पढ़ने-खेलने की उम्र में मजदूरी करने को अभिशप्त हैं कोरोना-काल की लाखों अभागी संतानें!


कोरोना की दूसरी लहर गुजर चुकी है और तीसरी लहर के कयास लगाये जा रहे हैं। इस बीच कोविड काल ने बाल मजदूरों की पैदा हुई नयी खेप को व्यावहारिक तौर पर स्वीकार्य बना दिया है। महानगरों के अनलॉक होने के साथ ही गांव से प्रवासी मजदूरों का आना एक बार फिर शुरू हो गया है, लेकिन इस बार उनके साथ सामान कम है और बच्चे ज्यादा। ट्रेनों में मजदूरों के साथ 8 से 16 साल के बच्चे भरे हुए हैं। ऐसा लग रहा है कि परिवार में जितने बच्चे हैं उन सबको बंटोर कर काम के लिए ले जाया जा रहा है। आंकड़े इस अनुभव की पुष्टि भी करते हैं। पिछले दो दशक में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में बाल मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। दुनिया भर में बाल मजदूरों की संख्या 152 मिलियन से 160 मिलियन पर पहुँच चुकी है।

सर्व शिक्षा अभियान के अनुसार 14 साल तक के सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिलनी चाहिए। बाल मजदूरी प्रोहिबिशन एंड रेगुलेशन एक्ट 1986 के अनुसार 14 साल से ऊपर के बच्चों को अगर काम पर लगाया जाता है तो ये ध्‍यान रखना होगा कि उसका स्वास्थ्य तो ख़राब नहीं हो रहा और उसके पढने लिखने, खेलने का भी इंतज़ाम सुनिश्चित करना होगा। कोरोनाकाल के बाद मजदूर माता-पिता अपनी आर्थिक स्थितियों को संभालने के लिए मजबूरी में बच्चों की मदद ले रहे हैं। उस पर से बंद पड़े स्कूलों, वर्चुअल होती शिक्षा, बढ़ती महंगाई ने बिना कहे ही बाल मजदूरी को जरूरी बना दिया है। अनलॉक होने के बाद अब हालात कैसे बदल रहे हैं, इस बारे में मोबाइलवाणी पर मजदूरों की चर्चा हुई।

अब नहीं मिल रहा पहले की तरह पैसा

दक्षिण भारत के तिरुपुर से सोनू कुमार बिहार से अपने ​दोस्‍तों के साथ काम की तलाश में यहां पहुंचे हैं। वे बताते हैं पहले तो काम मिल नहीं रहा था और अब जब काम मिला है तो ठेकेदार और कंपनी वाले आधे दिन काम करवाकर छुट्टी दे देते हैं। इस बार पहले की तरह पैसे भी नहीं दिये जा रहे हैं। उत्तर भारत, बिहार और झारखंड से यहां करीब 20 हजार मजदूर वापस काम पर लौटे हैं, इनमें कुछ बच्चे भी हैं। दिक्कत यह है कि काम नहीं मिल रहा। ऐसे में एक परिवार में ज्यादा पैसा पहुंच सके इसलिए वे अपने बच्चों से भी छोटा-मोटा काम करवा रहे हैं। यह स्थिति दिल्ली, मुंबई और अहमदाबाद-सूरत जैसे मुख्य व्यावसायिक नगरों की भी है। कोरोना की तीसरी लहर के डर से दोबारा पूंजी फंसाने से व्यापारी बच रहे हैं, फिर भी जो लोग काम जारी रखे हुए हैं वे किसी तरह घाटे की पूर्ति कर रहे हैं।

