उत्तर प्रदेश में मायावती राज और दलित उत्पीड़न


यद्यपि यह लेख कुछ पुराना है परंतु आज इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती गई है जब मायावती का भाजपा प्रेम खुल कर सामने आ गया है। वर्ष 2001 में भी मायावती ने भाजपा की मदद लेकर ही सरकार बनाई थी और उसी दौरान उसने भाजपा के दबाव में सवर्णों को खुश करने के लिए एससी/एसटी ऐक्ट को रद्द कर दिया था। इससे स्पष्ट है कि ऐसा करने में मायावती का मुख्य उद्देश्य दलितों पर अत्याचार करने वाले सवर्णों को संरक्षण देने के लिए दलित हितों की बलि देकर भाजपा को खुश करना था। इससे आप अंदाज लगा सकते हैं कि दलित उत्पीड़न को रोकने तथा दोषियों को दंडित कराने में मायावती का क्या नजरिया रहा है। समूचे देश में कभी भी किसी मुख्यमंत्री ने दलित विरोधी करार दिए जाने के डर से एससी/एसटी ऐक्ट पर रोक लगाने की जुर्रत नहीं दिखाई थी परंतु मायावती ने उत्तर प्रदेश में ऐसा किया. शायद वह उत्तर प्रदेश के दलितों को अपना गुलाम समझती रही है। 

लेखक का नोट

उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी देश की सबसे बड़ी आबादी है जो उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 21% है. उत्तर प्रदेश एक अति पिछड़ा प्रदेश है. उत्तर प्रदेश में सामंती सामाजिक व्यवस्था है और वह घोर छुआछूत और जातिवाद का शिकार है जिस के कारण उत्तर प्रदेश में दलितों पर पूरे भारतवर्ष में सबसे अधिक अत्याचार होते हैं. यह स्थिति मायावती के मुख्यमंत्री बनने से पहले भी थी और उसके मुख्यमंत्री काल में भी बनी रही तथा आज भी है. 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित विकास की दृष्टि से बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर देश के सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं.

यह विदित है कि दलितों पर अत्याचार को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा 1989 में अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम तथा उसके बाद 1995 में इस सम्बन्धी नियमावली बनायी गयी थी.

यह देखा गया है कि इस कानून को ईमानदारी से लागू नहीं किया जाता है जिस कारण दलितों पर अत्याचार होते रहते हैं. आजादी के बाद बाबासाहेब के प्रभाव से दलितों में एक नयी चेतना का विकास हुआ है परन्तु जब भी वे अपने संवैधानिक अधिकारों की दावेदारी करते हैं तो उन्हें दबाने के लिए सवर्णों द्वारा उन पर अत्याचार किये जाते हैं. दूसरे, पुलिस और प्रशासन में बैठे सवर्णों की मानसिकता भी दलित-विरोधी रहती है जिस कारण वे छुआछूत एवं दलित उत्पीड़न विरोधी कानून को जान-बूझ कर लागू नहीं करते हैं. यह मुख्य रूप से दलित उत्पीड़न के मुक़दमे दर्ज न करना, वादी को डराना-धमकाना और समझौता करने के लिए विवश करना, मुकदमा दर्ज हो जाने पर तत्परता से विवेचना न करना, सही गवाही न लिखना, मुक़दमे की सही पैरवी न करना आदि के रूप में पेश आती है. इसके इलावा अदालतों का दलित विरोधी नजरिया अधिकतर मामलों के छूट जाने और बहुत कम सजा होना आदि से प्रदर्शित होता है. गुजरात में तो छुआछूत के एक मामले में कोर्ट द्वारा अभियुक्त को केवल 25 रुपए का अर्थदंड लगाया गया था.

दलित उपीड़न के बराबर जारी रहने और इसे रोकने के लिए बने कानून को कड़ाई से लागू न करने का मुख्य कारण राजनीतिक तथा प्रशासनिक स्तर पर वांछित इच्छाशक्ति का अभाव एवं दलित विरोधी मानसिकता का व्यापक तौर पर प्रभावी होना तथा अदालतों का भी सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त होना पाया गया है. इन्हीं कारणों से वर्तमान में सभी राज्यों में दलित उत्पीड़न  कम होने की बजाय बढ़ रहा है क्योंकि अब दलित भी जगह-जगह पर प्रतिकार कर रहे हैं.

अब यह सामान्य अपेक्षा है कि जिस राज्य में सवर्ण मुख्यमंत्री के स्थान पर कोई दलित मुख्यमंत्री बनेगा वह दलित उत्पीड़न को रोकने के लिए वांछित इच्छाशक्ति दिखायेगा और अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून को प्रभावी ढंग से लागू कराएगा ताकि दलित उत्पीड़न कम हो सके. पर क्या वास्तव में ऐसा होता है?

इसका जवाब न में ही है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश है. यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में 1995  से लेकर 2012 तक की अवधि में मायावती एक दलित मुख्यमंत्री के रूप में सरकार की मुखिया बनी. क्या उसके शासनकाल में दलित उत्पीड़न रोकने सम्बन्धी कानून प्रभावी ढंग से लागू हुआ? क्या उसके शासनकाल में दलित उत्पीड़न कम हुआ? ज़मीनी हकीकत तो यही दर्शाती है. उक्त कानून न तो प्रभावी ढंग से लागू हुआ और न ही दलित उत्पीड़न के मामलों में कोई ख़ास कमी आई. हाँ, इतना ज़रूर है कि1995 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी थी तो इस कानून का कुछ डर महसूस किया गया था क्योंकि उस समय तक सरकार पर दलित कार्यकर्ताओं का कुछ प्रभाव था जो बाद में बिलकुल समाप्त हो गया और मायावती स्वच्छंद हो गयी.

