प्रेस की स्वतंत्रता के सवाल से ज्यादा बड़ा है पत्रकारिता के वजूद का संकट!


प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन और उत्तरोत्तर गिरती स्थिति पर चर्चा और विमर्श जारी है। हाल के दिनों में पत्रकारों के दमन और उत्पीड़न के समाचारों की आवृत्ति भी चिंताजनक रूप से बढ़ी है।

पत्रकारों को निर्वस्त्र करने की दुःखद, शर्मनाक और निंदनीय घटनाओं पर कुछ मित्रों से चर्चा हो रही थी। किराना व्यवसाय से जुड़े एक मित्र की प्रतिक्रिया ने चौंकाया भी और डराया भी। यह मित्र सोशल मीडिया पर निरंतर सक्रिय रहते हैं और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के नवप्रवेशी उत्साही छात्रों में उन्हें शुमार किया जा सकता है। उन्होंने कहा- आजकल जो भी हो रहा है वह बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था, इन पत्रकारों को भी एक बार जमकर सबक सिखाना जरूरी है। मैंने उनसे पूछा कि पत्रकारों के प्रति उनकी इस नफरत का आधार क्या है! क्या वे पत्रकारिता की ओट लेकर भयादोहन करने वाले किसी अपराधी तत्व द्वारा प्रताड़ित किए गए हैं? उनके उत्तर से ज्ञात हुआ कि कोई अप्रिय व्यक्तिगत अनुभव पत्रकारों के प्रति उनकी घृणा के लिए उत्तरदायी नहीं है अपितु वे उस नैरेटिव के शिकार हैं जिसके अनुसार सत्ता की नजदीकी से वंचित कर दिए गए वामपंथी पत्रकार षड्यंत्रपूर्वक नए भारत के नए तेवरों पर सवाल उठा रहे हैं। मेरे मित्र ने यह भी कहा कि सरकार की त्वरित बुलडोजर मार्का न्याय प्रणाली आज की जरूरत है, अदालतें उपद्रवियों और दंगाइयों को संरक्षण देने के लिए बनी हैं, इसलिए सरकार इनकी उपेक्षा कर ऑन द स्पॉट जस्टिस देने का कार्य कर रही है। उनके मुताबिक पत्रकार बौद्धिक उपद्रवी हैं, वे विध्वंसकारी प्रवृत्ति के शिकार हैं और नकारात्मकता फैलाने के स्रोत भी हैं इसलिए यह भी इंस्टैंट पुलिसिया न्याय के लायक हैं। मध्यमवर्गीय व्यवसायी मित्रों की बहुलता वाली मंडली ने इन तर्कों का पुरजोर समर्थन किया।

मैंने उन्हें बताया कि किस प्रकार हमारे स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास और हमारी पत्रकारिता की यात्रा अविभाज्य रूप से अन्तर्ग्रथित हैं। किस प्रकार वैश्विक स्तर पर और हमारे देश में भी ‘सत्ता’ -चाहे वह जिस दल या विचारधारा की हो पत्रकारों से भयभीत रही है और उन्हें दमन का सामना करना पड़ा है। मैंने उन्हें यह भी समझाने का प्रयास किया कि सत्ता के सुर में सुर मिलाना न तो पत्रकार से अपेक्षित होता है न ही यह स्वस्थ पत्रकारिता का कोई लक्षण है। सत्ता से नजदीकी और सत्ता की प्रशंसा अर्जित करना किसी भी अच्छे पत्रकार का लक्ष्य नहीं होता बल्कि यह तो उसके विचलन और पतन का सूचक है।

