तन मन जन: पब्लिक हेल्थ और जनसंख्या नियंत्रण की विभाजक राजनीति


जनसंख्या का सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य सुविधा, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा और समाज से है न कि धर्म या सम्प्रदाय से। फिर भी विडम्बना देखिए कि जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर देश में जो चर्चा है वह एक धर्म विशेष के लोगों के प्रति नफरत और हिंसा को लेकर है। एक साम्प्रदायिक विचारधारा वाला शक्तिशाली समूह देश में यह झूठ फैला रहा है कि यदि रोका नहीं गया तो मुस्लिम आबादी पूरे हिन्दुस्तान पर हावी हो जाएगी। इसी बीच पॉपुलेशन फाउन्डेशन ऑफ इंडिया के ताजा सर्वे के अनुसार देश में 96 फीसद मुस्लिम आबादी वाले लक्षद्वीप तथा 68 फीसद मुस्लिम आबादी वाले जम्मू और कश्मीर में प्रजनन दर 1.4 है जबकि देश के हिन्दू-बहुल राज्यों में प्रजनन दर 2.1 से 2.4 तक है।

देश में सर्वाधिक जनसंख्या एवं हिन्दू-बहुल प्रदेश उत्तर प्रदेश में चुनाव सि‍र पर हैं। योगी आदित्‍यनाथ की सरकार चुनाव से ऐन पहले ‘‘उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण, स्थि‍रीकरण व कल्याण विधेयक 2021’’ पेश कर तुष्टीकरण का मास्टरस्ट्रोक चल चुकी है। इस विधेयक के ड्राफ्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में दो या उससे कम बच्चे वाले परिवारों को सरकारी सुविधा मिलेंगी जबकि दो से ज्यादा बच्चे वाले परिवारों को सरकारी नौकरी और लाभ से वंचित रखा जाएगा। इस ड्राफ्ट के जरिये योगी सरकार चुनाव से पहले एक खास सम्प्रदाय के खिलाफ बहुसंख्यक हिन्दुओं को गोलबन्द कर उसका राजनीतिक लाभ लेना चाहती है। उल्लेखनीय है कि असम में नवनियुक्त मुख्यमंत्री हिमंता विस्‍वा सरमा ने भी राज्य में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने की औपचारिक घोषणा कर दी है। सरमा ने असम में बढ़ती जनसंख्या को ‘‘सामाजिक संकट’’ के तौर पर पेश किया है।

भारत में किसे कितने बच्चे हों, यह खुद पति-पत्नी तय करें। कोई भी सरकार नागरिकों पर जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकती कि वो केवल दो या दो से कम बच्चे ही पैदा करें। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के एक नोटिस का जवाब देते हुए केन्द्र सरकार ने स्पष्ट किया था कि देश में कोई भी सरकार जबरन किसी पर परिवार नियोजन नहीं थोप सकती, लेकिन सच तो यह है कि केन्द्र की मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार परिवार नियोजन के बहाने देश में जनसंख्या नियंत्रण लागू करना चाहती है और इसका राजनीतिक लाभ पहले ही ले लेना चाहती है। भारतीय जनता पार्टी एवं उसके समर्थक हिन्दूवादी संगठन काफी समय से देश में मुस्लिम आबादी के बढ़ने का खौफ जताते रहे हैं, लेकिन भारतीय जनसंख्या की रिपोर्ट और जस्टिस सच्चर समिति की रिपोर्ट ने अतिवादियों के इस प्रोपगेन्डा को निराधार साबित कर दिया है।

कितना जरूरी है देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून? सन् 2019 में स्वाधीनता दिवस पर लालकिला से भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ‘‘जनसंख्या विस्फोट’’ शब्द का इस्तेमाल किया था, हालांकि 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान जबरन कराये गये परिवार नियोजन के विनाशकारी अनुभव के बाद लम्बे समय तक राजनेताओं ने परिवार नियोजन या जनसंख्या नियंत्रण शब्दों का उपयोग न के बराबर किया। अब मोदी जी ने जनसंख्या नियंत्रण की बहस को फिर से छेड़कर इसे ‘देशभक्ति’ से जोड़ दिया है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि ‘‘समाज का वह लघुवर्ग, जो अपने परिवारों को छोटा रखता है, सम्मान का हकदार है। वह जो कर रहा है वह देशभक्ति का कार्य है।’’ भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद एवं आरएसएस के प्रचारक राकेश सिन्हा ने जुलाई 2019 में जनसंख्या विनियमन विधेयक को निजी विधेयक के रूप में पेश करते हुए कहा था कि ‘‘जनसंख्या विस्फोट’’ भारत के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन के आधार को घातक रूप से प्रभावित करेगा। इस निजी विधेयक में प्रस्तावित था कि सरकारी कर्मचारियों को दो से ज्यादा बच्चे पैदा नहीं करने चाहिए और वैसे गरीब लोग जिनके दो से अधिक बच्चे हैं, उन्हें सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं से वंचित कर देना चाहिए।

राकेश सिन्हा के जनसंख्या विनियमन विधेयक से पहले ही भारतीय जनता पार्टी के एक नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर जनसंख्या नियंत्रण के लिए कड़े कानून बनाने की मांग की थी जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में गया और वहां केन्द्र सरकार को हलफनामा जारी कर कहना पड़ा था कि केन्द्र सरकार देश के नागरिकों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के विचार की विरोधी है। मगर इधर उत्तर प्रदेश में चुनाव से ऐन पहले योगी सरकार जनसंख्या नियंत्रण विधेयक 2021 का प्रारूप पेश कर चुकी है। भाजपा के इस दोमुंहे वक्तव्य के पीछे की मजबूरी को समझने की जरूरत है। इस पार्टी का इतिहास है कि यह शुरू से तुष्टिकरण के लिए मुस्लिम विरोधी छवि बनाए हुए है। वैसे ही देश में कोई 12 राज्यों में ‘‘दो बच्चों’’ वाला प्रावधान लागू है। इन राज्यों में नियोजित परिवार की शर्तों को पूरा न कर पाने की स्थिति में योग्यता और अधिकार से जुड़े कई प्रतिबन्ध लगाये जा रहे हैं। इन प्रतिबन्धों में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव लड़ने से लोगों पर रोक लगाना भी शामिल है।

इसमें कोई शक नहीं कि भारत तेजी से बढ़ती जनसंख्या वाला देश है। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के विभाग के अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या 2030 तक 1.5 अरब तथा 2050 तक 1.64 अरब (164 करोड़) हो जाएगी। फिलहाल दुनिया की 16 फीसद आबादी भारत में वैश्विक सतह क्षेत्र के केवल 2.45 प्रतिशत और जल संसाधनों के 4 फीसद हिस्से के साथ निवास करती है। दुनिया में इकोलोजिकल सर्वे के ताजा आकलन में अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने और संसाधनों की हो रही कमी में मानव आबादी की भूमिका तथा जनसंख्या विस्फोट को लेकर बहस जारी है। जीव विज्ञानी ईओ विल्सन का अनुमान तो भयावह है। उनके अनुसार दुनिया में हर घंटे तीन प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। पृथ्वी की प्राकृतिक कार्यप्रणाली के तहत विलुप्ति की दर दस लाख प्रजातियों में से प्रतिवर्ष एक प्रजाति है। अब तो यह भी कहा जा रहा है कि छठे सामूहिक विनाश का प्रमुख कारक ‘‘मनुष्य’’ है।

क्या आबादी वास्तव में विस्फोट के कगार पर है? जनसंख्या विशेषज्ञों एवं आबादी से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण और अध्ययन बताता है कि संगठित खेती के शुरू होने के 12,000 साल बाद अब होमो सेपियन्स (मनुष्यों) की आबादी ह्रास के कगार पर है। भारत के लिए शायद जनसंख्या वृद्धि पहले से ही स्थिर हो गयी है। सन् 1951 में भारत परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू करने वाला पहला विकसित देश था। 2020 में 1.37 अरब लोगों के साथ तब से अब तक देश की आबादी कोई चार गुना बढ़ गई है। जनसंख्या वैज्ञानिकों ने आबादी को नियंत्रण में रखने के लिए एक सीमा रेखा निर्धारित की है। इसे ‘‘कुल प्रजनन दर’’ के रूप में व्यक्त करते हैं। आबादी का कुल प्रजनन दर से ऊपर होना बढ़ोतरी की ओर इशारा करता है तो इसके नीचे होने का मतलब है कि जनसंख्या संतुलित है। भारत की आबादी को स्थिर रखने के लिए प्रजनन दर 2.1 होनी चाहिए। यह दर प्रति मां बच्चा, प्रति पिता एक बच्चा और शेष 0.1 दर बच्चों के असमय मृत्यु का द्योतक है। भारत के कई राज्यों में प्रजनन दर 2.1 से नीचे है। इसका मतलब है कि फिलहाल भारत में जनसंख्या वृद्धि स्थिर है।

