28 फीसदी कवरेज वाले ‘आत्मनिर्भर भारत’ में राशन कार्ड होना भुखमरी से बचने की गारंटी नहीं है!


केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें दावा करने से नहीं चूक रही हैं कि गरीबों की थाली भरी हुई है लेकिन हकीकत इसके उलट है। एक रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान देश में 45 लोगों ने भूख से परेशान होकर आत्महत्या की है। बेरोजगारी और आर्थिक नुकसान से होने वाली आत्महत्याओं से अलग, ये वो संख्या है जो दर्ज हुई पर उन मौतों का क्या जो कागजों तक पहुंची ही नहीं?

ऐसे में मोबाइलवाणी ने जमीनी हकीकत जानने की कोशिश की और इस कोशिश को नाम दिया रोजी रोटी अधिकार अभियान। अभियान के तहत बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के गांवों और शहरों में गरीब तबके के परिवारों से उनका हाल जाना। हमें जो पता चला वह उस सरकारी तस्वीर से बिल्कुल अलग है जो दुनिया को दिखायी जा रही है।

क्या कहते हैं आंकड़े?

बिहार की भू​तपुरा पंचायत के मुखिया अनिल कुमार गुप्ता कहते हैं कि गांव में वापस आये प्रवासी मजदूरों के मामले में पहली चुनौती थी उनको काम मुहैया करवाने की और दूसरी गरीबों को राशन देने की, उनके गांव में न तो गरीबों के राशन कार्ड बन पा रहे हैं और न ही जॉब कार्ड। गरीबों को राशन मिलना था पर ऐसा हुआ नहीं। वे कहते हैं, ‘’हमने एमओ और एसडीओ को इस बारे में बताया है लेकिन हमें वहां से आश्वासन तक नहीं मिला। गांव वालों को हमसे उम्मीद है और हमें सरकार से। अब हम क्‍या करें?”

इस साल मार्च में केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के दौरान जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिये निशुल्क राशन वितरण के संबंध में दिशानिर्देश जारी किये थे। इस घोषणा के बाद बिहार राज्य सरकार ने अप्रैल में एक करोड़ राशनकार्ड धारकों को पांच किलो चावल और एक किलो दाल निशुल्क देने की घोषणा की, लेकिन राज्य में अनाज का वितरण प्रभावकारी नहीं है और यहां खाद्य संकट ने स्वास्थ्य संकट को गहरा कर दिया है।

आत्मनिर्भर भारत पैकेज के आधार पर सरकार ने घोषणा की थी कि मई और जून महीने के लिए कुल आठ करोड़ ऐसे प्रवासी मजदूरों, फंसे हुए लोगों और जरूरतमंदों को भी मुफ्त राशन दिया जाएगा जिनके पास राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) या राज्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत राशन कार्ड नहीं है। 9 जुलाई को उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने एक प्रेस रिलीज जारी की जिसके मुताबिक मई महीने में सिर्फ 2.24 करोड़ और जून महीने में सिर्फ 2.25 करोड़ प्रवासी मजदूरों को ही खाद्यान्न मुहैया कराया गया है। यह संख्या सरकार द्वारा निर्धारित कुल आठ करोड़ लाभार्थियों की तुलना में मात्र 28 फीसदी और 28.12 फीसदी है।

योजना के तहत कुल आठ लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न का आवंटन हुआ है, लेकिन इसमें से राज्यों ने अभी तक 6.39 लाख टन ही खाद्यान्न्न उठाया है। इसमें से 2.32 लाख टन अनाज का ही अभी तक वितरण हुआ है। इसका मतलब है कुल आवंटन की तुलना में सिर्फ 29 फीसदी अनाज का ही वितरण हो पाया है। कम वितरण के कारण अब केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत प्रवासी मजदूरों को राशन देने की समयसीमा को बढ़ाकर 31 अगस्त 2020 तक कर दिया है। तर्क दिया जा रहा है कि योजना के तहत पात्र लाभार्थियों की पहचान न हो पाने के कारण राशन वितरण में देरी हो रही है।

दूसरी ओर प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत भी अप्रैल से लेकर जून तक सभी लाभार्थियों को खाद्यान्न नहीं मिला है। केन्द्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस योजना के तहत जून में 64.42 करोड़ लोगों को ही खाद्यान्न मिला है, जबकि योजना के तहत कुल 80 करोड़ लाभार्थी हैं. यानि जून महीने में कम से कम 15.58 करोड़ लोगों को इस योजना के तहत अतिरिक्त खाद्यान्न नहीं मिला है। इसके अलावा जून महीने में कुल 32.44 लाख टन राशन का वितरण किया गया, जो कुल आवंटन की तुलना में 82 फीसदी है।

क्या महामारी में भी धांधली और घूसखोरी जारी रही?

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से मोबाइलवाणी के समुदायिक रिपोर्टर पन्ना लाल ने गरीब परिवारों से राशन के बारे में पूछा तो वे पलट कर पूछने लगे, ‘’कौन सा राशन? किस काम का ऐसा राशन जो परिवार का पेट ना भर सके?” देवरीबारी गांव की कमली देवी कहती हैं, “परिवार में 5 लोग हैं पर राशन 4 लोगों लायक मिलता है, उसमें भी कई बार तौल में कम सामान ही देते हैं। सामान ज्यादा मांगें तो दुकानदार धमकाते हैं. कहते हैं जो मिल रहा है वो ले लो नहीं तो ये भी बंद कर देंगे”. कमली कहती हैं कि घर में तीन बच्चे हैं तो अब क्या एक बच्चे को भूखा रखें? क्योंकि उसके नाम का राशन सरकार दे नहीं रही?

हकीकत यही है। सरकार ने 4 लोगों के परिवार को आइडियल  मान कर योजना घोषित कर दी, पर परिवार के उन सदस्यों का क्या जो पांचवें नम्बर या उसके बाद आते हैं? गिद्धौर से संजीवन कुमार सिंह कहते हैं कि उनके यहां तो हालात और भी खराब हैं। डीलर साफ तौर पर राशन देने से मना कर रहे हैं। मौरा पंचायत के अंत्योदय कार्डधारियों में से एक उषा देवी कहती हैं कि  गांव में राशन का डीलर है जीवलाल यादव। ‘’उसके पास राशन लेने गये थे, पर उसने हमें भगा दिया। पिछले महीने तक राशन दिया था पर इस महीने से मना कर दिया, कहता है कि तुम लोगों का नाम सूची में नहीं है।“

उसने उनसे कहा कि तुम्हारे मम्मी पापा को मिलेगा राशन अब, तुम लोगों को नहीं। उषा के मां बाप और पति लॉकडाउन के कारण दिल्ली में फंसे हैं, उन्हें भी वहां खाने को नहीं मिल रहा है।

वे कहती हैं, ‘’हमारे पास तो भूख से मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है’’।  

जीविका से भी नहीं मिल रही मदद

बिहार सरकार द्वारा पोषित संस्था बिहार ग्रामीण जीविकोपार्जन मिशन के जरिये अप्रैल में बिहार सरकार ने कहा था कि जीविका कर्मचारी जरूरतमंद लाभार्थियों की पहचान कर उनका राशन कार्ड अपडेट करने या नया बनाने में मदद करेंगी। जीविका ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी कामों को लागू करने वाली महिलाओं के समूह हैं। बिहार में 10 लाख स्वयं सहायता समूह का निर्माण इसने किया है जिसका मतलब है की एक करोड़ परिवारों तक इसका सीधा संपर्क है। अगर आबादी की बात करें तो तक़रीबन 5 करोड़ आबादी को सीधे तौर पर यह सहायता पहुंचा सकती थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्य सचिव दीपक कुमार को 4 मई को ऐसे गरीब परिवारों के राशन कार्ड बनाने को कहा था जिनके पास कार्ड नहीं हैं लेकिन जमीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता।

बिहार में 2017 से तकरीबन 15 लाख राशन कार्ड के आवेदन आरटीपीएस काउन्टर के माध्यम से सरकार को प्राप्त हुए थे जिसे सरकार के आदेश के अनुसार फ़ौरन कार्ड जारी किया जाना था और राशन वि‍तरण सुनिश्चित करना था। मुजफ्फरपुर की कुछ ग्रामीण महिलाएं बताती हैं, ‘’जीविका दीदी को राशन कार्ड बनाने के लिए उन्‍होंने सब कागज दे दिये थे पर अब तक कार्ड नहीं बन पाया है। डीलर कहता है कि कोई सबूत लाओ, तो हमने आधार कार्ड दिखाया पर उसने राशन नहीं दिया। बोलता है मुखिया से लिखवाकर लाओ। मुखिया जी लिखकर देने को तैयार नहीं हैं, अब ऐसे में क्या करें?’’

मधुबनी जिले के करमौली पंचायत के मुखिया बताते हैं कि जीविका के तहत बन रहे राशन कार्ड में पैसे मांगे जा रहे हैं जबकि सरकार तो ये काम फ्री में करवाने की बात कर रही है। गांव के ही लोग शिकायत कर रहे हैं कि जीविका वाले उनसे राशन कार्ड के बदले पैसे मांग रहे हैं। अब जिनको कार्ड चाहिए उनको पैसा देने में दिक्कत नहीं पर जिनके पास पैसे ही नहीं वो क्या करें? मुजफ्फरपुर के आसपास की पंचायतों के मुखिया बताते हैं कि जिन लोगों के पास राशन कार्ड नहीं था उन लोगों को राशन नहीं मिल रहा है। डीलरों से बात करके किसी तरह कुछ व्यवस्था करवा दे रहे हैं पर सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही।

राशन कार्ड है पर राशन नहीं?

क्या हुआ जब नया राशन कार्ड बन गया? मोबाइलवाणी के सर्वेक्षण में पता चला कि बिहार के जमुई जिले में कोई भी ऐसा प्रखंड नहीं जहां 2000 से ज्‍यादा नये राशन कार्ड नहीं बने हों। जुलाई और अगस्त में नये राशन कार्ड का वितरण हुआ, लेकिन इन सभी परिवारों को एक बार भी राशन प्राप्त  नहीं हुआ। सिकंदरा  प्रखंड के भुललो पंचायत के मुखिया फुलेश्वर ठाकुर से जब मोबाइल वाणी के समुदायिक संवाददाता अमित कुमार सविता ने बात की तो उन्होंने बताया कि अधिकारियों के अनुसार अनाज का आवंटन सरकार की ओर से नहीं होने के कारण इन सभी नये कार्डधारकों को राशन नहीं मिला है।

जमुई जिले के खैरा प्रखंड में हरनी गांव की रहने वाली विधवा रेखा देवी बताती हैं कि उनके घर में कोई कमाने वाला नहीं है। रेखा देवी पर पांच बच्चों की जिम्मेदारी है। गांव में मनरेगा के तहत कभी-कभार काम  मिल जाता है। मुखिया नगद पैसे  दे देता है तो बच्चों को खाना खिला देती हैं। उनका नया राशन कार्ड बना है पर डीलर कहता है कि नये कार्ड पर राशन नहीं दिया जाएगा। उन्‍होंने जब पूछा कि सरकार तो बोल रही है कि सबको राशन मिलेगा, तो उसने कहा कि सरकार के कहने से क्या होता है? रेखा अकेली नहीं हैं। नके जैसी कई महिलाएं अकेली हैं और उनके सामने बच्चों को पेटभर भोजन कराने का संकट है।

हरनी गांव की ही काजल देवी कहती हैं कि उनकी भी यही समस्‍या है। डीलर बोलता है कि इस कार्ड पर अगले साल जनवरी से राशन देंगे। काजल पूछती हैं, ‘’तब तक बच्चों को क्या खिलाएं? खुद क्या खाएं?”

मध्यप्रदेश में भी सरकार ने सभी गरीबों को राशन देने की घोषणा की है, चाहे उसके पास राशन कार्ड हो या नहीं, लेकिन यहां भी राशन वितरण की अनियमितताओं की कई शिकायतें हैं। भोजन के अधिकार अभियान से जुड़े सचिन जैन बताते हैं कि रीवा जिले में बौसड़ स्थित राशन दुकान के सेल्समैन ने गांव-गांव जाकर राशनकार्डधारी लोगों का बायोमेट्रिक ले लिया और कहा कि कोरोना के कारण लॉकडाउन में तीन महीने का राशन मिलना है, इसलिए वह रिकॉर्ड के लिए ग्रामीणों से पहले ही बायोमेट्रिक पहचान ले रहा है। दो दिन बाद से वह कहने लगा कि राशन ही नहीं आया है। बाद में पता चला कि वहां राशन गया था, लेकिन वितरण नहीं किया गया और 352 परिवारों के तीन महीने का लगभग 200 क्विंटल राशन बेच दिया गया। अब इस मामले में जांच बैठा दी गयी है।

भ्रष्टाचार के नए आयाम

मध्यप्रदेश में राशन की घपलेबाजी कोई नयी नहीं है। 5 दिसंबर 2017 को भी भोपाल में राशन का एक बड़ा घोटाला सामने आया था। भोपाल की करोंद मंडी में 1562 बोरियों में 781 क्विंटल गेहूं और 144 क्विंटल चावल जब्त किया गया था। यह राशन भोपाल में शारीरिक रूप से विकलांग, आश्रय घरों और मदरसों के लिए आवंटित किया गया था। इसे खुले बाजार में बेचने के लिए व्यापारियों और ट्रांसपोर्टर ने नागरिक आपूर्ति निगम के अधिकारियों और मदरसा के प्रबंधन के साथ मिलकर साजिश रची थी। जुलाई 2016 में भोपाल में भारी बारिश से निचली बस्तियों में बाढ़ आने के कारण पीड़ितों को वितरित किये गये गेहूं में मिट्टी मिली हुई थी। जांच रिपोर्ट में पता चला कि 50-50 किलो गेहूं के बोरे में 12 किलो तक मिट्टी मिलायी गयी थी।

जुलाई में अलायंस फॉर दलित राइट्स ने बिहार के 14 जिलों के 1400 दलित और आदिवासी परिवारों का सर्वेक्षण किया था ताकि पता लगाया जा सके कि लॉकडाउन का इन परिवारों की आर्थिक क्षमता पर क्या असर पड़ा है! उनकी रिपोर्ट से पता चलता है कि ग्रामीण बिहार में इन समुदायों को खाद्यान्न की कमी हो रही है! रिपोर्ट में लिखा है, “इन लोगों की बड़ी संख्या को उन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है जिनसे जारी संकट से पार पाने में इन्हें मदद मिल सकती थी!” रिपोर्ट में आगे लिखा है कि सर्वे किये गये परिवारों में से केवल दो फीसदी ऐसे परिवार थे जो लॉकडाउन की घोषणा के दिन खाद्य दृष्टि से सुरक्षित थे और जिनके पास एक साल का अनाज उपलब्ध था! 49.4 फीसदी के पास केवल कुछ दिनों का अनाज और 14.5 फीसदी लोगों के पास बिल्कुल अनाज नहीं था!

यानि अरबों के पैकेज की घोषणा करने के बाद भी गरीब की थाली में कुछ नहीं पहुंच रहा है। नेता-मंत्री अब राजनीति में व्यस्त हैं और मुख्यधारा का मीडिया उनकी चाटुकारिता में जबकि बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के दलितों की एक बड़ी आबादी आर्थिक तनाव, कठिनाई, भूख और भुखमरी का सामना कर रही है।

माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 15 मई 2016 को दिये एक आदेश के अनुसार सुखाड़ या किसी भी प्राकृतिक आपदा प्रभावित क्षेत्र में किसी भी नागरिक को खाद्य सुरक्षा कानून के आलोक में राशन देने से केवल इसलिए इनकार नहीं किया जा सकता कि उसके पास राशन कार्ड नहीं था। इस आदेश के अनुसार राज्य सरकार द्वारा जारी किसी भी पहचान पत्र के माध्यम से नागरिक राशन पाने का हक़दार है। यही मांग रोज़ी रोटी अधिकार अभियान और विकासपरक अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज भी करते रहे हैं। यहां इस फैसले का सन्दर्भ देना इसलिए जरूरी है क्योंकि लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद भी लोगों को राशन कार्ड होने और न होने दोनों की स्थिति में राशन नहीं मिल रहा है।


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