मैं… बेसिक शिक्षा हूँ…!


डाकिया डाक लाया, डाकिया डाक लाया… प्रिय पाठकों, बॉलीवुड का यह गाना आपने तो सुना ही होगा। मैं आपकी भूली-बिसरी पाती हूँ। बेसिक शिक्षा को लेकर लिखी गयी मेरी पाती आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत है; पूरा पढ़िएगा जरूर।

मैं बेसिक शिक्षा हूँ। मेरी गोद में बैठकर पढ़ने आने वाले अधिकांश बच्चे वंचित एवं शोषित वर्ग से आते हैं। बात जब उनकी पुस्तकों की आती है तो हमेशा तय समय में न छपने का रोना रोया जाता है। बिना पुस्तकों के वर्ष भर पढ़ाई, फिर परीक्षा और फिर बच्चों का अगली कक्षा में उत्तीर्ण होना। आने वाले वर्षों में इस प्रक्रिया का अंतहीन दोहराव कब रुकेगा पता नहीं। विगत कुछ वर्षों में जिम्मेदार लोगों ने एक और अभिनव प्रयोग किया है; अँग्रेजी माध्यम नामक मॉडल स्कूल भी संचालित होने लगे हैं। वे भी बिना पुस्तकों के ही संचालित हो रहे हैं। आजादी के 75 साल बाद भी अधिकांश बच्चे फर्श पर चटाई बिछाकर बैठने को मजबूर हैं।

विद्यालयों की प्रतिदिन की साफ-सफाई के लिए दैनिक कर्मचारियों की नियुक्ति तक नहीं है। अधिकांश विद्यालयों में न तो बाउंड्री वाल है न ही बच्चों के खेलने के लिय पर्याप्त जगह। उस पर भी जिम्मेदारों की कार्यकुशलता और दूरदर्शिता देखिए कि प्रत्येक वर्ष इन्हीं परिसरों में वृक्षारोपण करके हरित क्रांति की गंगा भी बहाई जा रही है, वो भी जियो टैगिंग के साथ; वृक्षों की दैहिक सुरक्षा की शपथ लेते हुए। विभिन्न मदों का लेखा-जोखा, एमडीएम, फल वितरण, दूध वितरण, दवाई वितरण, पोलियो अभियान व अन्य स्वास्थ्य संबंधी कैंप, जागरूकता अभियान, विभिन्न सर्वे, ऑनलाइन/ऑफलाइन ट्रेनिंग, समीक्षा बैठकें, डीबीटी, आधार निर्माण/फीडिंग और न जाने कितने गैर-शैक्षणिक कार्योँ के लिए शिक्षक की ही ड्यूटी।

ये सब तब है जब न तो प्रत्येक विद्यालय में पूर्णकालिक प्रधानाध्यापक है और न ही प्रत्येक कक्षा के लिए शिक्षक ही है। बेशर्मी देखिए, बात जब छात्र-शिक्षक अनुपात की होती है तो अनुपात के सही होने का ढिंढोरा पीटा जाता है, वो भी सदन में। विद्यालयों में नियुक्त शिक्षामित्रों और अनुदेशकों को जब वेतन और सुविधा देने की बात आती है तो ये संविदाकर्मी और अनट्रेंड कर्मी की श्रेणी में आते हैं लेकिन बात जब अपनी जवाबदेही की आती है तो सदन में वही शिक्षामित्र और अनुदेशक छात्र-शिक्षक अनुपात सही करने के हथियार भी बना लिए जाते हैं। कोई भी शिक्षक भर्ती प्रक्रिया न तो ससमय प्रारंभ होती है न ही संपन्न। दो से चार वर्ष के समयान्तराल पर भी नहीं।

यही हाल विभागीय प्रमोशन और स्थानांतरण का भी है। अब इससे भी बड़ा मजाक देखिए। बच्चे स्कूल में प्रतिदिन आते क्यों नहीं हैं? उनका शैक्षिक स्तर निम्न क्यों है? तय कैलेंडर वर्ष में शैक्षणिक लक्ष्य पूरे क्यों नहीं हैं? ये निरीक्षण के बिन्दु हैं। और हाँ, दोषी कौन है? नहीं पता? अरे शिक्षक है न सूली पर लटकाने के लिए! शिक्षक की बेईमानी और मक्कारी को उजागर करने का यह पुनीत कार्य अगले दो-चार दिन में निरीक्षण करने वाले साहब की गणेश परिक्रमा और लक्ष्मी पूजा के बाद अपनी इतिश्री को प्राप्त होता है। पुनः यही सब वर्षपर्यंत जारी रहता है; बस किरदार बदलते रहते हैं।

आओ! स्कूल चलें हम…।


यह पाती प्राथमिक के एक शिक्षक ने लिख कर जनपथ को भेजी है


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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