आज विश्व संकट के दौर से गुजर रहा है। इस संकट से उबरने के लिए विभिन्न देशों ने मजबूत कदम उठाया है, अपने लोगों को विश्वास में लेकर ये देश मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं और करोना महामारी से उबरने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में इस महामारी के खिलाफ लड़ने के बहाने सदियों से शोषित आदिवासी, दलित, कमजोर को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है।
पूरी दुनिया ने भारत में मजदूरों के दर्द को देखा जो सदियों से किसी न किसी रूप में चली आ रही है। देश के प्रधानमंत्री ने चार घंटे की मोहलत में एक लाख बीस करोड़ आबादी वाले देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी। बिना समझदारी, बिना तैयारी के यह लॉक डाउन मानव प्रलय और जाति उत्पीड़न में बदल कर रह गया है। अमेरिका में काले जार्ज फ्रायड की मौत पर जो प्रतिरोध हुआ है वैसा प्रतिरोध भारत में कई सौ मजदूरों के मरने पर भी नहीं हुआ, हो भी नहीं सकता। भारत की न्यायपालिका, मीडिया, बुद्धिजीवी वर्ग, कलाकार, संभ्रान्त समाज इस मानव प्रलय से विचलित नहीं हुआ। न्यायपालिका ने एक लम्बी चुप्पी साधे रखी। मीडिया की पूरी कोशिश रही कि मुद्दे को भटकाया जाये। भारत का बुद्धिजीवी छिटपुट मामलों को छोड़कर बड़ी-बड़ी चर्चाओं में लोगों का ध्यान आकर्षित करने में लगा रहा। इस भयानक चुप्पी के रहस्य की पड़ताल जरूरी है।
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दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं होगा जिसका बुद्धिजीवी, अभिजात वर्ग बच्चों, महिलाओं तथा कमजोरों के प्रति इतना असंवेदनशील हो। केरल में एक गर्भवती हथिनी की दर्दनाक मौत पर जिस तरह से भारत का अभिजात वर्ग सामने आया है इसी प्रकार मजदूरों की मौत पर वह सामने क्यों नहीं आया? इसका जवाब हमें सदियों से चली आ रही जाति तथा वर्ण व्यवस्था में मिलेगा।
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू समाज तथा दर्शन के बारे में लिखते हुए कहा है कि ’’ऐसे दर्शन या तत्व ज्ञान को जो समाज को अलग-अलग टुकड़ों में बांटता हो, जो कार्य को रूचि से अलग करता हो, मनुष्य के वास्तविक हितों के अधिकार को नष्ट करता हो और जो संकट के समय समाज को सुरक्षित करने के लिए अपने साधनों को गतिशील बनाने में रुकावटें पैदा करता हो, ऐसा दर्शन सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर सफल है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? इसलिए हिन्दू धर्म का दर्शन न तो सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर और न ही व्यक्तिगत न्याय की कसौटी पर खरा उतरता है।’’ (खण्ड 6, पेज 83)
बाबा साहब की यह बात मजदूरों के परिप्रेक्ष्य में हूबहू देखी जा सकती है कि कैसे भारत के सवर्ण वर्चस्व वाली संस्थाएँ अपने साधनों को गतिशील करने में मद्धम पड़ गईं। सरकार ने अपने हाथ पीछे खींच लिए, न्यायपालिका मूक दर्शक बनी रही, मीडिया लोगों को भरमाने में लगा रहा, बुद्धिजीवी वर्ग अपने रोजमर्रा के जिन्दगी में मशगूल रहा। ऐसे संकट के समय समाज को सुरक्षित करने के लिए देश के साधनों को जिस स्तर पर गतिशील होना था, मानवतावादी होना था, न्यायिक होना था, उस स्तर पर नहीं हो पाया। जाति ने भारतीय समाज की गतिशीलता को नष्ट कर दिया है, क्रूर एवं असंवेदनशील बना दिया है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में उच्च वर्ण (वर्ण व्यवस्था के अनुसार) ही उच्च वर्ग है। इस वर्ण और वर्ग की गुत्थी ने जाति उत्पीड़न को एक नई ऊंचाई दी है, लॉकडाउन की त्रासदी में लोग सड़कों और रेल की पटरियों पर मर रहे थे और भारत के उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग से विरोध की कोई आवाज नहीं आई जैसी आवाज हमें अमेरिका में जार्ज फ्रायड के मरने पर सुनाई देती है या केरल में हथिनी के मरने पर दिखाई देती है। कल्पना करिये मजदूरों की ऐसी हालत अमेरिका, जापान, फ़्रांस, इंग्लैण्ड या अन्य किसी देश में जो अपने आप को सभ्य कहता है वहां होती तो प्रतिरोध का क्या स्वरूप होता?
सरकार, कार्यपालिका, न्यायपालिका, शिक्षण संस्थान, मीडिया में बैठे लोगों को यह अनुमान है कि सड़क पर चलने वाले लोग किस तबके (जाति) से आते हैं? सदियों से भारत में उच्च वर्ग को वर्ण व्यवस्था के अनुरूप जो ट्रेनिंग मिली है वह सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्र में व्याप्त हो गई है जिसके कारण यह वर्ग दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक को अपना अंग नहीं समझता है। अगर हम भारत के प्रमुख लोकतांत्रिक संस्थानों की पड़ताल करे जो अनुच्छेद 12 के ’राज्य’ के अधीन आते हैं और उन संस्थानों की भी पड़ताल करे जो लोकतंत्र के प्रमुख स्तम्भ हैं तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन संस्थानों पर उच्च जाति का कब्जा है
- न्यायपालिका में सभी वर्गों की हिस्सेदारी आजादी के 70 साल के बाद भी नहीं हो पाई, भारत के किसी भी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आज तक एक भी दलित नहीं पहुंच पाया है और भारत के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर 70 वर्षों में मात्र एक दलित पहुंच पाया है। अन्य पिछड़े वर्ग की हालत और भी खराब है। आज तक एक भी अन्य पिछड़े वर्ग का न्यायाधीश भारत का मुख्य न्यायाधीश नहीं बन पाया।
- कोरपरेट जगत में दलित तथा अन्य पिछड़े वर्ग की भागीदारी लगभग नगण्य है। आक्सफेम के रिकार्ड के अनुसार शीर्ष के 10 प्रतिशत लोगों का 77 प्रतिशत राष्ट्रीय सम्पदा पर कब्जा है। 2017 में 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर 1 प्रतिशत अमीर लोगों का कब्जा रहा और इसी साल नीचे से 67 मिलियन भारतीय गरीबों के पास भारतीय सम्पदा का 1 प्रतिशत पहुंच पाया।
- आक्सफेम और न्यूजलान्ड्री के सर्वेक्षण के द्वारा 121 बड़े न्यूजरूम की पड़ताल की गई और बड़े पदों पर काम करने वाले का ब्यौरा जुटाया गया। इन बड़े लोगों में चीफ एडिटर, मैनेजिंग एडिटर, एक्जीक्यूटिव एडिटर, ब्यूरो चीफ, इनपुट/आउटपुट एडिटर 121 में से 106 पत्रकार, उच्च जाति से हैं। ऐसे बड़े पदों पर कोई भी पत्रकार अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से नहीं है। प्राइम टाइम डिबेट करवाने वाले पत्रकारों में कोई भी दलित, आदिवासी व अन्य पिछड़े वर्ग से नहीं है। इन डिबेटों में बुलाए गए पेनलिस्टों में 70 प्रतिशत सवर्ण जाति के होते हैं। हिन्दी समाचार पत्र में 10 प्रतिशत आर्टिकल दलित, आदिवासी द्वारा लिखे जाते हैं वहीं अंग्रेजी समाचार पत्रों में इन जातियों का प्रतिशत 5 रह जाता है।
- भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 95 प्रतिशत प्रोफेसर अनरिजर्व केटेगरी के हैं, अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की भागीदारी क्रमशः 0 प्रतिशत, 3.4 प्रतिशत, 0.7 प्रतिशत है। एसोसियेट प्रोफेसर के पदों पर सामान्य वर्ग के लोग 92 प्रतिशत हैं जबकि इस पद पर अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की भागीदारी क्रमशः 0 प्रतिशत, 4.96 प्रतिशत और 1.3 प्रतिशत है। असिस्सेंट प्रोफेसर में थोड़ी स्थिती सुधरी नजर आती है, अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की भागीदारी क्रमशः बढ़कर 14.3 प्रतिशत, 12.2 प्रतिशत, 5.4 प्रतिशत हो पायी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 66 प्रतिशत बनी हुई है। यह आंकड़ा यू.जी.सी. द्वारा सूचना के अधिकार के तहत 2018 में इंडियन एक्सप्रेस को दिया गया था।
