हर्फ़-ओ-हिकायत: तीनकठिया नील की खेती और नये अंग्रेजों के तीन कृषि कानून


दिल्ली की सरहद को तीन तरफ से घेरे किसान आंदोलन को सात महीने से ऊपर हो चले हैं! इस बीच लोकतंत्रप्रिय जनता लगातार चुनावों में व्यस्त रही और फिर कोरोना महामारी की दूसरी लहर आ गयी। दिल्ली के तीन बॉर्डरों पर जमे किसान खुद नहीं जानते कि देश की जनता तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की उनकी मांग का सबब कब और कैसे समझेगी। वैसे भी हम भारत के लोग किसी चीज को विस्तार से समझने में ज्‍यादा रुचि नहीं रखते, लेकिन इतिहास गवाह है कि इस देश की जनता सबसे पहले खेती के सवाल पर ही एकजुट हुई थी।   

भारत सरकार की अपनी वेबसाइट ‘’भारतीय संस्‍कृति’’ पर एक निगाह डालें तो हम मौजूदा किसान आंदोलन और कृषि कानूनों के विरोध को समझने का एक ऐतिहासिक सूत्र वहां पकड़ सकते हैं।

कहते हैं कि क्रांति का रंग लाल होता है, परंतु हर बार ऐसा नहीं होता है। कभी-कभी यह नीला भी होता है। 1859 में बंगाल में गर्मियों के दिन थे, जब हज़ारों रय्यतों (किसानों) ने यूरोपीय प्लान्टर (भूमि और नील कारख़ानों के मालिकों) के लिए नील उगाने से इंकार कर दिया था। यह रोष और निराधार संकल्प का प्रदर्शन था। यह भारतीय इतिहास के सबसे उल्लेखनीय किसान आंदोलनों में से एक बन गया। इसे ‘नील विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है।

बंगाल में नील की खेती और विद्रोह, भारतीय संस्‍कृति

1857 में हुआ स्वतंत्रता संग्राम सही मायने में अंग्रेजों को खिलाफ पहला किसान आंदोलन था। सांस्कृतिक इतिहासकार सुमंत बनर्जी ने अपनी पुस्तक “इन दि वेक ऑफ नक्सलबाड़ी” में लिखा है कि 1857 के विद्रोह का एक महत्वपूर्ण घटक समूचे उत्तर भारत में हज़ारों किसानों का स्वैच्छिक रूप से विद्रोह में भाग लेना था। इसमें कोई दो राय नहीं कि इतिहास हमेशा विशिष्ट लोगों का लिखा जाता है, इसीलिए प्रथम स्वाधीनता संग्राम के लिए रानी झांसी, नाना साहेब और अवध के नवाब को ज्यादा याद किया जाता है, लेकिन उन हजारों किसानों को नहीं जिनके विद्रोह से अंग्रेजों की नींद हराम हो गयी थी। रानी झांसी, नाना साहेब, अवध के वाजिद अली शाह और दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह अंग्रेजों को पेंशनर हो चुके थे। जनता और किसानों पर अंग्रेजों की कर वसूली पर ये खामोश रहे।

वर्तमान बिहार और तब गंगा का कैरल क्षेत्र जो आज भी उपजाऊ है, वहां किसानों के शोषण के खिलाफ वीर कुंवर सिंह का विद्रोह किसी रियासत के लिए नहीं था। न ही मेरठ में शाह मल के नेतृत्व में बिजरौला बसौद समेत चालीस गांवों के किसानों का विद्रोह किसी नवाब के समर्थन में था। 

1857 से पचास साल पहले ही अंग्रेजों ने किसानों पर नील की खेती करना थोप दिया था। नील यानी ब्लू डाई की तब योरोप में जबरदस्त मांग होती थी। सफेद कपड़ों और सफेद मकानों से भद्र लोगों की मुहब्बत के कसीदों से इतिहास भरा पड़ा है। हां, इस सफेद रंग को चमकदार बनाने के लिए नील की खेती में भारत के किसानों की पीढ़ियाँ बरबाद हो गयीं। तब 20 कट्ठा जमीन के तीन कट्ठे पर नील की खेती जबरिया होती थी। इस तीनकठिया ज्यादती के लिए राजा, नवाब और जमींदार भी अंग्रेज हुकूमत की तरफ खड़े हो गये, तब 1833 में अंग्रेजों ने इंडिगो प्लांटेशन एक्ट लाकर नील की खेती को कांट्रैक्ट फार्मिंग का स्वरूप दिया। किसानों मजदूरों का शोषण होता रहा और हुकूमत मस्त रही।

1857 की क्रांति के पीछे किसानों का यही शोषण प्रमुख वजह थी। खैर, 1858 आते-आते अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ राजे, महराजे, नवाब, सुल्तान निपट गये, लेकिन किसानों का असंतोष अभी उबल रहा था। 1859 में बंगाल के नदिया जिले में नील किसान विद्रोह शुरू हुआ तो चंपारण, दरभंगा, अवध तक फैल गया। इसे देखते हुए 1860 में अंग्रेजों ने नील आयोग गठित कर किसान असंतोष को समझने का प्रयास शुरू किया।

उस वक्त बंगाली लेखक दीनबन्धु मित्र ने नील दर्पण नाम से नील विद्रोह पर एक नाटक लिखा, जिसमें उन्होंने अंग्रेजों की मनमानियों और शोषित किसानों का बड़ा ही मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया था। यह नाटक इतना प्रभावशाली था कि देखने वाली जनता जुल्म करते हुए अंग्रेज़ का रोल निभाने वाले कलाकार को पकड़ के मारने लगी।

नील आयोग ने जल्द ही अपनी रिपोर्ट दी जिसमें कहा गया कि अग्रिम भुगतान व्यवस्था के कारण नील की खेती एक दमनकारी प्रणाली है  जिसमें कुछ किसान स्वेच्छा से फंस गये हैं और अन्य पीड़ित अपने पिता या दादा द्वारा लिए गये अग्रिम ऋण की वजह से इसके कुचक्र में फंस गये हैं।

नील की खेती के बारे में सरकार की वेबसाइट लिखती है:

यह दो मुख्य रूपों में प्रचलित थी, निज-आबाद और रय्यती। निज यानी ‘स्वयं’ प्रणाली में प्लान्टर उन ज़मीनों पर नील का उत्पादन करते थे जिन्हें वे स्वयं नियंत्रित करते थे। रय्यती में किसान प्लान्टरों के साथ अनुबंध के तहत अपनी ज़मीन पर नील की खेती करते थे। प्लान्टर कई तरीकों से भूमि पर अधिकार प्राप्त किया करते थे। वे ज़मींदारों से अस्थायी या स्थायी पट्टों पर निर्जन या बंजर भूमि ले लेते थे। उन्होंने ज़मींदारी और तालुकदारी के अधिकार भी प्राप्त कर लिए थे। कभी-कभी नील की खेती उन किसानों की भूमि पर भी की जाती थी जिनके मालिकों की बिना उत्तराधिकारी के मृत्यु हो चुकी थी या जिन्होंने अपने गाँव छोड़ दिए थे। बंगाल में नील की खेती मुख्य रूप से रय्यती प्रणाली में की जाती थी। किसान एक अनुबंध प्रणाली के तहत नील बोते थे। इस अनुबंध की अवधि एक, तीन से पाँच या दस वर्ष तक की होती थी। खेती के खर्चों को पूरा करने के लिए अनुबंध की शुरुआत में प्लान्टर किसानों को अग्रिम भुगतान किया करते थे। बदले में किसान अपनी भूमि पर नील की खेती करने के लिए सहमत हो जाते थे।

बंगाल में नील की खेती और विद्रोह, भारतीय संस्‍कृति

नील की तीनकठिया खेती करने वाले किसानों का प्लांटरों के साथ अनुबंध ठीक वैसा ही था जैसा तीन कृषि कानूनों के तहत कंपनी या पैन कार्डधारक किसी व्यक्ति से हुआ अनुबंध। इसीलिए संयुक्‍त किसान मोर्चा और तमाम किसान नेताओं को सरकार की मंशा पर संदेह है। इंडिगो प्लांटेशन एक्ट 1833 और उसके बाद 1860 में समस्या का समाधान खोजने के लिए बने नील आयोग की कार्यवाही और उसमें दी गयी 134 लोगों की गवाहियों को अगर आप पढ़ें, तो समझ जाएंगे कि किसानों को सरकार की मंशा पर संदेह क्यों है। 

बहरहाल, 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को किसानों का पहला आंदोलन मानने और बताने से क्या फायदा जब लोगों को 2017 में मध्यप्रदेश के मंदसौर में हुआ किसान आंदोलन ही नहीं याद रहा, जिसमें पुलिस की गोली से सात किसानों की मौत हो गयी थी। किसे याद है कि किसान आंदोलन से भाजपा सरकार के खिलाफ एक बड़ा माहौल तैयार हुआ था और 15 साल बाद कांग्रेस किसी तरह मध्य प्रदेश की सत्ता में वापस आ पायी थी। ठीक वैसे ही, जैसे 1857 में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायक कोई और हो गये जबकि खून बहा था किसानों का। तब किसानों के सशस्‍त्र आंदोलन का फायदा देशी रियासतों को हुआ था, लेकिन साल भर में ही अंग्रेजों ने साबित कर दिया कि आंदोलन हमारे खिलाफ हुआ है न कि तुम्हें राजा बनाने के लिए। बिलकुल इसी तर्ज पर देखें तो 2017 में कांग्रेस को मंदसौर गोलीकांड का फायदा तो मिला, लेकिन भाजपा किसान आंदोलन को समझने में अंग्रेज निकली।

कर्ज माफी और फसलों के डेढ़ गुना ज्यादा समर्थन मूल्य की मांग को लेकर तमिलनाडु के किसानों ने भी 2017 -18 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर अर्धनग्न होकर हाथों में मानव खोपड़ियां और हड्डियां लेकर प्रदर्शन किया था। ये भी शायद ही किसी को याद हो, फिर 1857 क्या याद किया जाए।

गांधी बाबा को बहुत अच्छे से पता था कि सौ साल बाद 2020 में लोगों को किसान आंदोलन जैसी चीजें बहुत बोरिंग लगेंगी। तभी सरदार पटेल को साथ लेकर वे चंपारण पहुंच गये नील किसानों के साथ असहयोग आंदोलन शुरू करने और 1920 तक भद्र लोगों, राजे महाराजे बैरिस्टरों के खाते से निकाल कर देश को गांवों किसानों के हवाले कर दिया। इतिहास गवाह है कि भारत की आजादी की लड़ाई किसानों ने लड़ी है और जीती है, लेकिन इतिहास ये भी सिखाता है कि यह बात उजली धवल खादी पहने लोगों को कभी अच्छी नहीं लगती है।



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