नाकाम मनरेगा और भूखे मजदूरों से बनेगा आत्मनिर्भर भारत? लॉकडाउन में चार राज्यों का एक सर्वे


साल 2015… संसद सत्र चल रहा था… देश के तत्कालीन और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सदन को संबोधित करते हुए कहते हैं- “मेरी राजनैतिक सूझबूझ कहती है, मनरेगा कभी बंद मत करो. मैं ऐसी गलती कभी नहीं कर सकता क्योंकि मनरेगा आपकी (कांग्रेस सरकारों की) विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है. आज़ादी के 60 साल बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा. यह आपकी विफलताओं का स्मारक है. मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा. दुनिया को बताऊंगा, ये गड्ढे जो तुम खोद रहे हो, ये 60 सालों के पापों का परिणाम हैं. मेरी राजनैतिक सूझबूझ पर आप शक मत कीजिए… मनरेगा रहेगा, आन-बान-शान के साथ रहेगा, और गाजे-बाजे के साथ दुनिया में बताया जाएगा”.

यह तंज जो उस समय विपक्ष पर फेंका गया था सही मायनों में केन्द्र सरकार को आज इसी का सहारा है. नाकामियों का यह स्मारक ही इन दिनों देश में लाखों मजदूरों की उम्मीद है कि आज नहीं तो कल ठीक हो जाएगा.

इस बार केन्द्रीय बजट में सरकार ने मनरेगा को 61 हजार करोड़ रुपए आवंटित किये थे. कोरोना संकट को लेकर सरकार के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में से मनरेगा को 40 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त मिले. इस तरह मनरेगा को एक लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा का बजट मिला है. कोरोना काल में केवल बिहार में सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 30 लाख से अधिक मजदूर घर वापस लौटे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में तो योगी सरकार ने अखबारी विज्ञापन में खुद माना है कि उनके राज्य में 38 लाख मजदूर घर वापस लौटे हैं जो देश के अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे थे।

कोरोना वायरस से देश में लगे पूर्ण लॉकडाउन के ख़त्म होने के बाद मोबाइलवाणी ने बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश की 18 पंचायतों का रोज़ी रोटी अधिकार अभियान के तहत जमीनी सर्वे किया. तो हकीकत की परतें उघड़ना शुरू हुईं. जिनके बारे में आपको भी जानना चाहिए.

सरकार के जादुई आँकड़े

हम आपको जमीनी हकीकत तक लेकर जाएं, इसके पहले जरा सरकार के उन जादुई आंकड़ों को देख लेते हैं जिन्हें दिखाकर लोगों को यह बताया जा रहा है कि सब कुछ कंट्रोल में है. भारत सरकार ने ई-मस्टर रोल में दर्ज संभावित कार्यशील मज़दूरों की संख्या छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा बतायी है. छत्तीसगढ़ ने 1 करोड़ 89 लाख मानव दिवस का रिकार्ड क़ायम किया है. सरकार का दावा है कि कोरोना के कारण मार्च के बाद से लागू लॉकडाउन के बीच जब से रोज़गार गारंटी का काम शुरू हुआ है, तब से गांवों में कामकाज ज़ोरों पर है. कहीं तालाब खुद रहे हैं तो कहीं तालाबों को गहरा करने का काम चल रहा है. कहीं खेतों का सुधार हो रहा है तो कहीं लोग सड़कों के काम में जुटे हुए हैं.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत आवंटित फंड का लगभग 50 फीसदी हिस्सा खर्च किया जा चुका है, जबकि इस वित्त वर्ष के अभी चार महीने ही बीते हैं. सरकारी आंकड़े दर्शाते हैं कि इसमें से 48,500 करोड़ रुपये से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है. मनरेगा कानून कहता है कि जितनी मांग होगी, सरकार को उतने लोगों को रोजगार देना होगा. इसलिए जिस पैकेज का ढोल पीटा जा रहा है उसे आर्थिक राहत पैकेज के हिस्से के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

सरकार दावा करती है कि खेती-किसानी पर लॉकडाउन का ज्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन रोजी रोटी अधिकार अभियान के तहत किसानों ने इस दावे को झुठलाया है. 14 साल पुरानी महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत मई में 3.6 करोड़ से अधिक परिवारों ने मनरेगा के तहत काम मांगा और जून में तो काम मांगने के आंकड़े ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. 30 जून तक के आंकड़े बताते हैं कि 4.36 करोड़ से अधिक परिवारों ने काम की मांग की. जून 2020 में सामान्य से लगभग 85 फीसदी अधिक काम की मांग की गयी, जो कि एक रिकॉर्ड है पर असल में यह वह सत्य है जो कागजों में दर्ज नहीं हुआ.

सरकारी कागजों में मनरेगा के तहत केवल 1.20 करोड़ परिवारों ने लॉकडाउन के दौरान काम की मांग की, जो 2013-14 के बाद से लेकर अब तक रिकॉर्ड सबसे कम मांग है.

गांवों तक कितना पहुंचा मनरेगा?

एक लाइन में कहा जाए तो फिलहाल भारी मांग के बावजूद बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश , झारखण्ड और गुजरात में मानसून का हवाला देकर निर्माण कार्यों पर अघोषित सी रोक लगा दी गयी है. ये वे काम हैं जो मनरेगा के तहत किये जाने थे.

मोबाइलवाणी के सर्वे से यह बात साफ हुई है कि कोरोना की मार तो गांव तक ज्यादा नहीं पहुंची लेकिन लॉकडाउन ने यहां के आर्थिक हालातों को काफी नुकसान पहुंचाया है. सिर्फ पाँच फीसद परिवारों को छोड़कर सभी के काम-धंधे पर लॉकडाउन का असर पड़ा और 44 फीसद का काम तो पूरी तरह ठप पड़ गया.

जयपुर से लौटे बिहार के जमुई के स्थानीय निवासी मजदूर बताते हैं कि गांव में मनरेगा के तहत कोई काम ही नहीं हो रहा है. मजदूर बताते हैं कि उनके नाम पर जॉब कार्ड बना है लेकिन गांव में करने के लिए कोई काम ही नहीं है. पंचायत कार्यालय पहुंचो तो मुखिया जी कहते हैं कि अभी गांव में करने लायक कुछ नहीं है. होगा तो बताएंगे. सरकारी योजनाओं का लाभ उन जैसे परिवारों तक पहुंचा ही नहीं. यानि न राशन मिला न दवाएं. कोरोना से लड़ना एक अलग जंग है पर इन मजदूरों के लिए भूख से लड़ना सबसे बड़ी समस्या है.

समस्तीपुर के रोसरा प्रखंड से राम कुमार ने जो बताया वो तो चौंकाने वाला है. राम कुमार प्रवासी मजदूर हैं और लॉकडाउन के बाद से घर में हैं. मोबाइलवाणी के साथ चर्चा में उन्होंने बताया कि जब से गांव आये हैं तब से मुखिया जी से बोल रहे हैं कि काम दिलवा दो. “समाचारों में इतना सुन रहे हैं कि जॉब कार्ड बनाए जा रहे हैं गांव में, पर हमें तो पता भी नहीं कि कैसे बनेगा. गांव के सरपंच से कहा तो बोलते हैं कि हमें नहीं पता जॉब कार्ड कैसे बनाया जाता है? अब जब मुखिया को ही नहीं पता तो फिर कौन मदद करेगा?”

पहले बाजार में काम मिल जाता था पर लॉकडाउन में वो भी बंद है. लोगों से बहुत पूछताछ की तो पता चला कि जॉबकार्ड आनलाइन बन जाता है तो राम कुमार और उसके साथियों ने जाकर जॉबकार्ड बनवा लिया. इसके बाद फिर मुखिया के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा कि अभी गांव में कोई काम नहीं है. राम कुमार कहते हैं कि देश में इतना हल्ला मच रहा है कि रोजगार दे रहे हैं पर कोई गांव आकर तो देखे तो पता चलेगा कि हमें कितना काम मिला!

समस्तीपुर जिले के सरायरंजन प्रखंड के किशनपुर युसूफ पंचायत से शोभा देवी कहती हैं कि उन्हें अब तक कोई काम नहीं मिला, काम मिलने की क्या प्रक्रिया है यह भी नहीं जानती हैं। एक बार शोभा देवी काम के बारे में जानकारी प्राप्त करने वार्ड सदस्य रामकुमार पासवान के पास गयीं तो उनको बताया गया कि जॉब कार्ड लॉकडाउन के बाद बनेगा। यह भी देखा गया कि ऐसे मजदूरों को मनरेगा जॉब कार्ड, काम मांगने की प्रक्रिया के बारे में कुछ जानकारी नहीं है और न ही इन मजदूरों तक कभी कोई पंचायत प्रतिनिधि या रोज़गार सेवक की पहुँच बनी जिससे इन्हें काम मिलने की प्रक्रिया का पता चलता और अंततः काम मिल पाता.

वहीं की राजकुमारी देवी कहती हैं कि वह भी वार्ड सदस्य के पास गयी थीं लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं बताया कि कहां से और कैसे मनरेगा के तहत काम मिलेगा। इन्होंने मुखिया को भी संपर्क किया लेकिन किसी ने भी सही जानकरी नहीं दी कि जॉब कार्ड कैसे बनेगा और काम कैसे मिलेगा. एक अन्य श्रोता किशनपुर युसूफ से सुशील कुमार मोबाइल वाणी से पूछ रहे हैं कि जॉब कार्ड कैसे बनता है यह बताएं ताकि जॉब कार्ड बनवा कर मनरेगा के तहत काम कर सम्मानपूर्ण जिंदगी जी सकें.

मनरेगा मजदूर काम न मिलने की मुख्य समस्या क्या मानते हैं?

अगस्त में मनरेगा मजदूरों के साथ ग्रामवाणी द्वारा संचालित समुदायिक मीडिया चैनल के जरिये एक सर्वेक्षण किया गया जिसमें 94 मजदूर शामिल हुए। इनमें 72 फीसद लोगों ने यह माना कि वे मनरेगा मजदूर रहे हैं लेकिन काम मिलने का सवाल पूछने पर 50 फीसद मजदूरों का कहना है कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान मनरेगा के तहत किसी प्रकार का कोई काम नहीं मिला। इनमें 30.9 फीसद मजदूरों ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान केवल 10 या इससे कम दिन ही काम मिला, बाकी दिन खाली बैठ कर ही गुजरा.

सरकार का दावा है कि सभी मनरेगा मजदूरों को काम के बदले उनकी मजदूरी बैंक खाते में वह हस्तांतरण करती है लेकिन इस सर्वेक्षण में 36.4 फीसद मजदूरों ने कहा कि उन्हें मजदूरी नगद प्राप्त हुई, प्रधान/मुखिया उनसे उनका जॉब कार्ड लेकर बैंक खाता भी खुद अपने पास रखते हैं और उनके बैंक खाते से खुद ही मजदूरी की निकासी करते हैं जिनका इन्हें भी अंदाज़ा नहीं होता कि कितने दिन काम का लेखा जोखा इनके जॉब कार्ड पर चढ़ाया गया और इनके खाते में कितना पैसा आया. आधे से अधिक लोगों ने कहा उन्हें शिकायत कहां करनी है उन्हें नहीं पता।

काम की मांग करने और काम प्राप्त करने में सक्षमता के सवाल पर 44 फीसद मजदूर कहते हैं कि उन्हें काम नहीं मिला क्योंकि वे खुद काम की मांग करने और आवेदन देने में सक्षम नहीं हैं। इनके पंचायत में रोज़गार सेवक की व्यवस्था है। हर बुधवार रोज़गार दिवस पंचायत भवन में लगाने की व्यवस्था की सूचना सरकार से मिली थी लेकिन आजतक इनके पंचायत में कभी रोज़गार दिवस नहीं लगा।

भ्रष्टाचार नयी बात नहीं

मनरेगा में भ्रष्टाचार की खबरें तो तब से आ रही हैं जब से यह योजना धरातल पर उतरी, लेकिन दुख की बात ये है कि लॉकडाउन के दौरान मानवीयता को ज्यादा जगह मिलनी चाहिए थी जो कि नहीं हो पाया. मुंबई में काम बंद होने के बाद हाल ही में झारखंड अपने गांव लौटे गोवर्धन महतो कहते हैं कि मनरेगा कर्मचारी हमें बताते ही नहीं हैं कि सरकार ने कौन सी योजनाएं चालू की हैं. हमें ये ही नहीं पता कि मनरेगा के तहत कहां कितना काम हो रहा है? जब हम बाहर काम कर सकते हैं तो अपने गांव में भी कर सकते हैं पर हमें कोई बताये तो!

जब मोबाइलवाणी संवाददाता मिथिलेश कुमार बर्मन ने गोवर्धन को बताया कि झारखंड सरकार ने गांवों में खेल के मैदान बनाने, नहर निर्माण, मार्ग निर्माण और बागवानी में मनरेगा मजदूरों से काम करवाने के निर्देश दिये हैं, तो गोवर्धन ने यह जानकारी होने से इंकार कर दिया. वो कहते हैं कि मैं अकेला नहीं हूं, यहां बहुत से मजदूर बाहर से आये हैं और किसी को नहीं पता है कि सरकार उनके लिए क्या कर रही है.