उपर्युक्त भारतीय संस्थानों पर किस कदर उच्च वर्ण का कब्जा है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हिन्दू समाज व्यवस्था भाईचारे के खिलाफ है। इसमें समानता के सिद्धान्त का कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि मजदूर वर्ग अपने परिवार के साथ 1000-1500 किलोमीटर तक पैदल चलने को मजबूर हुआ, जिसमें गर्भवती, बुजुर्ग महिलाएं, अल्पवयस्क बच्चे दयनीय अवस्था में लाखों की संख्या में चले जा रहे थे। विकलांग व्यक्ति भी अपनी शारीरिक सीमाओं के बावजूद पैदल चलने को मजबूर थे। सड़क पर अनेक लोग दुर्घटनाओं का शिकार होकर मौत की गिनती में तब्दील हो गये और सरकार सोती रही।
भारतीय समाज की इसी विडंबना को समझने के लिये बाबा साहब भीमराव अम्बेडर का यह कथन कि ’’भारत में वर्ण व्यवस्था मात्र श्रम का विभाजन नहीं है बल्कि श्रमिकों का भी विभाजन है’’ बहुत सटीक जान पड़ता है। आक्सफेम संस्था की वर्ष 2010 की रिपोर्ट “सोशल डिसक्रिमिनेशन इन इंडिया” के अनुसार यह स्पष्ट होता है कि अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों में 89 प्रतिशत आदिवासी और दलित होते हैं जिनको चार प्रकार के वर्ग में बांटा गया है: अति-गरीब, गरीब, सीमान्त गरीब, अति संवेदनशील। अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने का सबसे बड़ा खामियाजा यह होता है कि इस क्षेत्र में शोषण की संभावना बनी रहती है, राज्य द्वारा सुरक्षा और विधिक सहायता की संभावना क्षीण हो जाती है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इनफार्मल सेक्टर में काम करने वाले मुसलमान का 85 प्रतिशत अति-गरीब, गरीब, सीमान्त गरीब, अति संवेदनशील है।
ऐतिहासिक रूप से वर्ण व्यवस्था में दलित, जो शूद्र और अछूत थे, उनको जमीन के मालिकाने हक से महरूम रखा गया है। आज भी उनकी वही हालत बनी हुई है। एनएसएसओ के 2009-10 के सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 92.1 प्रतिशत अनुसूचित जाति या तो भूमिहीन है या तो एक हेक्टेयर से कम भूमि का मालिक है। ग्रामीण क्षेत्र में 59 प्रतिशत अनुसूचित जाति कृषि या गैर कृषि क्षेत्र में मजदूरी करती है और एक बड़ी संख्या में पलायन करने को मजबूर होती है। शहरी क्षेत्र में इस वर्ग की आकस्मिक श्रम में 25.1 प्रतिशत की हिस्सेदारी है मतलब अपनी पूरी जनसंख्या 13.4 प्रतिशत के अनुपात में इसकी दोगुनी आबादी शहरों में आकस्मिक श्रम पर निर्भर है।
इसी सर्वे के अनुसार 76.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति या तो भूमिहीन है या उसके पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है। आबादी के अनुपात के अनुसार शहरी क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति की आकस्मिक श्रम में भागीदारी 21.1 प्रतिशत है, अपनी आबादी के अनुपात में तीन गुना से थोड़ा सा कम आकस्मिक श्रम है। इस प्रकार एससी, एसटी, ओबीसी तथा मुसलमान का प्रतिशत मिला दिया जाये तो आर्थिक रूप से सबसे संवेदनशील आकस्मिक श्रम में इनकी भागीदारी बहुत ज्यादा हो जाती है। इसको आप दिये गये चार्ट से समझ सकते है।
लॉकडाउन की वजह से इस वर्ग का सब कुछ छिन जाता है और यही वर्ग सड़कों पर पैदल चलने के लिए मजबूर होता है। शहरों में स्व-रोजगार में भी इस वर्ग की बहुत बड़ी संख्या है जिसको दिये हुए ग्राफ से समझा जा सकता है। यही वर्ग शहरों में रिक्शा, ई-रिक्शा, रेहड़ी-पटरी लगाने वालों के रूप में देखा जा सकता है। लॉकडाउन की वजह से इस वर्ग के लोगों को रातों-रात शहर छोड़कर अपने गांवों की तरफ लौट जाने के लिये मजबूर होना पड़ा।
वर्ष 2011 की जनगणना सर्वेक्षण के अनुसार अनुसूचित जाति का 16.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति का का 8.6 प्रतिशत एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करता है। अगर हम देखें तो यह वर्ग अपनी आबादी के अनुपात में- जो कि 16.6 व 8.6 प्रतिशत है- उतना ही पलायन करता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 395 मिलियन लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन किए, जिसमें 62 मिलियन अनुसूचित जाति और 31 मीलियन अनुसूचित जनजाति है। एक्सकलूजन रिपोर्ट 2013-14 के अनुसार आज भले ही शहरों में जाति की रेखा थोड़ी धुंधली पड़ गई हो लेकिन श्रम का विभाजन वर्ण व्यवस्था के अनुसार श्रमिकों के विभाजन के अनुरूप ही होता है। अतः जाति आधारित शोषण, अलगाव एवं असमानता बनी रहती है। जिस तरह से आपदा को अवसर बनाकर विभिन्न राज्यों ने श्रम कानून पर हथौड़ा चलाया है उससे इन मजदूरों की हालत वही हो जाती है जो सदियों से चली आ रही है, अतः रूचि से नहीं बल्कि मजबूरी में इनको ऐसे कामों को करना पड़ रहा है जिससे इनकी स्थिती वर्ण व्यवस्था के अनुरूप कमतर बनी रहती है।
आजादी के 70 साल बाद भी बाबा साहब भीमराव अम्बेडर का यह कथन कि वर्ण व्यवस्था श्रम नहीं श्रमिकों का विभाजन है सही प्रतीत होता है। भारत में आजादी के बाद दो व्यवस्थाओं का अनवरत टकराव चल रहा है- वर्ण व्यवस्था और संसदीय व्यवस्था। भारत के लोकतंत्र के सभी संस्थानों पर वर्ण व्यवस्था के मानने वालों का कब्जा होने के कारण राष्ट्र के संसाधन से कमजोर वर्ग को वंचित रखने की हर साजिश रची जाती है। इसका नायाब उदाहरण हम लॉकडाउन के दौरान देख सकते हैं कि संसाधन होने के बावजूद मजदूर वर्ग (बहुजन वर्ग) को उनके हाल पर मरने के लिये छोड़ दिया गया और साथ ही संपन्न वर्ग (उच्च वर्ग) के लिये संसाधनों की गतिशीलता में कोई कमी नहीं आई।
लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के सत्यवती कॉलेज में इतिहास के असिस्टन्ट प्रोफेसर हैं
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