तन मन जन: हमारे शरीर की प्राइवेसी को सरेआम बेचने के प्रोजेक्‍ट का ऐलान हो चुका है!


15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन की घोषणा के बहाने प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का जो ऐलान किया उसे मीडिया देशवासियों के लिए एक बेहतरीन तोहफे के रूप में दिखा रहा है और लोग इस खबर पर झूम रहे हैं। दरअसल, विगत 5-6 वर्षों में भारत की जनता जुमलों और झूठ को सच मानकर आनन्दलोक में जीने की आदी हो चुकी है। समाचार माध्यमों के पतन के बाद आम लोगों के समक्ष जो सबसे बड़ी समस्या खड़ी हुई है वह है सही सूचना और समाचार की। मुख्य समाचार चैनल सरकार की चापलूसी में सूचना और सच से बहुत दूर जा चुके हैं। इस दौर में झूठ को सच मान लेने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग भी तैयार हो चुका है।

थोड़ी गम्भीरता से इस घोषणा पर नजर डालें और विश्व बैंक के पुराने दस्तावेजों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि लगभग डेढ़ दशक पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) एवं विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) ने ‘‘स्वास्थ्य में निवेश’’ की बात कही थी। इन दोनों अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने इसके लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल को अपनाने का सुझाव दिया था। यह सब इस पृष्ठभूमि में था कि डब्लूएचओ ने माना था कि ‘‘अत्यधिक गरीबी एक रोग है।’’ जाहिर है कि दुनिया से गरीबी दूर किए बगैर सबको स्वास्थ्य उपलब्ध करा पाना सम्भव नहीं है। ऐसे में सरकारों को जहां लोगों की गरीबी दूर करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए था, वहां केवल जुमले और झूठ के सहारे लोगों को बेवकूफ बनाया गया।

कोरोना वायरस संक्रमण के इन पांच महीनों में देश की आम जनता ने जो देखा और भुगता उससे साफ है कि सरकार की प्राथमिकता केवल झूठी वाहवाही बटोरने की है। आर्थिक रूप से कंगाल हो चुके औसत लोगों के सामने बदहाल अस्पताल और संवेदनहीन चिकित्सा तंत्र को झेलने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था। सरकार की 20 लाख करोड़ रुपये की कोरोना राहत योजना की रकम कहां गयी आम लोगों को कुछ भी नहीं पता।

अब थोड़ा समझ लें कि यह ‘‘राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य ब्लू प्रिंट’’ क्या है? यह एक वृहद आधार योजना है जिसमें आपके जीवन के सामान्य डाटाबेस के साथ-साथ स्वास्थ्य के जरूरी आंकड़े भी दर्ज होंगे। मसलन, आपकी बीमारी की प्रोफाइल, क्लिनिकल जांच रिपोर्ट, इलाज का विवरण आदि। अब तक आपके स्वास्थ्य और क्लिीनिकल जांच का विवरण डाक्टर की अनुशंसा पर आपके पास हार्ड कॉपी के रूप में होता था। अब यह डिजिटल डेटा के रूप में आपके डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट में दर्ज होगा। यानि आपके शरीर की निजता अब सरेआम होगी। उससे भी ज्यादा, यह डेटा निजी फार्मा, वैक्सीन अथवा बड़ी कम्पनियों के पास होगा। इस डिजिटल हेल्थ प्रोजेक्ट के पीछे बिल गेट्स की कम्पनी तथा अन्य बड़ी कम्पनियां हैं जो लोगों के स्वास्थ्य सम्बन्धी डेटा का प्रबन्धन करेंगी। जाहिर है इस काम के लिए सरकारी अस्पतालों के बजाय निजी अस्पताल अथवा कार्पोरेट की भूमिका ज्यादा अहम होगी और उन्हें अपने बेतुके स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रोडक्ट बेचने में कभी दिक्कत नहीं आएगी क्योंकि उनके पास देश के लोगों का स्वास्थ्य डेटा होगा।

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राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन की संकल्पना कोई देशी संकल्पना नहीं है। विगत कुछ वर्षों से टीकाकरण, पोषण आदि के राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों के बहाने कई अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियां जब दुनिया में अपना बाजार तलाश रही थीं तब ऐसे कई प्रोजेक्ट चर्चा में आये। जैसे राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय पोषण कार्यक्रम, टीकाकरण कार्यक्रम है, वैसे ही बिल गेट्स की कम्पनी ने ‘‘डिजिटल हेल्थ’’ की बात को आगे बढ़ाया और विगत वर्ष 18-19 नवम्बर 2019 को भारत सरकार के केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन तथा नीति आयोग के चेयरमैन डॉ. राजीव कुमार के साथ मीटिंग में एक सहमति बनी और देश में डिजिटल स्वास्थ्य का कार्यक्रम बनाया गया। बाद में नीति आयोग ने एक रिपोर्ट भी जारी की थी जिसका शीर्षक था ‘‘हेल्थ सिस्टम फॉर न्यू इण्डिया’’। इस रिपोर्ट में यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज-2030 की बात है। जाहिर है कि इनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं के एकीकरण, स्वास्थ्य एजेण्डा को पूरा करना, नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बेहतर उपभोक्ता अथवा खरीददार बनाना, हेल्थ केयर का डिजिटलाइजेशन आदि इसके महत्वपूर्ण पहलू हैं।

विडम्‍बना है कि एक ओर जहां पूरी दुनिया कोरोना वायरस संक्रमण की वैक्सीन और दवा के निर्माण में व्यस्त है वहीं भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की पुरजोर तैयारी चल रही है। ‘‘आत्मनिर्भर भारत’’ पैकेज के अन्तिम चरण में भारत सरकार ‘‘राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन’’ का ब्लूप्रिंट बना चुकी है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में खुल कर कहा कि हर क्षेत्र में निजी कम्पनियों को एन्ट्री दी जाएगी। स्पष्ट है कि निजी क्षेत्र की कंपनियों के कंधे पर भारत आत्मनिर्भर बनेगा। जब जुमलों से देश की जनता खुश हो सकती है तो निजीकरण से देश का विकास क्यों नहीं हो सकता?

‘‘नेशनल डिजिटल हेल्थ ब्लूप्रिंट’’ के तहत ऐसी व्यवस्था बनाने की तैयारी है जिसमें मरीजों को पर्सनल हेल्थ आइडेन्टीफायर (पीएचआई) नम्बर दिया जाएगा। इसे ‘‘इन्टर आपरेबल इलेक्ट्रानिक हेल्थ रिकॉर्ड’’ कहा जा रहा है। यह रिकार्ड ‘‘आधार’’ के तर्ज पर व्यक्ति की निजी जानकारी के साथ-साथ स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों का डेटाबेस होगा जिससे डॉक्टर किसी भी मरीज के अतीत, वर्तमान को कभी भी पढ़ सकेंगे। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की इस महत्वाकांक्षी योजना को साकार करने के लिए यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इण्डिया के पूर्व चेयरमैन जे. सत्यनारायण की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन किया गया था। इस कमिटी में स्वास्थ्य मंत्रालय, नीति आयोग, इलेक्ट्रानिक एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, एनआइसी तथा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के डॉक्टर सहित कोई 14 अधिकारी शामिल थे। कमिटी ने स्वास्थ्य मंत्रालय को अपना ब्लूप्रिंट सौंप दिया है।

इसका उद्देश्य सरकार के ‘‘आयुष्मान भारत’’ के बहाने तैयार होने वाले डेटा के प्रबन्धन एवं विश्लेषण की व्यवस्था करना है। एक तरह से यह देश के मरीजों का आधार सहित समस्त रोग विवरण का एकीकृत डाटाबेस होगा। अब सोचने की बात यह है कि इस डाटाबेस से सरकार, कम्पनी एवं विभिन्न एजेन्सियों को तो फायदा होगा मगर मरीज के स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता एवं सुविधा में तब तक सुधार नहीं होगा जब तक सबको स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार के दायरे में नहीं लाया जाता और इसके लिए सरकार की जवाबदेही तय नहीं कर दी जाती।

स्वास्थ्य सेवाओं के डिजिटलाइजेशन से पहले देश में ‘‘सबको सुलभ स्वास्थ्य’’ सुनिश्चित करना जरूरी है। सबको सुलभ स्वास्थ्य के लिए देश की जनता को भोजन, पोषण, शुद्ध पेयजल, रोजगार, स्वास्थ्य परिवेश, साफ हवा आदि की मुकम्मल व्यवस्था करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। जब तक लोगों का पेट नहीं भरेगा तब तक वे स्वास्थ्य की सोच भी नहीं सकते। विगत ढाई दशक के विकास का परिणाम यह है कि गरीब देशों की कतार में भारत का स्थान 49वां है तथा मानव संसाधन विकास के मामले में इसका स्थान 129वां है। जाहिर है कि विगत एक दशक में भारत में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और गहरी हुई है। अमीर बहुत अमीर हुए हैं और करोड़ों लोग गरीबों की जमात में शामिल हुए हैं। भारत विकासशील देश से अविकसित देशों की श्रेणी में आ गया है। याद कीजिए जब 24-25 फरवरी 2020 को अमरीकी राष्ट्रपति भारत यात्रा पर थे तभी भारत को विकासशील देशों की लिस्ट से बाहर कर उसे जी-20 सूची से भी निकाल दिया गया था। भारतीय शासक चाहे जितना भी आत्मप्रशंसा के इन्तजाम करें देश की अन्दरूनी वास्तविक हालत बेहद खराब है। इसे अब पूरी दुनिया जान चुकी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2019 में ‘‘सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज: हर जगह, हर कोई‘‘ का नारा दिया था। इस घोषणा के अनुसार दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी आर्थिक बाधा के समुचित स्वास्थ्य सेवाएं आसानी से प्राप्त कर सके, यह स्पष्ट किया है लेकिन यथार्थ है कि दुनिया की लगभग आधी आबादी आर्थिक रूप से इतनी सक्षम नहीं है कि वह अपनी अच्छी सेहत के लिए समुचित रकम खर्च कर सके। भारत में ही लगभग 80 करोड़ लोग सामान्यतया इस स्थिति में नहीं है कि जरूरत पड़ने पर वे अपना इलाज किसी आधुनिक अस्पताल में जाकर करा सकें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के ही आंकड़े के अनुसार पर्याप्त साधन के अभाव में सालाना 9.5 मिलियन (लगभग 10 लाख लोग) दम तोड़ देते हैं। यह आंकड़ा 2016 का है।

नारे और जुमलों में फंसी दुनिया की हकीकत समझना हो तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की सन् 2000 की इस घोषणा को भी याद कर लें जिसमें कहा गया था- ‘‘सन् 2000 तक सबको स्वास्थ्य’’। अब यदि आज से 20 वर्ष पहले ही ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ की घोषणा की थी तो अब इस यूनिवर्सल घोषणा का क्या मतलब? सवाल यह है कि उस ‘‘सबको स्वास्थ्य’’ का क्या हुआ? अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य सम्बन्धी ऐसी घोषणाएं/फतवे जारी करने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) को कई बार अपनी घोषणाएं बदलनी पड़ीं। उसने अमरीका से बैर मोल लेकर भी चीन के साथ अपनी वफादारी बरकरार रखी, फिर भी वह दुनिया में अपना भरोसा कायम नहीं रख पाया। अब तक कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर विश्व भर में भ्रम और रहस्य बनाये रखने के साथ-साथ वैक्सीन की मण्डी सजाने में भी डब्लूएचओ ने कितने तिकड़म किये लेकिन रूस ने सबसे पहले अपनी वैक्सीन लॉन्च कर के पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया। सेहत, दवा और वैक्सीन के मामले में अपनी चौधराहट की धाक कम होती देख डब्लूएचओ खुद सकते में है। उसने रूस को धमकी भी दे दी है कि, ‘‘कोरोना वायरस से बचाव की वैक्सीन के मामले में रूस बिना उससे पूछे आगे न बढ़े।’’

कोई दो दशक पहले के समाचारों और आंकड़ों को खंगालें तो पता चलेगा कि हजारों करोड़ रुपये की योजना भारत में ही खप गयी थी। तब से अब तक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में गुणात्मक रूप से कोई खास बदलाव नहीं आया। प्राथमिक स्वास्थ्य की स्थिति कमोबेश आज भी लगभग वैसे ही हैं। स्वास्थ्य सेवाओं और दवाओं के महंगा हो जाने के बाद तो स्थिति और भयावह है। आम आदमी स्वास्थ्य की सुविधाओं से वैसे ही वंचित है। इस वर्ष के कोरोना महामारी ने यह सिद्ध भी कर दिया कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर पूरी तरह भरोसा न भी हो तब भी निजी स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी के हैसियत में नहीं हैं।

इन यथार्थों के बीच स्वास्थ्य के डिजिटल ब्लू प्रिंट का क्या हश्र होगा, आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है। आपके पास अब दो ही विकल्प हैं। या तो अपने को निजी क्षेत्र के हवाले कर दें अथवा निःशुल्क स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार के लिए राष्ट्रव्यापारी संघर्ष का ऐलान करें।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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