर दौड़ने पर मजबूर कर दिया था। बाद में, ऑक्सीजन सिलिंडरों की जो त्राहि-त्राहि मची, निजी अस्पतालों ने पर न केवल मुनाफ़ा कमाया बल्कि कुछ अस्पतालों ने तो ऑक्सीजन आपूर्ति बंद करके मरीजों की जान से भी खिलवाड़ किया। यहाँ तक कि शवदाह की प्रक्रिया को जटिल कर देने की वजह से भी भयंकर अव्यवस्था  हुई। इसी तरह वैक्सीन बनाने के मामले में भी निजी कंपनियों के हित आगे रखे गए। 

कोरोना ने निजी स्वास्थ्य व्यवस्था के असली कुरूप चेहरे को देश के आम लोगों के सामने उघाड़कर रख दिया था लेकिन सरकार और प्रशासन ने आम लोगों के असंतोष और ग़ुस्से को साम्प्रदायिकता और चीन के प्रति घृणा को सोशल मीडिया के ज़रिये विभाजित और विमुख कर दिया। यह बात लोगों के सामने बार-बार रखने की ज़रूरत है कि सबसे भीषण स्वास्थ्य संकट के दौरान सबसे ज़्यादा काम में आने वाली व्यवस्था वही सार्वजनिक स्वास्थ्य की सरकारी व्यवस्था थी जिसे आज़ादी के बाद स्थापित किया गया था, 90 के दशक के बाद जिसे खोखला किया गया और 2014 के बाद से जिसे पूरी तरह समाप्त करने की कोशिशें पूरी रफ़्तार से जारी थीं।  

इन्हीं सब वजहों से स्वास्थ्य का मुद्दा पहली बार ज़ोरदार राजनीतिक मुद्दा भी बना। हालाँकि मीडिया और राजनीति के गठजोड़ ने इसे ज़्यादा देर तक मुद्दा बना नहीं रहने दिया। फिर भी कहीं न कहीं जो सरकारी उपक्रमों को कामचोर और निजी उपक्रमों को अधिक योग्य और सक्षम बताते नहीं थकते थे, उन्हें भी लगा कि अगर निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र को साथ-साथ समानांतर चलाया गया तो निजी क्षेत्र येन-केन प्रकारेण मुनाफ़े को बढ़ाने की प्रवृत्ति के कारण सार्वजनिक क्षेत्र को हाशिये पर धकेलता जाता है। निजी क्षेत्र की व्यवस्था में जो क्षेत्र मुनाफ़ा केन्द्रित नहीं होने चाहिए जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, ईंधन, सेना-सुरक्षा आदि उनको भी मुनाफ़ा केंद्रित कर दिया जाता है और अंततः जनहित दृश्य से ओझल हो जाता है और बचता है सिर्फ़ मुनाफ़ा। अगर स्वास्थ्य का क्षेत्र ही मुनाफ़े पर आधारित हो जाएगा तो हमें एक बीमार और अस्वस्थ आबादी वाला देश बनने से कौन रोक पाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाए और वे सभी के लिए समान और उत्कृष्ट स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराये।  न कि केवल उनके लिए जो बहुत पैसा ख़र्च कर सकने में सक्षम हैं। 

स्वास्थ्य और चिकित्सा की शिक्षा देने वाले कॉलेज और दवा निर्माता कंपनियां स्वास्थ्य व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। जो अभिभावक अपने बच्चे को डॉक्टर बनाने के लिए लाखों रुपये ख़र्च करेगा, वह ज़रूर चाहेगा की उसका बच्चा बड़ा डॉक्टर बने और बड़े डॉक्टर होने से उसका आशय होगा कि उसकी ज़्यादा कमाई हो। चिकित्सा शिक्षा को जितना महँगा कर दिया गया है, उसके बाद नए बनने वाले डॉक्टरों से डॉक्टरी की शपथ निभाने की उम्मीद करना बेमानी है। चिकित्सा शिक्षा का भी पूर्ण राष्ट्रीयकरण होना चाहिए और निजी कॉलेज जो लाखों से करोड़ों रुपये डोनेशन लेते हैं, उन्हें बंद करना चाहिए। इसी तरह दवाइयां किफायती दाम पर मिलें, यह तो ज़रूरी है ही, मगर दवाई की खोज, अनुसंधान, परीक्षण, भी लोगों की सुरक्षा और उनकी ज़रूरत के मुताबिक होना चाहिए। इसके कई उदाहरण हैं जैसे सरकार ने बीसीजी वैक्सीन एक बार सार्वभौमिक कार्यक्रम में शामिल कर लिया तो उसके बाद से उसके असर का कोई मूल्यांकन नहीं हो रहा है, कि उसके दूरगामी असर क्या हैं, उसे और अच्छा बनाने की ज़रूरत है कि नहीं। टीके के बाद भी लोगों को टीबी तो हो रहा है। आज भी हमारे देश में रोज के करीब 1400 लोग टीबी से मर रहे हैं। पोलियो के लिए पिलाये जा रहे वैक्सीन से भी बच्चों को नुकसान हो रहा है। यह पता चलने के बाद भी वैक्सीन को सुधारने और बदलने की शुरुआत बहुत देर से की जा रही है। इंजेक्शन वाला पोलियो वैक्सीन ज़्यादा सुरक्षित है, यह पहले से पता होने के बावजूद पैसे बचाने के लिए मुँह से दिया जाने वाला (ओरल) पोलियो वैक्सीन शुरू किया गया।

इसलिए स्वास्थ्य सेवा के राष्ट्रीयकरण की माँग में दवाई की कंपनियों का भी राष्ट्रीयकरण करने की माँग ज़रूरी तौर पर शामिल है। 

हमें एक मजबूत राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की आवश्यकता है, जिसमें देश के सभी संसाधनों को लोगों की उत्तम सेवा के लिए उपयोग में लाया जा सके। बेशक सरकार को अधिक खर्च करना होगा और इसके लिए सरकार को अमीर वर्ग पर ज्यादा कर/टैक्स लगाना होगा। सालों से उन्हें सभी तरह के कर लाभ, रियायतें, कर मुक्त अवधि, कर कटौती, बेलआउट और अन्य कई लाभ दिए गए हैं। सुपर रिच टैक्स एक ऐसा उपाय है, वेल्थ टैक्स और इन्हेरिटेंस टैक्स भी लगा सकते हैं। वैसे भी टैक्स का स्लैब जो जितना ज़्यादा अमीर है, उसके लिए उतना ही कम है। 

सरकार जो भी योजनाएं लाती है, जैसे कि आयुष, या बीमा कंपनियां स्वास्थ्य के लिए जो बीमा हमें देते हैं, उसमें गरीबों का पैसा अंत में अमीरों की दवाई में और अमीर डॉक्टरों और अमीर हॉस्पिटलों की जेब में जाते हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हमारी सरकार अपने नागरिकों को यह  महसूस करवाये कि इस देश की नागरिकता ही मेरा बीमा है। कोई बीमा या उसका प्रीमियम नहीं। सबको अच्छी और मुफ्त में स्वास्थ्य सेवा मिले ऐसी व्यवस्था खड़ी की जा सकती है।

लोगों का स्वास्थ्य, ज़िंदगी, कुछ लोगों की अति शानदार जीवन शैली से अधिकमहत्त्वपूर्ण है। ऐसा अनुभव है कि विश्व में जहाँ भी स्वास्थ्य सेवाओं का अच्छी तरह से राष्ट्रीयकरण किया गया है, वहाँ अनावश्यक जाँच, दवाइयाँ और शल्य क्रियाओं से बचा जाता है और आवश्यकता पड़ने पर वह सदैव उपलब्ध रहती है।

स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण का आंदोलन कर रहे लोगों की सरकार से माँगें:

  • संपत्ति के मूल्यांकन पर उचित मुआवज़े के साथ निजी क्षेत्रों के अस्पतालों का तत्काल अधिग्रहण। छोटे अस्पतालों को सरकारी मोहल्ला अस्पतालों में बदला जा सकता है।
  • गांवों के उप स्वास्थ्य केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर ज़िला स्तर के अस्पतालों और मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों की पहले से जो मौजूद सरकारी व्यवस्था है, उस श्रृंखला को मज़बूत और विस्तृत करना।
  • हर स्तर पर पर्याप्त चिकित्सकों, नर्सों और अन्य पैरामेडिकल कर्मचारियों को उपलब्ध कराना चाहिए। सभी चिकित्सकों का पोस्ट ग्रेजुएशन से पहले और बाद में ग्रामीण स्तर पर सेवा अनिवार्य हो और ज़रूरत के हिसाब से उनका आवर्तन/रोटेशन होना लागू करो।
  • सभी चिकित्सकों और अन्य मेडिकल कर्मचारियों को एक अच्छा गरिमामय वेतन दिया जाए और आई ए एस अफसरों की तरह उनके अनुभव और अतिरिक्त शिक्षा के आधार पर उनकी पदोन्नति की जाए।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था का कामकाज लोगों के सीधे लोकतांत्रिक नियंत्रण से चलना सुनिश्चित हो। 
  • अस्पताल प्रशासन के लिए डॉक्टरों के प्रतिनिधि, अन्य पैरामेडिकल स्टाफ के प्रतिनिधि और इसी काम के लिए चुने गए जनप्रतिनिधियों की एक समिति बनायी जाए। यह समिति दिन-प्रतिदिन की समस्याओं को हल करने के लिए काम करें।
  • शिकायत और सुझाव बॉक्स के अलावा लोगों की शिकायतें सुनने के लिए अस्पताल हर महीने एक सार्वजनिक मीटिंग का आयोजन करें। इन मीटिंग में ही सुझाव बॉक्स खोले जाने चाहिए।
  • हर बार अस्पताल आने पर प्रत्येक मरीज को एक सर्वेक्षण प्रपत्र/फॉर्म, जो कर सके उनके लिए डिजिटल, देना चाहिए, जिसमें वह अपने अनुभव बता सकें, जैसे कई बैंक एवं अन्य कंपनियाँ अपने काम को बेहतर बनाने के लिए करती हैं।
  • एक महत्त्वपूर्ण सुझाव यह भी है कि चिकित्सा के विभिन्न तरीक़े जैसे एलोपैथी, होमियोपैथी, आयुर्वेद और अन्य पद्धतियों को भी सभी छात्रों को स्नातक स्तर पर पढ़ाया जाए और केवल इनकी विशेषज्ञता के लिए अलग-अलग प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए। इस तरह सबसे अच्छा तरीक़ा मरीजों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। पारस्परिक अलग अलग होने के बजाय यह तरीके एक-दूसरे के पूरक होने चाहिए। 
  • पर्यावरण विज्ञान और उससे जुड़े रोग पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा बनना चाहिए।
  • दवाई की कंपनियों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद उसके सभी निर्णय पारदर्शी तरीके से लिए जाएँ। उसके प्रशासन-प्रबंधन के लिए सार्वजनिक रूप से हो रही चर्चाओं के माध्यम से जनता के भरोसे के प्रतिनिधियों को रखा जाए।

लोगों का सरकार पर यह सब करने के लिए दबाव डालना और अपनी लोकतान्त्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार पर लोगों की ज़िंदगी को गंभीरता से लेने की ज़िम्मेदारी याद दिलाना ही सुरक्षित भविष्य का एकमात्र तरीका है।



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