असहमति की बेबाक अभिव्यक्ति, आलोचना करने का साहस, समीक्षात्मक दृष्टिकोण, तथ्यपरक-तार्किक विवेचना और अप्रिय प्रश्न पूछने में संकोच न करना- यह सभी अच्छे पत्रकार के मूल गुण हैं। सत्ता से सहमत होने के लिए बहुत से लोग हैं। यदि पत्रकार भी ऐसा करने लगें तो जनता की समस्याओं और पीड़ा को स्वर कौन देगा? पत्रकार निष्पक्ष से कहीं अधिक जनपक्षधर होता है और किसी घटना के ट्रीटमेंट में जनता, समाज एवं देश का हित उसके लिए सर्वोपरि होता है।

मैंने उन्हें यह भी समझाने की कोशिश की कि सत्ता का विरोध करने वाले हर व्यक्ति को वामपंथी समझ लेना कितना गलत है। और यह भी कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में वामपंथी होना कोई अवगुण नहीं है, एकदम उसी तरह जैसे दक्षिणपंथी होना कोई अपराध नहीं है। अलग-अलग वैचारिक प्रतिबद्धताओं के मध्य स्वस्थ वैचारिक संघर्ष और उनके सह-अस्तित्व से ही हमारा लोकतंत्र समृद्ध, पुष्ट और स्थिर होता है।

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हमारे निराशाजनक प्रदर्शन से अधिक चिंताजनक यह है कि इस पर लज्जित और चिंतित होने के स्थान पर हम आनंदित हो रहे हैं। समाज में ऐसे आत्मघाती चिंतन वाले व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो सत्ता द्वारा सर्वाधिक प्रताड़ित किए जाने के बावजूद स्वयं को सत्ता का एक अंग समझ रहे हैं और अपने ही हितों की बात करने वाले पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के दमन से प्रसन्न हो रहे हैं।

प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराते संकट की चर्चा तो हो रही है किंतु प्रेस के अस्तित्व पर जो संकट है उसे हम अनदेखा कर रहे हैं। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के मुद्रण आधारित या इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करने वाले हर व्यक्ति या संस्थान को प्रेस की आदर्श परिभाषा में समाहित करना घोर अनुचित है विशेषकर तब जब वह पत्रकारिता की ओट में अपने व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हो।

आज राजनीतिक दलों तथा उद्योगपतियों से मीडिया के अवैध संबंधों को वैधानिकता प्रदान करने के लिए अब इनके मीडिया सेल सक्रिय दिखाई देते हैं और हम ‘मीडिया प्रबंधन’ जैसी अभिव्यक्ति को लोकप्रिय होते देखते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ ही यह दर्शाता है कि मीडिया को मैनेज किया जा सकता है।

धनकुबेरों का अखबार और टीवी चैनल पालने का शौक बहुत पुराना रहा है और कदाचित किसी समय यह उनके सम्मान, प्रतिष्ठा एवं परिष्कृत अभिरुचि का सूचक समझा जाता रहा होगा। किंतु बहुत जल्द उन्होंने अपनी व्यावसायिक बुद्धि से यह अनुमान लगा लिया कि प्रेस में निवेश महज विलासिता नहीं है अपितु इससे सत्ता से नजदीकी बढ़ाई जा सकती है। हमने वह युग भी देखा है जब किसी समाचार समूह पर सरकार समर्थक होने के आक्षेप लगा करते थे लेकिन सरकार समर्थक मीडिया जैसी अभिव्यक्ति में जो द्वैत बोध था वह इतनी जल्दी तिरोहित हो जाएगा और मीडिया सरकार के साथ तद्रूप हो जाएगा इसकी कल्पना हमने नहीं की थी।

उच्चतम और नवीनतम तकनीकी सुविधाओं की उपलब्धता, भव्य स्टूडियो तथा सेलिब्रिटी एडिटरों-एंकरों-रिपोर्टरों के जमावड़े से बनने वाले टीवी चैनलों में पत्रकारिता का कलेवर तो है लेकिन तेवर नदारद है। ऐसा बहुत कुछ जिसे हम पत्रकारिता समझ कर देख-पढ़ रहे हैं और जिसके आधार पर अपने अभिमत का निर्माण कर रहे हैं वह दरअसल पत्रकारिता की तकनीकों का उपयोग करने वाले चतुर उद्योगपतियों और सत्ताधीशों की भरमाने वाली प्रस्तुतियां हैं जिनसे जनपक्षधरता, जनशिक्षण और जन अभिरुचि के परिष्कार की आशा करना व्यर्थ है।

वैकल्पिक मीडिया का उदय आशा तो जगाता है किंतु ‘वैकल्पिक’ शब्द के साथ उसकी सीमाओं का बोध जुड़ा हुआ है और ऐसा बहुत कम होता है कि विकल्प मूल को प्रतिस्थापित कर दे। वैकल्पिक मीडिया संवेदनशील पत्रकारों और पाठकों की शरण स्थली है। यह मुख्य धारा के मीडिया के प्रति उनकी निराशा और आक्रोश की अभिव्यक्ति है। मुख्य धारा के मीडिया के नाम पर चल रहे पाखंड के प्रति प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेने वाला वैकल्पिक मीडिया स्वाभाविक रूप इस पाखंड,छद्म और भ्रम जाल को तोड़ने में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहा है, यही कारण है कि अनेक बार इसमें सृजनशीलता और रचनात्मकता का अभाव दिखाई देता है। किसी बुरी प्रवृत्ति का प्रतिकार जब उसकी आलोचना के माध्यम से किया जाता है तब भी हम उसे चर्चा में तो बनाए ही रखते हैं। हमारी अपनी मूल्य मीमांसा और सकारात्मक चिंतन को जनता तक पहुंचाने का करणीय कृत्य तब हमारी दूसरी प्राथमिकता बन जाता है।

वैकल्पिक मीडिया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का आश्रय लेता है जिस पर भी धनकुबेरों का नियंत्रण है जिनके व्यावसायिक हितों की सिद्धि के लिए सत्ता से मैत्री आवश्यक है। सोशल मीडिया की स्वतंत्रता कुछ-कुछ खुली जेल की आजादी की तरह है, जहाँ आजादी का दायरा बड़ा तो है किंतु अंततः है तो यह जेल ही। कानून व्यवस्था का अवलंबन लेकर इंटरनेट बाधित करना हमारी शासन व्यवस्था का नवसामान्य व्यवहार है। तकनीकी के विकास ने सोशल मीडिया पोस्टों की निगरानी को इतना परिष्कृत कर दिया है कि स्वयं को स्वतंत्र और अचिह्नित समझना बहुत बड़ी नादानी होगी। जब तक हमारे विद्रोही तेवरों को सत्ता बालसुलभ कौतुक समझ कर गंभीरता से नहीं लेती तब तक सोशल मीडिया पर हमारी यात्रा निर्बाध गति से चलती रहती है किंतु जैसे ही सत्ता हमें संभावित खतरे के रूप चिह्नित करती है वैसे ही पहले इन प्लेटफॉर्म्स के अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्यायित किए जाने वाले कम्युनिटी स्टैंडर्ड्स प्रकट होते हैं और जब प्रतिबंध पर्याप्त नहीं लगता तो हमारा कमजोर साइबर कानून अचानक सशक्त हो जाता है और सुस्त कही जाने वाली जांच एजेंसियां असाधारण तत्परता से हमारे पीछे लग जाती हैं। स्थिति यह है कि सोशल मीडिया पर झूठ और नफरत फैलाकर एक पूरी पीढ़ी को तबाह करने वाली शक्तियां उत्तरोत्तर ताकतवर हो रही हैं और सत्ता से हल्की सी असहमति प्रतिबंधों और कानूनी कार्रवाई के दायरे में लाई जा रही है।

टेक फॉग का सच तो शायद कभी सामने नहीं आ पाएगा किंतु इसके दुरुपयोग को लेकर जो आरोप लगे हैं वे बहुत गंभीर हैं। क्या सोशल मीडिया के माध्यम से सत्ताधारी दल से संबंध रखने वाले राजनीतिक कार्यकर्त्ता कृत्रिम रूप से पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने में लगे हुए हैं? क्या सत्ता के आलोचकों एवं असहमत स्वरों को प्रताड़ित करने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है? क्या सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर व्यापक रूप से पब्लिक ओपिनियन को इच्छित दिशा में मोड़ने के लिए टेक फॉग का उपयोग किया गया? क्या यह सवाल इसलिए अनुत्तरित ही रह जाएंगे क्योंकि इनके जवाबों के जरिए आधुनिक राजनीति का छिपा हुआ स्याह आपराधिक चेहरा उजागर हो जाएगा?

मूल्य आधारित पत्रकारिता की पांच दशक से बह रही ‘बयार’ में ठिठका एक अपार दुख

ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया जमीनी सच्चाइयों को सामने लाने का जरिया नहीं बना है किंतु इसके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की पुष्टि के वैकल्पिक साधन के अभाव में यह खबरें ‘माय वर्ड अगेंस्ट योर्स’ बनकर रह जाती हैं। सोशल मीडिया पर झूठी और भ्रामक पोस्ट्स की भरमार ने इसकी विश्वसनीयता को घटाया है। अभिव्यक्ति के संयम का अभाव भी यहां इतना अधिक है कि कहा जाने लगा है कि जो कुछ घर-परिवार और समाज में प्रत्यक्ष रूप से नहीं कहा जा सकता वह सोशल मीडिया पर कहा भी जा सकता है और उसके लिए सराहना भी प्राप्त की जा सकती है। सोशल मीडिया ने फेक न्यूज़ के कारोबार को बढ़ावा दिया है और मनोरंजक स्थिति यह है कि जनता को फेक इश्यूज पर दिन रात फंसाए रखने वाले पारंपरिक टीवी चैनल और अखबार इनकी पड़ताल करते देखे जाते हैं।

उस संपादक के लिए, जो किसी घटना से खबर को तराश कर बाहर निकालता था, सोशल मीडिया में कोई स्थान नहीं है। प्रिंट मीडिया में संपादकों का स्थान न्यूज़ अरेंजर जैसी किसी नई प्रजाति के लोग पहले ही ले चुके हैं। टीवी चैनलों और अखबारों से जुड़े पत्रकारिता के बहुत सारे बड़े नाम शायद यह भ्रम पैदा करने के लिए ही हैं कि जो कुछ उनकी छत्रछाया में हो रहा है उसे पत्रकारिता मान लिया जाए। अशोभनीय जल्दबाजी से मूर्द्धन्य का दर्जा हासिल करने वाले असमय विगत शौर्य हो चुके अनेक पत्रकारों के विषय में तो अब यह शंका भी होती है कि उनका पराक्रम कहीं अपना बाजार भाव बढ़ाने की किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं था। जेनेटिक कारणों से होने वाला रोग प्रोजेरिया बचपन में वृद्धावस्था ला देता है किंतु इन युवा पत्रकारों के वैचारिक प्रोजेरिया का कारण तो सत्ता और संपन्नता की उनकी भूख ही है।

ऐसा बहुत कुछ जो आज पत्रकारिता के नाम पर परोसा जा रहा है- दरअसल हमें कुछ खास विषयों पर खास दिशा में सोचकर अपनी राय बनाने के लिए बाध्य करने की रणनीति का एक हिस्सा है। सरकार अब सेंसरशिप जैसी आदिम अभिव्यक्तियों पर विश्वास नहीं करती। आज का मीडिया ऐसे बहुविकल्पीय प्रश्न की भांति है जिसके सारे उत्तर सत्ता के पक्ष में हैं और सत्ता बड़े गौरव से यह कह सकती है कि जनता को चुनने की आजादी है।


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, आवरण चित्र- साभार देसी दिसा


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