बिहार में मणीचा पंचायत के मोरबा प्रखंड में बन रहे रामजानकी ठाकुरबाडी तालाब के जीर्णोद्धार में धांधली का मामला सामने आया है, जिसकी जानकारी मोबाइलवाणी पर ही रिकॉर्ड करवायी गयी. असल में यह तालाब मनरेगा योजना के तहत मजदूरों से बनवाया जाना था. इससे उन्हें काम मिलता और वेतन भी, पर पंचायत और दूसरे आला अधिकारियों की मिलीभगत से इस तालाब का जीर्णोद्धार एक कंपनी से करवाया गया है. काम के बदले सवा लाख रुपये का भुगतान भी हो गया. यह सब उस वक्त हुआ जब गांव में रोजगार का संकट है, लॉकडाउन में लोग भूख से बिलख रहे हैं और किसी भी कीमत पर काम करने को तैयार हैं.

वेतन विसंगति का मसला बाकी है

गांव में ऐसे लोगों का भी बहुत बड़ा प्रतिशत है जो काम की मांग कर रहा है पर उनके पास जॉब कार्ड नहीं है. अगर किसी तरह जॉब कार्ड बन जाए तो गांव में उनके लायक काम नहीं है. पंचायत स्तर से लेकर जिला कार्यालय तक हर जगह से भ्रष्टाचार की खबरें आ रही हैं. मशीनों से काम हो रहा है, मजदूरी देने की बजाय मजदूरों से पैसे मांगे जा रहे हैं. औरतों को कम और मर्दों को काम ज्यादा दिया जा रहा है, पर जो सबसे अहम है वो ये कि मजदूरों को मिलने वाला वेतन बाजार भाव की तुलना में काफी कम है. आपकी जानकारी के बता दें कि बिहार में मनरेगा मजदूरी 192 रुपया है वहीं उत्तर प्रदेश में यह मजदूरी 201 रुपया है, पहले यह 182 रुपया थी.

मध्यप्रदेश के शिवपुरी के रातीकरार से पंचायत सरपंच भरत रावत बताते हैं कि गांव में ऐसे बहुत से जरूरतमंद लोग हैं जिन्हें काम की जरूरत है. हम लोग उन्हें काम भी दे रहे हैं पर दिक्कत ये है कि मजदूरों को मनरेगा में वेतन कम मिलने से परेशानी है. असल में बाजार में मजदूरी 300 रुपए प्रतिदिन है जबकि मनरेगा में 195 रुपए मिलते हैं यानि आधी मजदूरी में काम करना होता है. अगर किसान अपने खेत में भी मजदूर से काम करवाये तो उसे 300 रुपए प्रतिदिन देता है. यही कारण है कि मजदूर अपना गांव छोडकर दूसरे शहर जा रहे हैं. अब जब वो वापिस आ गये हैं तब भी क्या बदला उनके जीवन में?

भरत रावत का सवाल बिल्कुल जायज है और एक ईमानदार उत्तर की तलाश में है. मजदूर अपने घर से दूर थे पर वे बाहर ज्यादा पैसा कमा लेते थे. अब गांव आये हैं तो अव्वल तो काम नहीं और अगर मिल जाए तो वेतन इतना नहीं है कि परिवार पाल लें. अब श्रमिक को कम से कम 20 रुपये प्रतिदिन का औजार भत्ता दिया जाना चाहिए, जैसा कि आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक पहले से दे रहे हैं. महात्मा गांधी का नाम इस योजना से जोड़ा गया, जो सही मायनों में उनके ग्राम स्वराज और स्वावलम्बन के सिद्वान्त को स्थापित करता है. अगर सरकार नामी उद्योगों को पैसा बांटने की बजाय मनरेगा में लगाये तो बिहार, झारखण्ड, छतीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश जहां के गरीब लोग लौटकर आये हैं, उन्हें इस विकट स्थिति में अपने को गांवों में स्थापित करने में कुछ मदद इससे मिल सकेगी.

स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी हमारे प्रधानमंत्री ने लोकल फॉर वोकल और आत्मनिर्भर भारत बनने की ओर इशारा किया। देश में एसएमई और दूसरे उद्योग बंद पड़े हैं. अनुमान है आने वाले दिनों में बेरोज़गारी का संकट और गहराएगा. ऐसे में सवाल उठता है कि जब ग्रामीण मजदूरों को मनरेगा में काम ही नहीं मिल रहा तो क्या हिंदुस्तान भूखे पेट ही आत्मनिर्भर बनेगा?


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