महामारी की दूसरी लहर में भी उपेक्षित छात्र समुदाय पर बात कब होगी?


हम सभी देख रहे हैं कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर देश भर में अभूतपूर्व रूप से तबाही मचा रही है। मौत का तांडव खुलेआम हो रहा है। लाशों को फूंकने-दफनाने की व्यवस्था भी ठीक से नहीं हो पा रही है। सरकार को देश के नागरिकों की जान की रत्तीभर भी परवाह नहीं है। केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार का मूल उद्देश्य मात्र चुनाव जीतना ही रह गया है। नैतिकता की सारी सीमाओं को लाँघकर इस सरकार के मंत्री इस भयावह स्थिति में भी पूरे ज़ोर-शोर से चुनावी रैलियां एवं सभाएं कर रहे हैं। और भी कई सूचनाएं, खबरें हम तक आ रही हैं जोकि स्थिति की भयावहता को उजागर करती हैं।

बहरहाल, मेरी दिलचस्पी इस बात में है कि कोरोना नामक इस महामारी ने जो हालात पैदा किये हैं इन का देश के छात्र समुदाय पर क्या असर पड़ रहा है और आगे क्या असर पड़ेगा। इसी समुदाय का एक सदस्य होने के नाते मैं स्थिति को बेहद करीब से देख और महसूस कर पा रहा हूं।

गूगल का कहना है कि भारत का स्कूलिंग सिस्टम विश्व का सबसे बड़ा स्कूलिंग सिस्टम है और लगभग 25 करोड़ छात्र-छात्राएं इसके अंतर्गत शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। विश्वविद्यालयों के आंकड़ों को भी यदि इसमें जोड़ दिया जाय तो यह संख्या लगभग 32 करोड़ के पार पहुंच जाएगी। इतनी बड़ी आबादी एक ऐसे वर्ग से आती है जिसके पास आय का खुद का साधन नहीं है, यानि ये दूसरों पर निर्भर हैं। यही आबादी ‘देश का भविष्य’ है।

अगर हम याद करें तो पाएंगे कि पिछले बरस मार्च के अंत में अचानक बिना पूर्व सूचना के शुरू हुए लॉकडाउन (जोकि लगभग 7-8 महीने चला) के बाद जब चीज़ें सामान्य होना शुरू हुईं तब सिर्फ स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालय ही वे जगहें थीं जिन्हें सबसे अंत में ‘खोला’ गया। कई विश्वविद्यालयों के छात्रों को तो इसके लिए आंदोलन भी करना पड़ा। पूरे लॉकडाउन के दौरान चलन में लायी गयी ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था ने कई विद्यार्थियों की जान भी ले ली क्योंकि उनके पास वो पर्याप्त संसाधन नहीं थे जो ‘ऑनलाइन शिक्षा’ के लिए ज़रूरी थे। ‘ऑनलाइन शिक्षा’ के पीछे की सरकारी मंशा और बाज़ार के बड़े खिलाडि़यों की इस क्षेत्र में बढ़ती रुचि का किस्सा तो अलग ही है। और ‘ऑनलाइन शिक्षा’ में ‘शिक्षा’ कितनी है, यह तो कई विशेषज्ञ बता ही चुके हैं।

लड़कियां, जिनके पास हिंदुस्तान के पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे की वजह से पहले ही पढ़ाई के अवसर कम होते हैं, इस ऑनलाइन शिक्षा की नई व्यवस्था में यूं ही बेदखली का शिकार हुईं। कई विद्यार्थियों को डिप्रेशन, एंग्‍ज़ायटी आदि तमाम मानसिक बीमारियों का भी शिकार होना पड़ा। इस तरह यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर प्रवासी मज़दूरों और छोटे कारोबारियों के बाद किसी वर्ग को लॉकडाउन ने सही अर्थों में प्रभावित किया तो वह छात्र समुदाय ही था।

इतना सब कुछ झेलने के बाद अब, जब शैक्षिक संस्थान आंशिक रूप से खुलने शुरू हुए ही थे, कि कोरोना की इस दूसरी लहर ने सब दोबारा ध्वस्त कर दिया। हॉस्टल खाली करा दिए गए, विद्यार्थियों को यात्रा करने पर मजबूर किया गया, शिक्षा का मोड फिर ‘ऑनलाइन’ हो गया, लड़कियां घरों में बन्द हो गईं, शैक्षिक सत्र जोकि पहले ही एक साल पीछे चल रहा था एक बार फिर रुक गया है। इस पर तुर्रा यह कि कोरोना का कहर भी दोगुना है।

अव्वल तो छात्र समुदाय की समस्याओं पर देश का तथाकथित ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ कोई बात नहीं कर रहा और यदि दूसरे दायरों में बात हो भी रही है तो महज परीक्षा निरस्त करने की मांग तक ही सीमित है। पिछले बरस भी बात महज़ परीक्षा तक ही सीमित थी। पिछले बरस कोविड रिलीफ में जारी 1.7 लाख करोड़ के बड़े पैकेज में भी छात्र समुदाय का कोई जिक्र नहीं था जबकि ज़रूरत इस बात की है कि देश का मीडिया, हुक्मरान, विश्वविद्यालय एवं स्कूली प्रशासन और अभिभावक छात्र समुदाय द्वारा झेले जा रहे मानसिक तनाव और समस्याओं को समझें।

माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को भी ‘परीक्षा पर चर्चा’ जैसे खोखले प्रवचन से आगे बढ़कर छात्र समुदाय के हित में कुछ ज़रूरी कदम उठाने चाहिए जो असल में उनके काम आएं। सरकार को आगे आकर ‘देश के भविष्य’ को बचाने की सख़्त ज़रूरत है। 1 मई से प्रस्तावित वैक्सिनेशन ड्राइव में हर विश्वविद्यालय, स्कूल एवं संस्थान में एक-एक वैक्सिनेशन सेंटर स्थापित होना चाहिए। छात्र समुदाय के लिए एक विशेष पैकेज की घोषणा होनी चाहिए। ऑनलाइन मोड में शैक्षणिक कार्यों को पूर्ण करने के लिए सभी छात्रों-छात्राओं को ज़रूरी संसाधन (इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, इंटरनेट आदि) मुहैया कराने चाहिए। छात्रवृत्तियों एवं अध्येतावृत्तियों को जारी करने में देरी नहीं करनी चाहिए। विशेष ज़रूरतमंदों के लिए अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए।

यह कुछ बुनियादी एवं अनिवार्य बातें हैं जिन्हें माने बग़ैर ‘देश का भविष्य’ गहरे अंधेरे में जाने को मजबूर हो जाएगा और फिर सिर्फ ‘कठिन सवालों को पहले हल करने’ के जुमले ही सुनाई देंगे। पिछले बरस की गलतियों को न दोहराएं, विद्यार्थियों को अकेला मत छोड़िए बल्कि उनके साथ खड़े होइए, वक़्त की मांग है!


लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए (राजनीति विज्ञान) के छात्र हैं

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