2001 वाले मुख्यमंत्री काल में जब मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपना कर और बहुजन को त्याग कर सर्वजन का पल्ला पकड़ा तो उस समय मायावती ने भाजपा जिसकी मदद से उसने सरकार बनाई थी, उसे तथा सर्वजन को खुश करने के लिए सबसे पहला ऐतिहासिक काम अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को शासनादेश द्वारा करके रद्द करने का किया. इससे दलित हित पर कुठाराघात हुआ. ऐसा करने के पीछे यह कारण बताया गया कि कुछ लोग इसका दुरुपयोग कर रहे हैं जिसे रोकने के लिए ऐसा करना जरूरी है, परंतु यह केवल दलितों पर अत्याचार करने वाले सर्वजन समर्थकों को कानून के डंडे से बचाने के लिए बहाना मात्र था. यदि इस बहाने में कुछ सच्चाई भी हो तो भी मायावती को इसे रद्द करने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि यह एक केन्द्रीय कानून है जिसमें पार्लियामेंट ही कोई संशोधन कर सकती है. दूसरे मैं पुलिस विभाग में रहा हूं. मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि दलितों के विरुद्ध ही कितने कानूनों का दुरुपयोग होता है और किस तरह से उन्हें निर्दोष होते हुए भी फंसाया जाता है परन्तु मायावती ने उन कानूनों को रद्द करने की हिम्मत नहीं दिखाई. सरकार ने जोर दिखाया तो दलितों के कानून पर ही दिखाया. पंजाबी में एक कहावत है, “माड़ी धाड़ चमारली पर” अर्थात कमज़ोर से कमज़ोर आदमी भी चमारों पर ही जोर दिखाता है. वही बात इस मामले में भी लागू होती है.

जहां तक उक्त कानून के दुरुपयोग की बात है, इसमें कुछ सच्चाई है कि कुछ दलित या तो स्वयं अथवा सवर्णों के चढ़ाने इस एक्ट के झूठे मुकदमे लिखा देते हैं परन्तु इस के लिए कानून पर रोक लगाना गलत है. कानून में पहले से यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति किसी के विरुद्ध झूठा केस लिखाता है और विवेचना से ऐसा सिद्ध हो जाता है तो उसके विरुद्ध धारा 182 आईपीसी का केस दर्ज करके दण्डित किया जा सकता है, परन्तु मायावती द्वारा ऐसा न करके केवल अपने सर्वजन को इस कानून की मार से बचाने के लिए उक्त कानून के लागू करने पर ही रोक लगा दी गयी जिससे दलितों हितों पर न केवल कुठाराघात ही हुआ बल्कि अत्याचारियों के हौसले भी बुलंद हो गए.

मायावती द्वारा उक्त एक्ट पर रोक लगाने के विरुद्ध इंडियन जस्टिस पार्टी और कुछ अन्य सामाजिक संगठनों द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी जिस पर उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक पाए जाने के कारण रद्द कर दिया. इस पर मजबूर होकर मायावती को 2003 में उक्त रोक को वापस लेना पड़ा परन्तु शासनादेश में रोक हटाने के साथ-साथ यह भी लिख दिया गया कि यद्यपि यह रोक हटाई जा रही है परन्तु इस कानून का किसी भी दशा में दुरुपयोग नहीं होने देना चाहिए. इसका परोक्ष से वही आशय था जो रोक का था. 2007 में भी मुख्यमंत्री बनने पर भी मायावती ने सभी अधिकारियों को इसी प्रकार के लिखित व मौखिक आदेश दिए थे.

मायावती के दलितों के खिलाफ सर्वजन को खुश करने और उन्हें सजा से बचाने के इस कुकृत्य का खामियाजा उत्तर प्रदेश के दलितों को भुगतना पड़ा. उसके मुख्यमंत्री काल में एक तो दलितों के हत्या, बलात्कार, आगजनी और मारपीट के मुक़दमे नहीं लिखे गए जो कि अब भी नहीं लिखे जा रहे हैं. इस कारण न तो पीड़ित दलितों को कानून का कोई संरक्षण मिला और न ही दोषियों को कोई सजा ही मिली बल्कि उनके हौसले बुलंद रहे.

दलित उत्पीड़न के बहुत से मामले बसपा कार्यकर्ताओं द्वारा इसीलिए भी नहीं लिखवाने दिए गए कि दलित उत्पीड़न के केस दर्ज करने से मायावती की बदनामी होगी जिस कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगी.

दूसरे मायावती के इस कृत्य से जहां दलितों के मुकदमे दर्ज न किये जाने से उन्हें कानून का संरक्षण नहीं मिला वहीं उन्हें इस कानून के अंतर्गत मिलने वाली राहत धनराशि भी नहीं मिली क्योंकि वह केस दर्ज होने पर ही मिलती है. इस प्रकार उत्तर प्रदेश में दलितों को दोहरी मार झेलनी पड़ी.

अब तक मायावती के चार बार मुख्यमंत्री रहने पर उत्तर प्रदेश के दलितों को वह सब कुछ झेलना पड़ा जो शायद उन्होंने पहले नहीं झेला था. अब अगर वह देश की प्रधानमंत्री बन जाती हैं तो खुदा खैर करे.


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