कुछ ही साल में ये बच्चे पूरी तरह से श्रमिकों की नयी खेप में शामिल हो जाएंगे।

इसके लिए जो सबसे आसान कदम है वो है अकुशल श्रमिकों की श्रेणी में बाल मजदूरों की भर्ती करना। माता-पिता कुशल मजदूर की श्रेणी में और बच्चे अकुशल मजदूर की तरह एक ही फैक्ट्री में काम कर रहे हैं। यहां हो ये रहा है कि ठेकेदार केवल माता-पिता के आधार कार्ड की प्रति जमा करवा रहे हैं, जबकि बच्चे उन्हीं के नाम पर काम कर रहे हैं जिससे बाल मजदूरों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं मौजूद है। दिल्ली के आसपास चॉकलेट, रबर, कपड़ा और प्लास्टिक के सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में बाल मजदूरों की संख्या ज्यादा है।

दिल्ली में स्कूल मैनेजमेंट कमिटी के सदस्य मोहम्मद नबी मलिक कहते हैं कि कंपनियां कोरोना के बाद से अपने घाटे को पूरा करने पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं। इसके लिए वे कम पैसों में मजदूरों से काम करवाना चाहते हैं। जो ट्रेंड मजदूर हैं वे अधिक पैसा मांग रहे हैं, ऐसे में बस बाल श्रमिक ही हैं जो कम पैसों में ज्यादा घंटों तक काम कर सकते हैं। इसलिए कंपनियों और फैक्ट्री में अकुशल श्रमिकों की जगह पर बाल मजदूरों को रखा जा रहा है। माता-पिता भी इसके लिए राजी हैं क्योंकि काम के बहाने उनका बच्चा उनकी नजरों के सामने है। पढ़ाई की चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि स्कूल बंद हैं। कुछ ही साल में ये बच्चे पूरी तरह से श्रमिकों की नयी खेप में शामिल हो जाएंगे।

2011 की जनगणना के अनुसार एक राज्य से दूसरे राज्यों में पलायन करने वाले मजदूर परिवारों के साथ 5 से 9 साल की उम्र के कुल बच्चे और बच्चियों की संख्या 61.14 लाख है। यह कुल स्थानांतरित हुए मजदूर परिवारों के सदस्यों की संख्या का 9.57 प्रतिशत है। इसी तरह 10 से 14 साल की उम्र वाले ऐसे बच्चों की संख्या 34.20 लाख है जो कुल स्थानांतरित हुए मजदूर परिवारों के सदस्यों की संख्या का 5.36 प्रतिशत है। 15 से 20 साल की उम्र के बच्चों की संख्या 80.64 लाख है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार बाल मजदूरी को रोकने की दिशा में प्रगति 20 साल में पहली बार रुकी है। 2000 से 2016 के बीच बाल श्रम में बच्चों की संख्या 9.4 करोड़ कम हुई थी, मगर 2016 के बाद से बाल मजदूरी में 84 लाख का इजाफा हुआ है और 2020 के अंत तक तो यह संख्या 1 करोड़ पार कर गयी है। इनमें से 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे काम कर रहे हैं  जबकि 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75.95 लाख बच्चे काम कर हैं। 43.53 लाख बच्चे मुख्य कामगार के रूप में, 19 लाख बच्चे तीन माह के कामगार के रूप में और 38.75 लाख बच्चे 3 से 6 माह औसतन काम करते हैं। यह सरकारी आंकड़ा है जो हकीकत में और भयावह हो जाता है। 

मालिक ने दिल्ली बुलाया है…

घर वाले बोलते हैं काम जरूरी है, ताकि खाना पकता रहे, पेट भरता रहे। पढ़ाई करके भी तो यही करना है।

मसलन, गाजियाबाद की एक चॉकलेट रैपर बनाने वाली कंपनी में बच्चों से खुलेआम काम करवाया जा रहा है। मोबाइलवाणी के संवाददाता रवि ने उन बच्चों से बात की तो पता चला कि बीते दिनों रैपर बनाने वाले रोलिंग को उतारते समय दो बच्चों का चेन में हाथ फंस गया था। इस घटना में एक बच्चे की उंगली कट गयी, लेकिन कंपनी मालिक ने उसे इलाज का पूरा पैसा तक नहीं दिया। पीड़ित बच्चे से कहा गया कि इस काम में आधी गलती उसकी थी इसलिए इलाज का आधा पैसा वही वहन करेगा। उसके साथ काम करने वाले बाकी बच्चों का कहना है कि इसमें कोई नयी बात नहीं है।

गाजियाबाद की ही रबर बनाने वाली फैक्ट्री में काम कर रहे बाल मजदूरों ने बताया कि वे यहां 10 से 11 घंटे काम करते हैं और उन्हें इसके बदले 6 हज़ार रुपये मासिक वेतन दिया जाता है। इसके अलावा कोई अवकाश या ओवरटाइम नहीं। यही हाल यहां की चॉकलेट बनाने वाली फैक्ट्रियों में भी है। यहां पर 8 से 16 साल की उम्र वाले दर्जनों बच्चे खुलेआम काम कर रहे हैं। इन फैक्ट्रियों का संचालन मुख्य मार्ग से दूर गलियों में होता है, जहां किसी की नजर तक नहीं जाती। बच्चों का कहना है कि लॉकडाउन के कारण वे दो साल से घर बैठे हैं, माता-पिता को भी काम नहीं ​मिल रहा है इसलिए उनकी मदद करना मजबूरी है। स्कूल खुलते तो पढ़ने जाते पर अभी तो घर पर भी कोई काम नहीं है। यहां काम करके कुछ पैसे मिल जाते हैं तो घरवालों की मदद हो जाती है।

गिद्धौर के बानाडीह गांव से मोबाइलवाणी के रंजन कुमार ने 14 साल के एक बाल मजदूर से बात की। उसने बताया कि लॉकडाउन खुलने के बाद होटल के मालिक ने दिल्ली बुलाया है और वहां जाने के लिए टिकट भी भेजा है और हम जाएंगे भी। वह होटल में बर्तन साफ करता है, किचन के काम और सफाई करता है। उसे 10 घंटे काम के बदले 6 हजार रुपये मिल जाते हैं, बाकी होटल में खाने को रहने को मिल जाता है जो काफी है। ये पैसा वो घर भेज देता है ताकि मम्मी को कोई दिक्कत ना हो। जब पढ़ाई के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि घर वाले बोलते हैं काम जरूरी है, ताकि खाना पकता रहे, पेट भरता रहे। पढ़ाई करके भी तो यही करना है।

मध्यप्रदेश से कल्लू सिंह कहते हैं कि बहुत से मजदूर परिवार थे जिन्होंने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया था पर लॉकडाउन के बाद से हालात बदल गये। जिन बच्चों को फैक्ट्रियों में काम नहीं मिल रहा है वे फुटकर विक्रेताओं के यहां काम पर लगे हैं! इन बच्चों से 10 घंटे से भी ज्यादा काम करवाया जा रहा है लेकिन बदले में 100 से 150 रुपये प्रतिदिन ही मिलते हैं। वैसे तो बहुत से एनजीओ बच्चों के लिए काम कर रहे हैं पर लॉकडाउन के बाद जिस तरह से परिवारों की आर्थिक स्थितियां खराब हुईं हैं, ऐसे में घर के हर सदस्य का काम करना जरूरी होता दिख रहा है।

हवेली खड़गपुर से लक्ष्मण कुमार सिंह ने बहुत से बाल मजदूरों से बात की। ये लोग गांव से शहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। उनका कहना है कि खाना नहीं मिल रहा है। स्कूल खुले थे तो मिड डे मील में एक वक्त का भोजन मिल जाता था पर अब तो वो भी बंद है, ऐसे में काम पर जाना मजबूरी है।

कोरोनाकाल के अनाथ और बाल तस्करी

दिल्ली के एक घर में जब माँ-बाप ने कोविड से दम तोड़ा, तो 14 साल का बेटा अकेला घंटों तक वहीं बदहवास बैठा रहा। तेलंगाना के एक ग्रामीण इलाक़े में आठ महीने के बच्चे के सिर से कोरोना ने माँ-बाप का साया छीन लिया। दिल्ली के नज़दीक कोरोना की वजह से चार साल और डेढ़ साल के नन्हे भाई-बहन अनाथ हो गये। आसपास कोई रिश्तेदार भी नहीं रहता था। ऐसी तमाम खबरें, लगभग हर राज्य से आयी हैं। अब तक तो सरकारी रिपोर्ट कह रही है कि तीन लाख बच्चे अनाथ हो चुके हैं, हालांकि केन्द्र और राज्य सरकारें इन बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठा रही हैं। बच्चों के खातों में मासिक राशि देने का वादा तो कर रही हैं लेकिन यह क्रियान्वित कब होगा पता नहीं। सवाल ये है कि तीन साल का एक बच्चा आखिर बैंक जाकर पैसे कैसे निकालेगा?

दैनिक जागरण में प्रकाशित खबर की तस्वीर

ऐसे बच्चों पर ठेकेदारों और मानव तस्करों की गिद्ध निगाह टिकी है जो कभी भी झपट्टा मार सकते हैं। कई बच्चे इनके चंगुल में फंसे भी हैं। हाल ही में बिहार के हाजीपुर से मोबाइलवाणी के वॉलंटियर ने जानकारी दी कि हाजीपुर जंक्शन से आरपीएफ व रेलवे चाइल्ड लाइन के संयुक्त अभियान के तहत  बाल श्रमिकों को मुक्त करवाया गया है। उनके साथ 5 मानव तस्कर भी हिरासत में लिए गये हैं। शुरूआती पूछताछ में पता चला कि इन बच्चों को न्यू जलपाईगुड़ी एक्सप्रेस से राजस्थान ले जाया जा रहा था जहां ठेकेदारों को बाल मजदूर मोटी कीमत पर बेच दिये जाते हैं। यह गिरोह पूरे देश में काम कर रहा है। तस्करों का कहना है कि लॉकडाउन से ही बाल श्रमिकों की मांग में तेजी आयी है इसलिए वे लगातार गांव में घूम-घूम कर ऐसे बच्चों की तलाश कर रहे हैं जिनके माता-पिता उनसे काम करवाना चाहते हैं। बच्चों की किस्मत अच्छी थी इसलिए वे बच गये पर सभी के नसीब में ये रिहाई नहीं है।

ह्यूमन राइट वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कोविड की वजह से अनाथ हुए बच्चे मानव तस्करी और दूसरे तरह के शोषण जैसे यौन शोषण, जबरन भीख मंगवाने और दूसरे तरह के बाल श्रम के ख़तरे में हैं। एनसीपीसीआर, कमिशन फ़ॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (सीपीसीआर) एक्ट, 2005 के सेक्शन 3 के तहत बनायी गयी एक वैधानिक संस्‍था है जिसका काम देश में बाल अधिकारों की सुरक्षा करना और इससे जुड़े मसलों को देखना है। एनसीपीसीआर ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को इस बारे में चिट्ठी लिखी है​ जिसमें कहा गया है कि ऐसे बच्चों को  किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत देखभाल और सुरक्षा की जाएगी और ऐसे बच्चों को जेजे एक्ट 2015 के सेक्शन 31 के तहत ज़िले की चाइल्ड वेलफ़ेयर कमेटी के सामने पेश करना होगा ताकि बच्चे की देखभाल के लिए ज़रूरी आदेश पास किए जा सकें।

ह्यूमन राइट वाच रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि पश्चिम अफ्रीका में इबोला संकट के दौरान अनाथ हुए कई बच्चों को बीमारी से जुड़े कलंक या इस डर से कि बच्चा कहीं ख़ुद भी संक्रमित ना हो, उन्हें ऐसे ही अकेले छोड़ दिया गया था। साथ ही कई बड़े भाई बहनों को अपने छोटे भाई बहनों को सपोर्ट करने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ा था। ऐसा कोरोना संकट में भी हो रहा है। यही कारण है कि बच्चे तस्करों और बाल मजदूरी करवाने वाले ठेकेदारों के चंगुल में फंस रहे हैं। 


कवर तस्वीर साभार UNICEF


About ग्राम वाणी फीचर्स

View all posts by ग्राम वाणी फीचर्स →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *