लंगुराही और पंचरुखिया: यहां के लोग नहीं जानते उनका मुख्यमंत्री कौन है!


अख़बार के पन्नों और टेलीविज़न की स्क्रीन को लगातार देखते रहने का ख़तरा है कि हम यह मान बैठते हैं कि बिजली, पानी, चिकित्सा और शिक्षा की सुविधा कमोबेश देश के हर कोने में पहुंच चुकी है। ऐसा इसलिए है क्‍योंकि नेताओं के ट्वीट और उनके बयान ही अख़बार और टीवी की ख़बरों के स्रोत बन चुके हैं। लोगों की बुनियादी जरूरतों को बताने, दिखाने के लिए अब कहीं जगह नहीं बची है, लेकिन अगर कोई देखना समझना चाहे तो आज भी ऐसी तमाम बस्तियां हैं जहां किसी भी तरह की सुविधा नहीं पहुंची है।

बिहार के औरंगाबाद जिले में ऐसी ही एक बस्ती है लंगुराही और पंचरुखिया। पहाड़ों और जंगलों के बीच बसी करीब  तेरह और सोलह घरों की इन दोनों बस्तियों में आज तक कोई भी सुविधा नहीं पहुंच पायी है। हाल ही में करीब 8 किलोमीटर जंगली और पहाड़ी रास्तों से चलते हुए हम इन बस्तियों तक पहुंचे। इतने दुर्गम रास्तों पर चलकर कहीं पहुंचने का मेरे जीवन में यह पहला अनुभव था।

किसी ने लिखा है कि ‘सड़क तुम अब आयी हो गाँव, जब सारा गाँव शहर जा चुका है’। यहां न सड़क आयी और न गाँव के लोग शहर गए। उनके लिए तो शहर और आधुनिकता अजनबी चीजें हैं। सरकार की जिस भी सुविधा का आप नाम जानते हों, उनमें से कोई भी अभी तक यहां नहीं पहुंची है। रास्ते में हमें टाटा नमक और चिप्स के खाली पैकेट कहीं कहीं जरूर पड़े मिले जिसे देखकर मन में यही बात घूमने लगी कि इसे कॉरपोरेट का दम कहें या सरकार की नाकामी कि आज़ादी के इतने साल बाद भी जहां सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं पहुंच पायी, बिजली नहीं पहुंच पायी, वहां जाने के रास्ते में चिप्स के पैकेट और नमक के पैकेट जरूर पहुंच गये।

बस्‍ती में प्रवेश करते ही पहला दृश्‍य

हाल ही में बिहार में चुनाव हुए हैं। नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन यहां रहने वाले रामसूचित सिंह भोक्ता यह नहीं जानते कि उनका मुख्यमंत्री कौन है। अपनी कुल्हाड़ी कन्धे पर रखते हुए कहते हैं, ‘हमारी ज़िंदगी यहीं कट गयी, हमें दुनिया से क्या मतलब और अब बची ही कितनी है’।

इसी बस्ती की रहने वाली मेतरी देवी कहती हैं कि ‘’हम यहां से अपने बच्चों को भेज देना चाहते हैं जिससे वे पढ़ पायें और हमारी तरह इस जगह पर हर चीज़ से दूर न रहें।‘’ इस क्षेत्र में कार्य करने वाली आशा कार्यकर्ता कान्ति कुमारी समय-समय पर यहां पहुंचकर सर्वे करती रहती हैं और वही हमें इस बस्ती तक ले जाने का मुख्य माध्यम रहीं।

चलते-चलते मैंने कान्ति से पूछा कि आप इतनी मुश्किल और ख़तरनाक़ रास्ते से होकर सर्वे करने क्यों आती हैं? जब सरकार को कोई मतलब नहीं तो आप क्यों परेशानी उठाती हैं? इस पर वे कहती हैं, ‘’सर, यह इलाक़ा कभी नक्सली गतिविधि का मुख्य केंद्र था। यहां कई बार पुलिस से मुठभेड़ हुई है और यह बस्ती उन कामों में लिप्त लोगों के लिए एक तरह से ढाल बन जाती थी क्योंकि लोग अपने अधिकार और सरकार से मिल रही सुविधा को नहीं जानते थे। मैं इसीलिए यहां अक्सर जाकर काम करती हूं जिससे कि वहां रहने वाले लोगों को भी मुख्यधारा में लाकर बुनियादी सुविधा जैसे चिकित्सा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूक कर सकूं।‘’

यहां पर कोई भी नेटवर्क काम नहीं करता, लोगों के पास फ़ोन नहीं है, नई पीढ़ी भी नहीं जानती है कि फ़ोन कैसे चलाया जाता है।

यहां पर कोई भी ऐसा बच्चा नहीं है जिसका जन्म सरकारी चिकित्सा केंद्र में हुआ हो। सारे बच्चे घर में ही जन्म लेते हैं। उनकी नाड़ी आज भी पुराने तरीके से ही काटी जाती है। महिलाएं रक्ताल्पता का शिकार हैं और बच्चे कुपोषण के।

मैं रास्ते भर यही सोचता आ रहा कि आखिर कोई संवाददाता यहां क्यों नही आता! टीवी न्यूज़ के किसी विशेष प्रोग्राम के प्रोमो में रिपोर्टर को पहाड़ी चढ़ते हुए और हल्के से फिसलने को झांव झांव की आवाज़ के साथ दिखाया जाता है, तो इस वास्तविक रिपोर्ट को क्यों नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है कि जिससे सरकारों के पास बची थोड़ी शर्म (अगर बची है तो) भी शरमाये।


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