जनसंख्या नियंत्रण की चिंता कितनी वाजिब है? देश में जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर सियासी दल अपने वोट बैंक का जुगाड़ कर रहे हैं। अब तक के अध्ययन और आंकड़े साफ बता रहे हैं कि देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून से भी ज्यादा जरूरी मुद्दे हैं जिसकी अनदेखी की जा रही है। स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी, कृषि, लघु व कुटीर उद्योग आदि मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय सरकारें अपने वोट बैंक पुख्ता करने में लगी हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार वर्ष 2014-15 में 10 या इससे ज्यादा उम्र की 22.8 फीसद लड़कियां ही स्कूल गयीं। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 32.9 फीसद था। इसके विपरीत केरल में 72.2 फीसद लड़कियों ने स्कूली शिक्षा हासिल की। स्‍कूली शिक्षा हासिल न कर पाने वाली महिलाओं को औसतन 3.1 बच्चे होते हैं जिसकी तुलना में 12वीं या इससे ज्यादा शिक्षा प्राप्त महिलाओं में बच्चों का यह आंकड़ा 1.7 है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 का एक ऐतिहासिक विश्लेषण पिछले कुछ वर्षों में प्रजनन दर में आयी गिरावट को व्यक्त करता है। 1992-93 से 1998-99 तक भारत में प्रजनन दर 3.4 से घटकर 2.9 रह गयी। 1998-99 से वर्ष 2005-06 के दौरान 15 से 19 वर्ष की आयु के विवाहित महिलाओं में गर्भनिरोधकों के उपयोग में 8 से 13 फीसद की वृद्धि देखी गयी। वर्ष 2005-06 से 2015-16 तक आते आते कुल प्रजनन दर 2.7 से घटकर 2.2 हो गयी। गटमाकर इन्स्टीच्यूट के एक शोध में यह पाया गया है कि वर्ष 2015 में भारत में 15.6 मिलियन गर्भपात हुए। इसका मतलब यह हुआ कि 15 से 49 वर्ष की आयु की प्रति 1000 महिलाओं पर गर्भपात की दर 47 थी। ये आंकड़े बताते हैं कि भारत स्वाभाविक रूप से जनसंख्या को स्थिर करने की राह पर है, इसलिए यहां जनसंख्या नियंत्रण के लिए दंडात्मक उपायों की जरूरत नहीं है। वास्तव में दो बच्चों की नीति लागू करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगाने वाले राज्य भी अब अपने कदम वापस खींच रहे हैं। वैसे भी दंडात्मक कार्रवाई कहीं भी बढ़ती आबादी को रोकने का कारगर उपाय नहीं है।

इस बीच नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के आंकड़े के अनुसार केरल, तमिलनाडु, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों की आबादी इस दशक में स्थिर हो जाएगी। आंकड़ों के मुताबिक ज्यादातर राज्यों में प्रजनन दर गिरकर प्रतिस्थापन दर (2.1) के बराबर या नीचे आ गयी है। अर्थशास्त्र के मुताबिक प्रतिस्थापन दर ज्यादा नीचे आना भी अर्थव्यवस्था के लिए घातक होता है।

जनसंख्या नियंत्रण या परिवार नियोजन के नाम पर दुनिया भर में राजनीति होती रही है। भारत में मौजूदा केन्द्र सरकार भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सब आबादी नियंत्रण की बात कर रहे हैं तो उसके पीछे की राजनीति को लगभग देश समझता है। इन्हीं समूहों के नेता समय-समय पर हिन्दुओं को दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने की भड़काऊ अपील करते भी देखे जाते हैं। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी आप्रवासन को अपने चुनाव अभियान का मुद्दा बनाया था। जाहिर है यह भी एक प्रकार का जनसंख्या नियंत्रण जैसा ही मामला था। ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो ने भी जलवायु परिवर्तन के लिए जनसंख्या वृद्धि को ही जिम्मेवार ठहराया था। जाहिर है इन नेताओं की बढ़ती आबादी की चिंता के पीछे समाज का एक वर्ग है जिसे निशाना बनाया जा रहा है। चुनाव से पहले भारत में जहां भी आबादी नियंत्रण की बात उठती है तो साफ तौर पर समझा जा सकता है कि उनकी चिंता के पीछे जनसंख्या से ज्यादा धर्म, नस्लवाद, जेनोफोबिया या कट्टरता है। उनकी नजर में केवल कोई एक सम्प्रदाय है जिसकी आबादी को नियंत्रित करने की जरूरत है। क्या नस्लवादी नजरिये से जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रि‍त किया या रोका जा सकता है? कतई नहीं।

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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