लखनऊ पुलिस के महिला-रक्षक AI कैमरों में देखिए जॉर्ज ऑर्वेल के ‘1984’ की छवियां!


खबर है कि लखनऊ पुलिस शहर के चौराहों पर ऐसे कैमरे लगवाने वाली है जो महिलाओं के चेहरे पढ़ लेंगे। यदि महिला डरी हुई लगी तो कैमरे के साथ लगा कंप्यूटर नजदीकी पुलिस थाने को खबर कर देगा! पुलिस तुरंत आकर महिला से पूछेगी कि क्या उसे कोई परेशान कर रहा है।

महिलाओं को लेकर यूपी पुलिस की ‘चिंता’ काबिले तारीफ है मगर इसमें कुछ पेंच हैं। इंसान कई वजहों से नाराज, दुखी, उदास और डरा हुआ हो सकता है! क्या ये कैमरे परीक्षा देने जा रही एक लड़की के डर को छेड़छाड़ के डर से अलग कर के देख पाएंगे? अपने किसी प्रियजन की दुर्घटना का समाचार पाकर उसे देखने जा रही डरी हुई महिला को पुलिस रोककर पूछेगी- बताइए आपको कौन परेशान कर रहा है? और पुलिस जब एक बार किसी चीज़ को मान कर आती  है तो इतनी आसानी से वापस नहीं जाती!

एक और बड़ा सवाल है। क्या ये कैमरे नागरिकों की भलाई के नाम पर सरकारी निगरानी के एक बड़े सिलसिले की शुरुआत हैं?

जॉर्ज ऑरवेल ने 1984 नाम के उपन्यास में इस तरह की आशंका पर ध्यान दिलाया था कि सरकार देश भर के दफ्तरों, घरों, सड़कों पर कैमरे लगवा देगी ताकि यदि कोई उसके खिलाफ कुछ सोचे या बोले तो उसे तुरंत गिरफ्तार किया जा सके। क्या ‘1984’ जल्द ही हकीकत बनने वाला है?

इजरायली चिंतक युवाल नोआह हरारी ने अपनी किताब में इस पर चर्चा की है। वह कहते हैं कि जल्द ही आपके मोबाइल और कंप्यूटर के फ्रंट कैमरे पढ़ने के दौरान आपके भीतर उठ रहे जज्बात को रिकॉर्ड कर लेंगे। यदि किसी नेता की तस्वीर को देखकर नागरिक के मन में नफरत या गुस्से का भाव आए तो कैमरे उसे पहचान कर पुलिस को खबर कर देंगे।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की इस नयी दुनिया में आपका स्वागत है! जल्द ही आप हर ओर, हर समय निगरानी में होंगे। अपनी प्राइवेसी को बचाने के लिए व्हाट्सएप को डिलीट कर टेलीग्राम अपनाने वाले लोग क्या जानते हैं कि अब इसका कोई खास मतलब नहीं रह गया है? आपकी प्राइवेसी को चौराहे, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट पर लगे कैमरों, आपकी गूगल की ब्राउजिंग हिस्ट्री और तमाम दूसरी तकनीकों से आपसे बलपूर्वक छीन लिया गया है। प्राइवेसी अब एक भ्रम है!

हरारी कहते हैं- जल्द ही सरकारें हमारी चमड़ी के अंदर एक माइक्रोचिप फिट कर देंगी, जो हमारी गतिविधियों, बातचीत, हमारे दिल की धड़कन और नब्ज़ की रफ्तार को रिकॉर्ड कर हमारे बारे में लगातार अंदाजा लगाएगी कि हम किस तरह के व्यक्ति हैं, क्या करते हैं और क्या करने वाले हैं। यह चिप लगवाना हमारी मजबूरी इसलिए बन जाएगी क्योंकि यह हमारे नजदीकी अस्पताल से कनेक्ट की जाएगी और बगैर यह चिप लगवाए न मेडिकल इंश्योरेंस मिलेगा न इलाज। सीधे अनिवार्य न करते हुए भी बात कैसे मनावायी जाती है, इसका एक नमूना हम आधार कार्ड के रूप में देख ही चुके हैं।

यूपी पुलिस के कैमरों पर लौटते हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की जिन तकनीकों से यह कैमरे इंसानी हाव-भाव को पढ़ते हैं, वे मानती हैं कि सारी दुनिया के लोगों के हाव-भाव एक से होते हैं। चाहे वे किसी भी नस्ल या रंग रूप के हों। दूसरी बात, इंसानी हाव-भाव को कुल मिलाकर सात प्रकार में बांटा जा सकता है।

सवाल उठता है कि क्या जटिल इंसानी स्वभाव की बारीकियों को इतने मोटे तौर पर देखना सही है! हमारे यहां तो नृत्य में भी नौ प्रकार के रस और उनके भाव प्रकट किये जा सकते हैं। इसलिए क्या हमें फिलहाल इंतजार करना चाहिए जब तक यह तकनीक इतनी आगे न बढ़ जाए कि गलती की गुंजाइश न रहे?

फिलहाल एक डर और है। एजेंसियां क्या इन कैमरों को सिर्फ महिलाओं और उनके छेड़छाड़ के डर को पकड़ने के लिए ही इस्तेमाल करेंगी? दूसरे लोगों के भाव पकड़ने के लिए भी तो इनका इस्तेमाल हो सकता है? हम अक्सर अखबार में पढ़ते हैं- कुछ लोग डकैती की योजना बनाते पकड़े गए। अब हमें इस प्रकार की खबरों के लिए तैयार रहना चाहिए कि कुछ लोग डकैती के बारे में ‘सोचते’ हुए पकड़े गए!

इस तकनीक की संभावनाएं अनंत हैं। क्या किसी पोलिंग बूथ पर लगा कोई कैमरा मतदाता के मनोभाव को पढ़ कर बता देगा कि वह किस पार्टी को वोट देने वाला है? फिर गुप्त मतदान का क्या अर्थ होगा? क्या यह जानकारी उस मतदाता की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं बन जाएगी? क्या सरकारें लोगों को मदद पहुंचाते वक्त इस जानकारी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी?

टेक्नोलॉजी यहीं नहीं रुकेगी। हो सकता है कि जल्द ही हमारे घरों में लगे हुए कैमरे हमें अपने परिवार के सदस्यों के बारे में ही ऐसी जानकारियां दें, जो हम नहीं जानते थे।

मेरे एक मित्र इस खबर पर हैरानी जताते हैं कि महिलाओं के मनोभाव कोई कैसे पढ़ सकता है। वे कहते हैं कि मुझे अपनी पत्नी के साथ रहते 20 साल हो गए। मैं आज भी समझ नहीं पाता कि मेरी पत्नी गुस्सा है, खुश है या दुखी!

यूपी पुलिस के कैमरों पर शुरू हुई यह बहस कई दिलचस्प दिशाओं में जाती है। मसलन, क्या इस तकनीक के इस्तेमाल से कोई नादान आशिक “लव्स मी-लव्स मी नॉट” के खेल में उलझने के बजाय सीधे ही जान सकेगा कि वह उससे प्यार करती है या नहीं? ये कैमरे जब दफ्तर में लग जाएंगे तो उन कर्मचारियों का क्या होगा जो बॉस के सामने चापलूसी करते हैं पर दिल में उससे नफरत करते हैं? कर्मचारियों का तो ठीक, मगर बॉस के लिए यह हकीकत जान लेना कितना पीड़ादायी होगा?

यही मामला अगर घर आ गया और पति यह जान गया कि उसकी पत्नी ‘आई लव यू’ सिर्फ कहने के लिए कहती है, असल में प्‍यार नहीं करती। तब क्‍या होगा? हम कैसे जिएंगे?

हमारी जिंदगी छोटे-छोटे झूठ की बुनियाद पर टिकी है। कोई इन टेक्नोलॉजी वालों से कहे- राज़ को राज़ रहने दो पर्दा ना उठाओ!\


लेखक इंदौर स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


About संजय वर्मा

View all posts by संजय वर्मा →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *