पत्रकारिता @2021: निरंकुश सत्ताओं के बर्बर उत्पीड़न के बीच अदम्य साहस की गाथाएं


पिछली बार एक श्रमजीवी पत्रकार को यह पुरस्‍कार 1936 में दिया गया था। पुरस्‍कार लेने कार्ल वॉन ऑसीत्‍ज़की कभी ओस्‍लो नहीं आ पाए क्‍योंकि वे एक ना़ज़ी यातना शिविर में कैद थे। इस लिहाज से हम मान सकते हैं कि उस दौर के मुकाबले हम एक कदम बेशक आगे बढ़ चुके हैं क्‍योंकि हम लोग सशरीर यहां मौजूद हैं… दिमित्री और मैं इस मामले में सौभाग्‍यशाली हैं क्‍योंकि हम आपसे अभी बात कर सकते हैं, लेकिन ऐसे तमाम और पत्रकार हैं जो दंड के साये में बिना किसी बाहरी संपर्क या सहयोग के जी रहे हैं और सरकारें दंडमुक्ति के भाव से उन्‍हें और दबाए जा रही हैं। प्रौद्योगिकी ने इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है…।

मारिया रेसा

ये शब्‍द फिलीपींस की 58 वर्षीया पत्रकार मारिया रेसा के हैं, जिन्‍होंने 2021 का नोबेल शांति पुरस्‍कार लेते वक्‍त दिए अपने भाषण में शांति बहाली में पत्रकारों की भूमिका को रेखांकित किया था।

आम तौर से मारिया ‘फासिज्‍म‘ शब्‍द के हलके प्रयोग से बचती हैं, लेकिन फ्रंटलाइन डिस्‍पैच पोडकास्‍ट में उन्‍होंने माना कि आज जैसा वे महसूस करती हैं वे स्थितियां कमोबेश वैसी ही हैं जब पिछली बार एक पत्रकार को नोबेल मिला था। वो नाज़ीवाद का दौर था। वे मानती हैं कि यह ”फासीवाद के उभार” का दौर है।

जाहिर है, नोबेल कमेटी ने इस बार दो पत्रकारों को सम्‍मानित कर के पत्रकारिता पर मंडरा रहे वैश्विक खतरे को संज्ञान में लिया है। यह इत्‍तेफ़ाक नहीं है। जिस त्रासदी, अवसाद और ठहराव में मनुष्‍यता के पिछले दो वर्ष गुजरे हैं, अभिव्‍यक्तियों का दुनिया भर में महामारी और सुरक्षा के नाम पर आश्‍चर्यजनक रूप से दमन किया गया है।

पत्रकारों की हत्‍याओं और कैद का वर्ष 2021  

इस खतरे की एक झलक हमें 2021 के कमेटी टु प्रोटेक्‍ट जर्नलिस्‍ट्स (सीपीजे) और रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स (आरएसएफ) की हालिया रिपोर्टों में मिलती है जिनके मुताबिक 2021 में दुनिया भर में क्रमश: 24 और 46 पत्रकारों की हत्‍या हुई है। सीपीजे 24 के अलावा 18 मौतें और गिनवाता है जिनके पीछे की मंशा और परिस्थितियां संदिग्‍ध हैं। 2021 में ही दुनिया भर में सबसे ज्‍यादा 293 पत्रकारों को जेल हुई है (सीपीजे)। आरएसएफ के मुताबिक पत्रकारों सहित मीडियाकर्मियों को भी जोड़ लिया जाए तो जेल में इनकी संख्‍या 488 बैठती है। चीन ने अपने यहां 127 पत्रकारों को 2021 में जेल में डाला है। बीती 1 फरवरी के सैन्‍य तख्‍तापलट के बाद से म्‍यांमार में मीडिया पर जैसा दबाव देखने को मिला, वह अप्रत्‍याशित है और बीते 2020 के मुकाबले जेल भेजे गए पत्रकारों की संख्‍या में 20 फीसद इजाफा हुआ है।

Afghanistan emerges most dangerous country for scribes: PEC

पत्रकारों पर हमले के मामले में चीन और म्‍यांमार के पीछे मिस्र, बेलारुस, मेक्सिको और वियतनाम का नंबर है। अफगानिस्‍तान पर तालिबान के कब्‍ज़े के बाद से वहां करीब 7000 पत्रकारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। आरएसएफ और अफगान इंडिपेंडेंट जर्नलिस्‍ट असोसिएशन के एक सर्वे के मुताबिक तालिबान का राज आने के बाद से हर 10 में से चार मीडिया संस्‍थान बंद हो चुका है और 60 फीसद मीडियाकर्मी बेकार हो गए हैं। गर्मी की शुरुआत में अफगानिस्‍तान में 543 मीडिया संस्‍थान काम कर रहे थे लेकिन नवंबर के अंत तक इनकी संख्‍या महज 312 रह गयी।

जहां तक देशों की बात है, तो सीपीजे ने 1 दिसंबर 2021 तक ऐसी 19 हत्‍याओं को दर्ज किया है जिसमें पत्रकारों को उनके काम के बदले में मारा गया। इसमें शीर्ष स्‍थान भारत का रहा जहां चार पत्रकार अपने काम के चलते मारे गए। एक और की मौत एक प्रदर्शन कवर करने के दौरान हुई। कुल छह हत्‍याएं भारत में दर्ज की गयीं जिसके बाद पत्रकारिता के लिए चार सबसे खराब देशों में भारत का नाम भी शामिल हो गया। स्विट्जरलैंड की संस्‍था प्रेस एम्‍बलम कैम्‍पेन के मुताबिक अफगानिस्‍तान, मेक्सिको और पाकिस्‍तान के बाद भारत पत्रकारिता की चौथी कब्रगाह के रूप में सामने आया है।

ऐसी भयावह वैश्विक परिस्थिति में फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा और रूस के पत्रकार दिमित्री मोरोतोव को नोबेल शांति पुरस्‍कार से नवाजा जाना इस बात का द्योतक है कि नोबेल कमेटी की निगाह पत्रकारों पर हो रहे हमलों पर है।

मारिया अपनी कहानी सुनाते हुए कहती हैं:

दो साल से कम वक्‍फ़े में फिलीपींस की सरकार ने मेरी गिरफ्तारी के लिए दस वारंट निकाले। अपना काम करने के लिए मुझे दस बार जमानत करवानी पड़ी। पिछले साल मेरे और मेरे एक पूर्व सहयोगी के ऊपर आठ साल पहले प्रकाशित एक स्‍टोरी के मामले में साइबर मानहानि का मुकदमा हुआ। बताया गया कि हमने एक ऐसे कानून का उल्‍लंघन किया है जो स्‍टोरी छपने के वक्‍त बना ही नहीं था। कुल मिलाकर देखा जाय तो मेरे ऊपर जितने आरोप हैं उनमें मुझे 100 साल की जेल हो सकती है।    

मारिया ने अपना नोबेल संबोधन शुरू करते हुए खुद को दुनिया के हर उस पत्रकार की प्रतिनिधि के रूप में बताया जिसे ”अपना खूंटा थामे रखने के लिए, अपने मूल्‍यों और मिशन के प्रति सच्‍चा बने रहने के लिए, आपके सामने सच को लाने के लिए और सत्‍ता को जवाबदेह ठहराने के लिए बहुत कुछ त्‍याग करना पड़ता है।

उन्‍होंने कहा:

मुझे याद है जमाल खशोगी की बर्बर हत्‍या, माल्‍टा में दाफ्ने कारुआना गलीजि़या और वेनेजुएला में लुज़ मेली रेयेस की हत्‍या, बेलारुस में रोमन प्रोतासेविच की हत्‍या (जिनका प्‍लेन बाकायदे हाइजैक कर लिया गया था ताकि उन्‍हें गिरफ्तार किया जा सके), हांगकांग की जेल में सड़ रहे जिमी लाइ और सॉनी स्‍वे, जिन्‍होंने सात साल जेल की सज़ा काटने के बाद एक नया समाचार समूह खड़ा किया और अब उन्‍हें म्‍यांमार छोड़ कर जाने को बाध्‍य किया गया है। मेरे अपने देश में 23 साल के फ्रेंची मे कम्पियो दो साल बाद भी आज जेल में हैं और केवल 36 घंटे पहले सूचना मिली है कि मेरी पूर्व सहकर्मी जेस मेलाबान को गोली मार दी गयी।    

मारिया की ही तरह रूसी अखबार नोवाया गजेटा के सम्‍पादक दिमित्री मुरातोव ने भी यह सम्‍मान अपने उन पत्रकारों को समर्पित किया जो जंग को कवर करते हुए मारे गए हैं। इस पुरस्‍कार की घोषणा का दिन दो संयोगों से घिरा हुआ था- पहला, नोवाया गजेटा की स्‍टाफ रहीं अन्‍ना पोलित्कोव्सकाया की हत्‍या की यह सोलहवीं बरसी थी और दूसरे, उनकी हत्‍या की जांच में राज्‍य की ओर से दंड की समयसीमा 7 अक्‍टूबर, 2021 को समाप्‍त हो गयी। आज तक पता नहीं चला कि अन्‍ना की हत्‍या किसने की और करवायी थी, हालांकि उनके साथियों और दुनिया भर के पत्रकारों का मानना है कि उनकी लिखी आखिरी स्‍टोरी हत्‍या का कारण बनी। यह स्‍टोरी अधूरी थी कि उन्‍हें मार दिया गया।

1999 से लगातार चेचन्या के मुद्दे पर पुतिन सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों की सबसे प्रखर आलोचक रहीं पत्रकार अन्ना पोलित्कोव्सकाया की हत्या 7 अक्टूबर 2006 को भाड़े के कुछ हत्यारों ने मॉस्को में कर दी थी। इससे पहले कुछ वर्षों के दौरान रूसी खुफिया एजेंसी ने उनकी जान पर कई हमले करवाये थे। उनकी हत्‍या के पीछे का राज़ उनके आखिरी और अधूरा लेख में छुपा था जो 10 अक्टूबर, 2006 को नोवाया गजेटा में प्रकाशित होने को था। ‘दी इंडिपेन्डेन्ट’ ने इसे 14 अक्टूबर 2006 को प्रकाशित किया।

नोवाया गजेटा ने इस स्‍टोरी में उठाये गए मामले की पड़ताल करने का संकल्प लिया था। आतंकवाद के नाम पर दुनिया भर में बीते दो दशक से चलाये जा रहे राजकीय आतंकवाद की निशानदेही अन्‍ना की उस स्‍टोरी में की जा सकती है, हालांकि 2006 से लेकर अब तक ऐसी कहानियां भारत में भी आम हो चुकी हैं जिसकी कीमत पत्रकारों को रोज़ चुकानी पड़ रही है।

नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा के दिन नोवाया गजेटा की स्‍टाफ रहीं अन्‍ना पोलित्कोव्सकाया की हत्‍या की सोलहवीं बरसी थी

भारतीय परिदृश्‍य

अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा जारी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2021 में भारत 142वें स्थान पर है। वर्ष 2016 से भारत की रैंकिंग में जो गिरावट प्रारंभ हुई थी वह अब तक जारी है। तब हम 133वें स्थान पर थे। आरएसएफ के विशेषज्ञों ने भारत के प्रदर्शन के विषय में अपनी टिप्पणी को जो शीर्षक दिया है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है- “मोदी टाइटेन्स हिज ग्रिप ऑन द मीडिया“।

आरएसएफ की पूरी टिप्‍पणी पढ़े जाने लायक है:

वर्ष 2020 में अपने कार्य को लेकर चार पत्रकारों की हत्या के साथ भारत अपना काम सही रूप से करने का प्रयास कर रहे पत्रकारों हेतु विश्व में सबसे खतरनाक मुल्कों में से एक है। इन्हें हर प्रकार के आक्रमण का सामना करना पड़ा है- संवाददाताओं के साथ पुलिस की हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ मुठभेड़ एवं आपराधिक समूहों तथा स्थानीय भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारियों द्वारा प्रेरित प्रतिशोधात्मक कार्रवाई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी को 2019 के वसंत में हुए आम चुनावों में मिली भारी सफलता के बाद से ही मीडिया पर हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार की विचारधारा एवं नीतियों का अनुसरण करने हेतु दबाव बढ़ा है। उग्र दक्षिणपंथी हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली हिंदुत्व की विचारधारा का समर्थन करने वाले भारतीय अब कथित राष्ट्रविरोधी चिंतन की हर अभिव्यक्ति को सार्वजनिक विमर्श से हटाने की चेष्टा कर रहे हैं। हिंदुत्व के समर्थकों में खीझ पैदा करने वाले विषयों पर लिखने और बोलने का साहस करने वाले पत्रकारों के विरुद्ध सोशल मीडिया पर चलाई जा रही समन्वित विद्वेषपूर्ण अभियाप डरावने हैं और इनमें सम्बंधित पत्रकारों की हत्या करने तक का आह्वान किया जाता है। विशेषकर तब जब इन अभियानों का निशाना महिलाएं होती हैं,  इनका स्वरूप हिंसक हो जाता है। सत्ताधीशों की आलोचना करने वाले पत्रकारों का मुँह बन्द रखने के लिए उन पर आपराधिक मुकदमे कायम किए जाते हैं, कुछ अभियोजक दंड संहिता के सेक्शन 124ए का उपयोग करते हैं जिसके अधीन राजद्रोह के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान है। वर्ष 2020 में सरकार ने कोरोना वायरस के संकट का लाभ उठाकर समाचारों की कवरेज पर अपने नियंत्रण को मजबूत किया और सरकारी पक्ष से भिन्नता रखने वाली सूचनाएं प्रसारित करने वाले पत्रकारों पर मुकदमे कायम किए। कश्मीर में स्थिति अब भी चिंताजनक है जहां पत्रकारों को प्रायः पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा प्रताड़ित किया जाता है, पत्रकारों को समाचारों की विषयवस्तु के संबंध में ऑर्वेलियन कंटेंट रेगुलेशन्स (सरकार द्वारा जनजीवन के प्रत्येक पक्ष पर अपना नियंत्रण सुनिश्चित करने हेतु निर्मित नियम) का पालन करने को मजबूर किया जाता है और जहां मीडिया आउटलेट्स का बन्द होना तय है, जैसा कि घाटी के प्रमुख समाचारपत्र कश्मीर टाइम्स के साथ हुआ।

RSF

भारत इस सूचकांक में ‘बैड केटेगरी’ में है क्‍योंकि वह आरएसएफ द्वारा प्रयुक्त चारों पैमानों पर खरा नहीं उतरा- बहुलतावाद, मीडिया की स्वतंत्रता, कानूनी ढांचे की गुणवत्ता और पत्रकारों की सुरक्षा। भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी नेपाल (106), श्रीलंका (127), म्यांमार (140, सैन्य विद्रोह के पहले की स्थिति) प्रेस की स्वतंत्रता के विषय में हमसे बेहतर कर रहे हैं जबकि पाकिस्तान में हालात हमसे थोड़े खराब हैं वह 145वें और बांग्लादेश कुछ और गिरावट के साथ 152वें स्थान पर है।

इससे पहले मार्च 2021 में अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडमहाउस ने भारत का दर्जा स्वतंत्र से घटाकर आंशिक स्वतंत्र कर दिया था। फ्रीडमहाउस के अनुसार जब से नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं तब से राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतन्त्रता में गिरावट आई है और यह गिरावट 2019 में मोदी के दुबारा चुने जाने के बाद और तेज हुई है। दिसंबर 2020 में अमेरिका के कैटो इंस्टीट्यूट और कनाडा के फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा जारी ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स 2020 में भारत 162 देशों में 111वें स्थान पर रहा। वर्ष 2019 में भारत 94वें स्थान पर था। स्वीडन के वी-डेम इंस्टीट्यूट ने 22 मार्च 2021 को जारी डेमोक्रेसी रिपोर्ट में भारत के दर्जे को डेमोक्रेसी से इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी (चुनावी एकाधिकार) में तब्दील कर दिया था।

यह संयोग नहीं है कि भारत की सर्वोच्‍च अदालत ने पेगासस जासूसी प्रकरण में सरकारी रवैये की कड़ी भर्त्सना करते हुए पिछले दिनों जॉर्ज ऑरवेल का उद्धरण देते हुए कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार को कुछ भी ऊटपटांग काम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। उसने सरकार के इस सुझाव को भी रद्द कर दिया कि इस मामले की जांच विशेषज्ञों के एक दल से करवायी जाए। विशेषज्ञों को तो कोई भी सरकार प्रभावित कर सकती है, इसीलिए अब एक सेवानिवृत्‍त न्यायाधीश इस मामले की जांच कर रहे हैं। यह अदालती टिप्‍पणी लोकतंत्र के चुनावी एकाधिकारवाद में बदलने की ओर एक अहम संकेत थी।

पेगासस का मामला सामने आने से पहले भारत सरकार फरवरी 2021 के अंतिम सप्ताह में सोशल-मीडिया कंपनियों पर लगाम कसने के लिए एक कड़ा नियमन लेकर आयी थी। इसे “सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्‍थानों के लिए दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021” का नाम दिया गया है। कहा गया कि जिन कंपनियों की नकेल कसने में यूरोपीय देशों को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं, उसे भारत की मौजूदा मजबूत सरकार ने आखिरकार झुकने के लिए मजबूर कर दिया। वस्तुत: ये नियम मध्यवर्ती प्लेटफार्मों पर नकेल कसने से अधिक जनता को भयभीत करने, सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर बुनियादी सवाल उठाने वालों को काबू में रखने के लिए हैं। इससे बहुसंख्यक भारतीय जनता को जो भी और जैसी भी अभिव्यक्ति की आजादी अब तक प्राप्त थी, वह भी अनेक रूपों में बाधित होगी।

इसके तात्‍कालिक प्रभाव हालांकि बीते साल कुछ मीडिया प्रतिष्‍ठानों पर पड़े छापे के रूप में देखने को मिले। दिल्‍ली स्थित न्‍यूजक्लिक, कारवां और न्‍यूजलॉन्‍ड्री के दफ्तरों पर 2021 में एक नहीं दो-दो बार पड़े छापे इस बात का सबूत रहे कि सरकार अब स्‍वतंत्र आवाज़ों को बरदाश्‍त नहीं करेगी।  

जितना दमन, उतनी मजबूत आवाज़

मारिया रेसा ने अपने नोबेल अभिभाषण में एक बहुत महत्‍वपूर्ण बात कही थी:

पत्रकारिता के लिए मेरे ऊपर जितने भी हमले हुए मैं उतना ही मजबूत होती चली गयी। सत्‍ता के दुरुपयोग का मैं प्रत्‍यक्ष अनुभव ले चुकी हूं। मुझे और रैपलर को धमकाने के लिए जो किया गया उसने हमें मजबूती ही बख्‍शी है।

यह दिलचस्‍प है कि भारत और समूचे एशिया में पत्रकारों को जितना दबाया गया, वे उतना ही मुखर होकर निकले। दिल्‍ली में न्‍यूजलॉन्‍ड्री पर पड़े छापे के बाद संस्‍थान का जो आधिकारिक बयान आया वह बहुत प्रेरक था। संस्‍थान के प्रमुख अभिनंदन सेखरी ने लिखा:

हम जनहित की पत्रकारिता करते रहेंगे क्‍योंकि यही हमारे होने का आधार है। हमें उन लोगों से सहयोग मिलता है जो जनहित की खबरों का मूल्‍य समझते हैं न कि सरकार या कॉरपोरेट विज्ञापनों या जनसंपर्क से आने वाली खबरों का, इसीलिए वे न्‍यूज़लॉन्‍ड्री को सचेत रूप से सब्‍सक्राइब करते हैं। हमने जिस मॉडल को चुना है और साधा है, उस पर हमें गर्व है… मुझे अपनी टीम पर गर्व है और मैं अपने शानदार साथियों का हमेशा आभारी रहूंगा, खासकर उन कुछ युवतर साथियों का जिन्‍होंने तमाम मुश्किलों के बावजूद वह करना चुना है जो वे कर रहे हैं- उन सभी का शुक्रिया। हम डटे रहेंगे। आप भी जानते हैं कि हम क्‍यों साफ-सुथरे हैं- न्‍यूज़लॉन्‍ड्री मतलब सबकी धुलाई।

यह कोई गर्वोक्ति या दुस्‍साहस नहीं बल्कि अपने काम के प्रति प्रेम और आत्‍मसम्‍मान से उपजा विश्‍वास है। यही विश्‍वास हमें न्‍यूजक्लिक के सितम्‍बर 2021 में पड़े छापे के बाद जारी बयान में मिलता है:

हम डरने वाले नहीं हैं। हम अपना काम करते रहेंगे और सत्‍ता के मुंह पर सच बोलते रहेंगे।

इस साहस का सबसे आश्‍वस्‍तकारी मुज़ाहिरा हमें म्‍यांमार में मिलता है जहां अप्रैल 2021 के पहले सप्‍ताह में पत्रकार थिन थिन आंग को गिरफ्तार किया गया था और उस दिन बाद तक उनके ठिकाने का पता नहीं चल सका था। भारत में लोकतंत्र और मानवाधिकारों की समर्थक महिलाओं के एक व्‍यापक समूह ने थिन थिन आंग को रिहा करने के लिए एक बयान जारी किया था। दुनिया भर से थिन थिन आंग के समर्थन में आवाजें उठी हैं। थिन थिन आंग की गिरफ्तारी का महत्‍व इस बात से पता चलता है कि नोबेल विमेन्‍स इनीशिएटिव से लेकर कोलीशन फॉर विमेन इन जर्नलिज्‍म ने आंग की राजकीय गिरफ्तारी पर चिंताजनक बयान जारी किए हैं। इधर भारत में केवल ऑल मणिपुर श्रमजीवी पत्रकार यूनियन ने म्‍यांमार के उन तीन पत्रकारों पर बयान जारी किया जो अपना देश छोड़कर मोरेह में आकर शरण लिए हुए हैं। ये तीनों पत्रकार सो मिंट और थिन थिन आंग के समाचार प्रतिष्‍ठान मिज्जिमा न्‍यूज़ के लिए काम करते हैं। यूनियन ने हालांकि अपने बयान में आंग की गिरफ्तारी पर कुछ नहीं कहा।

थिन थिन आंग और सो मिंट की कहानी तानाशाहियों के बीच जनपक्षधर सा‍हसिक पत्रकारिता का एक चमकता हुआ अध्‍याय है जो आज इतिहास के सुनहरे पन्‍नों में दर्ज हो चुका है। इनके द्वारा निर्वासन के दौर में दिल्‍ली में रह के शुरू की गयी संस्‍था मिज्जिमा डॉट कॉम के पत्रकार अपनी जान जोखिम में डाल कर म्‍यांमार में पत्रकारिता कर रहे थे। 8 अप्रैल 2021 को थिन थिन आंग की गुमशुदगी की खबर सामने आती है। शुरुआत में उनके साथियों को लगा कि आंग भूमिगत हो गयी हैं लेकिन कुछ घंटे बाद ही पता चला कि उन्‍हें बाकायदे गिरफ्तार कर के ये की ईंग इंटेरोगेशन सेंटर में रखा गया है। अगले दिन पुलिस ने आंग के घर पर छापा मारकर तमाम सामान जब्‍त कर लिए और बीते 15 साल के उनके पत्रकारीय काम को नष्‍ट कर डाला।  

इस पत्रकार युगल की कहानी बहुत दिलचस्‍प और प्रेरक है। सो मिंट के ऊपर भारत में प्‍लेन हाइजैक का एक मुकदमा चला था। मानवाधिकार अधिवक्‍ता नंदिता हक्‍सर ने उनका मुकदमा लड़ा था और फांसी के तख्‍ते से बचाकर, मुकदमे से बरी करवाकर कलकत्‍ता से दिल्‍ली लेकर उन्‍हें 2003 में आयी थीं। मिंट के ऊपर मुकदमा था प्‍लेन हाइजैक करने का, ताकि म्‍यांमार में सैन्‍य सरकार द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार उल्‍लंघनों की ओर दुनिया का ध्‍यान खींचा जा सके। प्‍लेन हाइजैक करने के लिए मिंट और उनके दोस्‍तों ने केवल एक साबुन और कुछ तारों का इस्‍तेमाल किया था।

घटना 10 नवंबर, 1990 की है। प्‍लेन थाई एयरवेज़ का था जो कलकत्‍ता जा रहा था। अपने साथी क्‍वा ऊ के साथ सो मिंट ने प्‍लेन को फर्जी बम का डर दिखाकर हाइजैक कर लिया। कलकत्‍ता में इन्‍होंने प्‍लेन को लैंड करवाया और वहां पुलिस को अपनी गिरफ्तारी दी। भारत के 30 से ज्‍यादा सांसदों के द्वारा दस्‍तखत किए गए पत्र के बाद इनकी ज़मानत हुई। इनके लिए समर्थन जुटाने में जॉर्ज फर्नांडीज़ और जया जेटली की भूमिका अहम थी। इनकी वकील थीं नंदिता हक्‍सर, जो लंबे समय से प्रवासी बर्मियों के लिए काम कर रही थीं।

ज़मानत के बाद थिन थिन आंग बीबीसी की बर्मा सेवा के लिए काम करने लगीं। दिल्‍ली में रहने के लिए इन्‍हें शुरुआत में जगह दी थी पुराने समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज ने। उनके सरकारी आवास के पीछे वाले हिस्‍से से मिंट और आंग ने मिज्जिमा न्‍यूज़ नाम का एक नेटवर्क 1998 में शुरू किया था जिसका काम म्‍यांमार की प्रामाणिक खबरें भारत और दक्षिण एशिया तक पहुंचाना था, ताकि वहां हो रहे मानवाधिकार उल्‍लंघनों और प्रेस की आजादी पर हमले की खबरें बाहर आ सकें।  

सो मिंट के ऊपर भारत में प्‍लेन हाइजैक का एक मुकदमा चला था। मानवाधिकार अधिवक्‍ता नंदिता हक्‍सर ने उनका मुकदमा लड़ा था।

मिज्जिमा का श‍ाब्दिक अर्थ होता है मध्‍यमार्ग। सैन्‍य तानाशाही की ओर दुनिया की ध्‍यान खींचने के लिए हवाई जहाज हाइजैक करने जैसी अतिवादी घटना को अंजाम देने वाले सो मिंट अब डायरेक्‍ट ऐक्‍शन से नहीं, पत्रकारिता के माध्‍यम से अपने देश में लोकतंत्र बहाली के लिए लड़ रहे थे। उनकी पत्‍नी इस लड़ाई में बराबर की साझीदार थीं और मिज्जिमा की निदेशक थीं। जैसे-जैसे मिज्जिमा की प्रसिद्धि बढ़ती गयी, म्‍यांमार के सैन्य शासन को उससे दिक्‍कत होने लगी। म्‍यांमार की सरकार ने भारत सरकार पर सो मिंट के मुकदमे को तेज करने का दबाव डाला। मिंट, आंग और उनके साथी गिरफ्तारी के डर से अपनी वकील नंदिता हक्‍सर के यहां आकर रहने लगे। वहीं से मिज्जिमा का दफ्तर चलने लगा।

10 अप्रैल 2002 को बंगाल पुलिस ने मिंट और उनके साथी क्‍या ऊ को दिल्‍ली में गिरफ्तार कर लिया, हालांकि उनकी ज़मानत जल्‍द ही हो गयी। इसी के बाद नंदिता हक्‍सर और मिंट ने मिलका मिज्जिमा की रिपोर्टों का संकलन कर के एक किताब तैयार की, प्रकाशित की और दिल्‍ली में इसका लोकार्पण हुआ। इस पुस्‍तक की भूमिका तत्‍कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज ने लिखी थी। इसी कार्यक्रम में मिंट मंच से रो पड़े थे।

जुलाई 2003 में केस से बरी होने के बाद मिंट और आंग दोनों ने मिलकर मिज्जिमा को खूब आगे बढ़ाया। समय के साथ म्‍यांमार में सैन्‍य तानाशाही की पकड़ ढीली होती गयी। इस बीच अगले कोई दस साल तक मिंट और आंग म्‍यांमार से आने वाले शरणार्थियों का पहला संपर्क बने रहे। यहां तक कि 2007 के भिक्षु विद्रोह में अकेले मिंट और आंग थे जिन्‍होंने भारतीय पत्रकारों के लिए इकलौते संपर्क सूत्र का काम किया।

मिंट, थिन थिन आंग और उनके साथियों के अथक परिश्रम का परिणाम रहा कि संयुक्‍त राष्‍ट्र सहित अंतरराष्‍ट्रीय मंचों पर म्‍यांमार के सैन्‍य शासन की बर्बरताओं की रिपोर्ट पहुंच सकी और अंतत: वहां चुनाव हुए और लोकतंत्र की बहाली हो सकी। यह अकेले लोकतंत्र और बर्मा के लोगों की जीत नहीं थी, यह सो मिंट, थिन थिन आंग, भारत में रह रहे निर्वासित सरकार के लोगों और आम म्‍यांमारियों की जीत थी। इस जीत के बाद आंग और मिंट अपने माता-पिता के साथ 2012 में म्‍यांमार लौट गए। लोकतांत्रिक म्‍यांमार में 2017 में मिज्जिमा को फ्री टु एयर चैनल चलाने का लाइसेंस मिला। 

बमुश्किल छह साल भी नहीं हुआ था मिज्जिमा को बर्मा से चलाते हुए कि 2018 की 24 अगस्‍त को प्रसार भारती ने मिज्जिमा के साथ समाचार साझा करने का एक अनुबंध किया। आंग और मिंट की जिंदगी में इससे बड़ा कोई क्षण नहीं हो सकता था। जिस देश में निर्वासित रह कर उन्‍होंने बरसाती से एक समाचार संस्‍था शुरू की, पीसीओ और फैक्‍स से खबरें मंगवाकर उसे पाला पोसा, मुकदमा झेला, जेल रहे, उसी देश की सरकार उनके साथ करार कर रही थी। इससे बड़ा पुरस्‍कार और क्‍या हो सकता था, लेकिन अभी और पुरस्‍कार बाकी थे।         

यह पुरस्‍कार था पत्रकारिता के माध्‍यम से लोकतंत्र के लिए की गयी निर्वासित लड़ाई का दंड भुगतना। फरवरी 2021 यानी कुल तीन दशक के बाद समय का पहिया उलटा घूम गया। म्‍यांमार में सैन्‍य तख्‍तापलट हो गया। सू की को गिरफ्तार कर लिया गया। मिज्जिमा पर छापा पड़ा और थिन थिन आंग को गिरफ्तार कर लिया गया। 

नंदिता हक्‍सर ने सो मिंट को उदधृत करते हुए स्‍क्रोल पर (20 मार्च, 2021) लिखा था:

मिंट कहते हैं कि उन्‍हें अहसास हुआ है कि लिखना ज़रूरी है लेकिन सुनना उससे ज्‍यादा जरूरी है। लोगों ने यदि उनका कहा नहीं सुना होता तो उन्‍हें वह एकजुटता और सहयोग नहीं मिल पाता जो भारत में निर्वासन के दौरान हासिल हुआ।

एशिया में दमन के नये नुस्‍खे

इन साहसिक गाथाओं के बीच सत्‍ताओं के दमन और झूठ का सिलसिला बदस्‍तूर जारी है। 2021 बीतते-बीतते भारत की संसद में आधिकारिक कार्यवाहियों को कवर करने पर पाबंदी लगा दी गयी। इसके खिलाफ प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया और अन्‍य संस्‍थाओं ने एक साझा पत्र लोकसभा और राज्‍यसभा के स्‍पीकर को लिखकर भेजा लेकिन उसका आखिरी सूचना तक कोई जवाब नहीं आया था।

इसका सबसे बुरा असर क्षेत्रीय प्रकाशनों पर पड़ा है। इनके पत्रकार अब प्रेस गैलरी, सेंट्रल हॉल और कार्यकारी हिस्‍से में नहीं जा सकेंगे और सांसदों से संवाद नहीं कर सकेंगे। इसकी छूट केवल कुछ ही हिंदी और अंग्रेजी के चुनिंदा पत्रकारों को दी गयी है। बाकी के लिए हफ्ते में दो दिन इसके लिए तय किया गया है और उसका फैसला लॉटरी से होगा। इसके खिलाफ पत्रकारों ने दिल्‍ली में पदयात्रा भी की लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी है।

ऐसी ही हरकतों के चलते दुनिया भर में प्रेस की आजादी के सूचकांक में जो गिरावट भारत की दर्ज की गयी है, नरेंद्र मोदी की सरकार उसे मानने को भी तैयार नहीं है। 180 देशों की सूची में 142वें स्‍थान पर भारत को आरएसएफ की पेस आजादी सूची में रखे जाने पर पूछे गए एक लिखित सवाल के जवाब में 21 दिसंबर 2021 को सूचना व प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने सर्वे करने वाली संस्‍था की प्रविधि को ही अपारदर्शी और सवालिया ठहरा दिया।

संसद के इसी सत्र में अनुराग ठाकुर से त्रिपुरा में मीडियाकर्मियों सहित कुल 102 व्‍यक्तियों पर यूएपीए की धाराओं में मुकदमा थोपे जाने से जुड़ा सवाल किया गया। उन्‍होंने संविधान की सातवीं अनुसूची का हवाला देते हुए राज्‍य सरकार को इसके लिए जिम्‍मेदार ठहरा दिया। विडम्‍बना दिलचस्‍प है कि केंद्र और राज्‍य दोनों में ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार है।

यूएपीए की ही तरह हांगकांग में जब से राष्‍ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किया गया है वहां मीडिया की आज़ादी का लगातार गला घोंटने की कवायद चालू है।

हाल की कुछ दमनकारी घटनाओं में एक प्रमुख  सूचना ये है कि इकनॉमिस्‍ट पत्रिका की संवाददाता सू लिन वोंग का वीज़ा बिना किसी कारण के नवीनीकृत नहीं किया गया है। इससे पहले अगस्‍त में हांगकांग फ्री प्रेस के नये संपादक आरोन निकोलस को बिना किसी कारण के कार्य वीज़ा देने से इनकार कर दिया गया। हांग कांग फ्री प्रेस को वहां मानवाधिकारों और लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों की कवरेज के लिए नोबेल शांति पुरस्‍कार के लिए नामांकित किया गया था। इसी तरह 2020 में शहर के प्रवासन विभाग ने न्‍यूयॉर्क टाइम्‍स के पत्रकार क्रिस बकले को कार्य परमिट जारी नहीं किया गया। उन्‍हें 2012 में चीन से भगा दिया गया था।

हांगकांग में जिस तरह राष्‍ट्रीय सुरक्षा कानून के नाम पर विदेशी पत्रकारों को वीजा नहीं दिया जा रहा है, वही ‘विदेशी’ वाला तर्क भारत सरकार भी आरएसएफ के सूचकांक को नकारने में इस्‍तेमाल कर रही है और अपने यहां घरेलू पत्रकारों को आंतरिक सुरक्षा के नाम पर यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर रही है। दोनों देशों में ‘बाहरी’ का खौफ दिखाकर ‘फेक न्‍यूज़’ को दबाने के नाम पर उत्‍पीड़न और दमन जारी है। दोनों जगह प्रेस का गला घोंटने का मॉडल एक ही है।

प्रेस आजादी सूचकांक में 145वें स्‍थान पर फिसल गए पाकिस्‍तान में पाकिस्‍तान मीडिया डेलपमेंट अथॉरिटी नाम की एक प्रस्‍तावित संस्‍था को लेकर चिंताएं जाहिर की जा रही हैं। आरएसएफ की रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्‍तान में लंबे समय तक पत्रकारिता का परिदृश्‍य काफी जीवंत रहा था लेकिन अंतत: उस ”डीप स्‍टेट” के निशाने पर आ गया है, जिसकी कार्यपालिका पर ठीकठाक पकड़ और नियंत्रण है। खासकर 2018 में इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद से सैन्‍य प्रतिष्‍ठान और डीप स्‍टेट की मीडिया पर पकड़ और मजबूत हुई है। 18 दिसंबर, 2021 को डॉन में प्रकाशित संपादकीय सफोकेटिंग दि प्रेस पाकिस्‍तान में प्रेस की आजादी की स्थि‍ति पर वाजिब रोशनी डालता है।

कुल मिलाकर देखा जाय तो दुनिया भर में एशिया सबसे ज्‍यादा अभिव्‍यक्ति की आजादी के दमन की मार झेल रहा है और उसमें भी दक्षिण एशिया- भारत, पाकिस्‍तान, अफगानिस्‍तान और म्‍यांमार- की स्थिति बदतर है।

कुत्‍ते और कारवां

नोवाया गजेटा के सम्‍पादक दिमित्री मुरातोव ने भी यह सम्‍मान अपने उन पत्रकारों को समर्पित किया जो जंग को कवर करते हुए मारे गए हैं।

ऐसे में फिलीपींस और रूस के पत्रकारों को मिले नोबेल शांति पुरस्‍कार का एक व्‍यापक संदेश यहां की तानाशाही सत्‍ताओं को गया होगा, ऐसा माना जाना चाहिए।  

दिमित्री मोरोतोव ने अपने नोबेल अभिभाषण का अंत जिन शब्‍दों के साथ किया था, अभिव्‍यक्ति पर बंदिशों के इस चौतरफा पसरे अंधेरे में उन शब्‍दों को दुहराना सार्थक होगा:

रूसी, अंग्रेजी और अन्‍य भाषाओं में एक कहावत है- कुत्‍ता भौंके कारवां चुप। इसकी एक व्‍याख्‍या यह हो सकती है कि कारवां के आगे बढ़ने को कुछ भी रोक नहीं सकता। कभी कभार सरकार भी पत्रकारों के बारे में ऐसे ही अपमानजनक तरीके से बोलती है, कि वे भौंकते तो हैं लेकिन कुछ उखाड़ नहीं पाते। हाल ही में मुझे इस कहावत का एक दूसरा मतलब पता चला। वो यह, कि कारवां इसलिए आगे बढ़ पाता है क्‍योंकि कुत्‍ते भौंकते रहते हैं। पहाड़ों और रेगिस्‍तानों में खतरनाक जंगली प्राणियों से कारवां को बचाने का काम कुत्‍ते अपनी गुर्राहट से करते हैं। कारवां तभी आगे बढ़ सकता है जब उसके पीछे कुत्‍ते लगे रहें। हां, हम गुर्राते हैं और काटते हैं। बेशक हमारे दांत नुकीले हैं और हमारी पकड़ मजबूत है, लेकिन हम ही तरक्‍की की पूर्वशर्त हैं। हम निरंकुशता की काट हैं।


यह रिपोर्ट समयांतर के जनवरी अंक में प्रकाशित है और वहीं से साभार यहां छापी जा रही है।


About अभिषेक श्रीवास्तव

जनपथ का चौकीदार

View all posts by अभिषेक श्रीवास्तव →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *