‘जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जाये उनकी बला से…’!


सामान्यत: यह माना जाता है कि मध्य वर्ग की किसी भी आंदोलन, क्रांति और विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। मध्यवर्ग का एक हिस्सा शासन का पैरोकार और दूसरा हिस्सा आंदोलनों की आवश्यकता का हिमायती होता है। यह दूसरा हिस्सा वैचारिक परिस्थितियों का निर्माण करने में तो अपनी भूमिका का निर्वाह करता है पर आंदोलन की शुरूआत की जिम्मेदारी से वह सदैव बचता रहता है। वह आंदोलन के उग्र और सर्वव्यापी होने पर ही उसमें सक्रिय हिस्सेदारी करता है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस वर्ग की उदासीनता से तो प्रेमचंद क्षुब्ध थे ही, साथ ही समाज में व्याप्त अंधविश्वास, प्रपंच, सामंती शोषण, वर्ग और वर्ण-भेद के वीभत्स और कुत्सित रूप के प्रति इस वर्ग की उदासीनता एवं तटस्थता से भी वह नाखुश थे।

प्रेमचंद ने सन 1936 में अपने लेख ’महाजनी सभ्यता’ में लिखा है:

मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है। और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का है जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ (मरने और खपने वालों) किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।

इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद की मूल सामाजिक चिंताएं क्या थीं। वह भली-भाँति समझ गये थे कि एक बड़े वर्ग यानि बहुजन समाज की बदहाली के जिम्मेदार,  उन पर शासन करने वाले,  उनका शोषण करने वाले कुछ थोड़े से पूंजीपति, जमींदार, व्यवसायी ही नहीं थे बल्कि अंग्रेजी हुकूमत में शामिल उच्चवर्णीय निम्न-मध्यवर्ग/मध्यवर्ग (सेवक/नौकर) भी उतना ही दोषी था। किसान, मजदूर, दलित वर्ग न केवल शोषित और ख़स्ताहाल था बल्कि नितांत असहाय और नियति का दास बना हुआ जी रहा था। दोनों वर्गों की इतनी साफ-साफ पहचान प्रेमचंद से पहले हिन्दी साहित्य में किसी ने भी नहीं की थी।

एक ओर साम्राज्यवादी अंग्रेजी शिकंजा था तो दूसरी ओर सामंतवादी शोषण की पराकाष्ठा थी। एक तरफ अंग्रेजों के आधिपत्य से देश को मुक्त कराने के लिए आंदोलन था, दूसरी ओर जमींदारों और पूंजीपतियों के विरोध में या प्रतिरोध में कोई विद्रोह मुखर रूप नहीं ले पा रहा था। अधिकांश मध्यवर्ग अंग्रेजी शासन का समर्थक था क्योंकि उसे वहां सुख-सुविधाएं,  कुछ अधिकार और मिथ्या अहंकार प्रदर्शन से आत्मगौरव का अनुभव होता था। प्रेमचंद ने अपने एक अन्य लेख में (असहयोग आंदोलन और गाँधीजी के प्रभाव में) सन 1921 में ’स्वराज की पोषक और विरोधी व्यवस्थाओं’ के तहत लिखा था कि ’शिक्षित समुदाय सदैव शासन का आश्रित रहता है। उसी के हाथों शासन कार्य का संपादन होता है अतएव उसका स्वार्थ इसी में है कि शासन सुदृढ़ रहे और वह स्वयं शासन के स्वेच्छाचार (दमन, निरंकुशता और अराजकता) में भाग लेता रहे। इतिहास में ऐसी घटनाओं की भी कमी नहीं है जब शिक्षित वर्ग ने राष्ट्र और देश को अपने स्वार्थ पर बलिदान दे दिया है। यह समुदाय विभीषणों और भगवान दासों से भरा हुआ है। प्रत्येक जाति का उद्धार सदैव कृषक या श्रमजीवियों द्वारा हुआ है।’

यह निष्कर्ष आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है। उन्होंने ‘ज़माना’ में 1919 में एक लेख लिखा था जिसमें कहा था कि इस देश में 90 प्रतिशत किसान हैं और किसान सभा नहीं है। 1925 में किसान सभा बनी। प्रेमचंद मानते हैं कि ‘किसानों की बदहाल जिंदगी में बदलाव से ही मुल्क की सूरत बदलेगी’। अंगरेजी राज्य में गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा जितनी खराब है और होती जा रही है, उतना समाज के किसी अंग की नहीं। राष्ट्रीयता या स्वराज्य उनके लिए विशाल किसान जागरण का स्वप्न है, जिसके जरिये भेदभाव और शोषण से मुक्त समाज बनेगा। उन्हीं के शब्दों में:

हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं, उसमें तो वर्णों की गंध तक नहीं होगी। वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा।

प्रेमचंद ने अच्छी तरह समझ लिया था भारत में सबसे खराब हालत कृषकों और श्रमिकों की ही है। एक ओर ज़मींदारी शोषण है तो दूसरी ओर पूँजीपति, उद्योगपति हैं, बीच में सूदख़ोर महाजन हैं। प्रेमचंद ने ग्रामीण भारत और किसानों की दुर्दशा पर लगभग आधी सदी पहले लिखा था- ‘‘जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों की खेती उजड़ जाये उनकी बला से’’।

आज भी स्थिति बदली नहीं है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूर यातना झेल रहे हैं। संघर्ष कर रहे हैं और अपनी आंखों में स्वप्न पाल रहे हैं। वे उस दिन के इंतजार में है जब उनके जीवन में कुछ तो चमक आएगी, लेकिन सच्चाई तो ये है कि उदारीकरण की इस आंधी में सरकारी नीतियों और उसकी आगोश में खूब मजा लूट रहे देशी-विदेशी पूंजी मालिक अकूत मुनाफा लूट रहे हैं। अब उनकी निगाह ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के नाम पर, ढांचागत बुनियादी विकास को ग्रामीण क्षेत्र में ले जाने के नाम पर, यह गठजोड़ खेती का कंपनीकरण चाहता है। अगर सचमुच देशी-विदेशी पूंजी के गठजोड़ के चलते किसान अपनी जमीन और किसानी से पूरी तरह बेदखल हो गये तो छोटा-मझोला, सीमांत गरीब किसान तो मिट ही जाएगा। साथ ही साथ खेत मजदूरों का विशाल समुदाय भूख-गरीबी, विस्थापन की लपटों का और गंभीर शिकार हो जाएगा। वह समाज में जीवित होकर भी जिंदा नहीं कहलाएंगे। खेती के कंपनीकरण के चलते देश में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी उन्हें बढ़ावा मिल ही रहा है।

वास्तव में कृषि व्यापार करने वाली कंपनियां किसानों से नफरत करती हैं। अमरीका और यूरोप में तो किसानों को कंपनियों ने खेती से बाहर ही कर दिया। नतीजे के रूप में देखा जा सकता है कि 30 करोड़ की आबादी वाले अमरीका में खेती करने वालों की संख्या लगभग 7 लाख परिवारों में सिमट गयी है। यूरोप के 15 देशों में महज 70 लाख किसान बचे हुए हैं। इस तरह के कृषि मॉडल के साफ संदेश है कि खेती से किसानों को बाहर निकाला जाये। जब खेती से किसान बाहर निकल जाएंगे तो खेत मजदूरों की हालत तो और भी भयावह हो जाएगी। आज हम देख रहे हैं कि हजारों किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या कर रहे हैं। उनकी संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। हम मूकदृष्टा बने हुए हैं। हमारे लिए किसानों की आत्महत्या जैसी नकारात्मक घटनाएं महज़ एक खबर से ज़्यादा अहमियत नहीं रखतीं।

जनसंख्या की दृष्टि से भारत एक बढ़ता हुआ देश है। 130 करोड़ की आबादी में 51 प्रतिशत व्यक्ति 25 वर्ष की कम आयु के हैं। आबादी का दो-तिहाई भाग 35 वर्ष से कम है। अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2022 में भारत की औसत आयु 29 वर्ष हो जाएगी। हम कैसे अपने विशाल युवा समुदाय को कृषि एवं औद्योगिक विकास के साथ जोड़कर, रोजगार के अवसर देकर, उनके जोश और ताकत का इस्तेमाल देश के लिए कर सकते हैं यह बड़ी चुनौती है। जाहिर है यह सब विज्ञापनों, नारों, जुमलों, झूठे आश्वासनों और सोशल मीडिया पर गाली-गलौज करने से तो होगा नहीं। ठोस योजना बनानी होगी। उसका गंभीरता से कार्यान्वयन करना होगा, लेकिन यह तब संभव है जब इस देश के राजनेता जनता के प्रति जवाबदेही महसूस करें। सिर्फ चुनाव जीतकर अपने लिए बेहिसाब धन दौलत इकठ्ठा करने का लक्ष्य न रखें।

भारत में किसान और मजदूर के व्यावहारिक रिश्ते को सही तरीके से समझे जाने की ज़रूरत है

विशाल ग्रामीण क्षेत्र और भारत की जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई हिस्सा आजादी के 70 साल बाद भी व्यापक बुनियादी परिवर्तन के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा है। वर्ष 2007 के आंकड़ों के अनुसार देश के 533 अरब-खरबपतियों के पास कुल 12 लाख 32 हजार 135 करोड़ रुपये की दौलत थी। वहीं दूसरी तरफ देश की 77 फीसदी जनता अर्थात 83 करोड़ 65 लाख लोगों की रोजाना की आमदनी 20 रूपये से कम है और आज का सच यह है कि मात्र 1% लोगों के पास 73% पूँजी इकट्ठा हो गयी है। बाकी 27% पूँजी का बड़ा हिस्सा भी मात्र 5-7% लोगों के पास है। बाकी ठन-ठन गोपाल। देश में दौलत का इतना असमान वितरण चौंका देने वाला ही नहीं वरन सोचने पर मजबूर करता है कि सामाजिक अन्याय की भी कोई सीमा होगी। असमान आर्थिक स्थितियों के चलते क्या इस बात की आवश्‍यकता नहीं है कि देश की दौलत का न्यायिक वितरण किया जाय?

पूरे देश की जनसंख्या का 9 प्रतिशत आदिवासी और जनजातियां हैं। वह देश के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 15 प्रतिशत क्षेत्र में निवास करते हैं। वह पहाड़ों, जंगलों और प्रकृति के गोद में गुजर-बसर करने वाले लोग हैं। जिन क्षेत्रों में वे रहते हैं वह खनिज संपदा, वनस्पति, कीमती पत्थरों और जीव-जंतुओं से भरपूर हैं। देश में कुल 700 जनजातियां हैं। सरकार की नीतियों के चलते 70 जनजातियां खत्म होने की स्थिति में हैं। आदिवासी जनजाति के लोग प्राकृतिक संपदा के हिस्सेदार नहीं मात्र खामोश तमाशाई बन कर रह गये हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी-विदेशी गठजोड़ की निजी कम्पनियों, कार्पोरेट घरानों को उद्योग स्थापित करने के नाम पर आदिवासियों एवं जनजातियों को उजाड़ कर उनकी जमीन दे रही है। उजाड़े हुए लोगों की पुनर्वास की सम्मानजक एवं अर्थपूर्ण कोई योजना भी नहीं है।

अधिकांश राज्य, भूमि सुधार से बचते हैं। फलतः समाज के शोषित, पीड़ित जिनमें अधिकांश अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आदिवासी हैं वह आज सामाजिक और आर्थिक हाशिये पर धकेल दिये गये हैं। भूमि सुधार के द्वारा गांव से खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों के शहर की ओर पलायन को रोका जा सकता है। आज एक अनुमान के अनुसार गांव से शहरों की ओर हर वर्ष 7 से 9 प्रतिशत के बीच पलायन हो रहा है। किसान, खेत मजदूर एवं असंगठित मजदूरों को सर्वाधिक कठिन चुनौतियों भरे वक्त से गुजरना पड़ रहा है जबकि गांव, किसान, खेती और खेत मजदूर की हिफाजत से ही भारत के कृषि क्षेत्र की हिफाजत की जा सकती है।

प्रसिध्द इतिहासकार प्रो. विपिन चन्द्र ने एक बार टिप्पणी की थी-

यदि कभी बीसवीं शताब्दी में आज़ादी के पूर्व किसानों की हालत के बारे में इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार का प्राथमिक स्रोत होगा प्रेमचंद का ‘गोदान’ क्योंकि इतिहास कभी भी अपने समय के साहित्य को ओझल नहीं करता।

गोदान मात्र किसान की संघर्ष गाथा नहीं है वरन् इसमें स्त्री की बहुरूपात्मक स्थिति को दर्शाते हुए उसकी संघर्ष-गाथा को भी चित्रित किया गया है। गोदान में अभिव्यक्त गोबर व झुनिया के बीच अवैध प्रेम और विवाह, सिलिया चमाइन और मातादीन पण्डित का प्रेम-प्रसंग जहां परम्परा में सेंध लगाते हैं और स्त्री को मुक्त करते हैं वहीं मेहता से प्रेम करने वाली मालती मलिन बस्तियों में मुफ्त दवा बाँट कर सामाजिक कार्यकत्री के रूप में नज़र आती है तो क्लब-संस्कृति के बहाने वह जीवन का द्वैत भी जीती है।



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