पिता पर तीन कविताएं


अभिषेक श्रीवास्‍तव 

1

पिता
तुम क्‍यों चले गए समय से पहले
मैं आज अपने गोल कंधों पर नहीं संभाल पा रहा
पहाड़ सा दुख
मां का
जिसमें कुछ दुख अपने भी हैं
पिता
तुम जानते हो तुम्‍हारा होना कितना जरूरी था आज
जब घेरते हैं खामोशियों के प्रेत चारों ओर से
एक अजब चुप्‍पी
निगलती जाती है शब्‍दों को
और किशोर वय के अपराध जैसा
बोध पैठता जाता है दिमाग के तहखानों में
जब जाड़े की धूप से होती है चिढ़
और ठंड जमा देती है
हर उस चीज को जिसमें जीवन को बचा ले जाने की है ताकत
पिता
तुम जान लो तो बेहतर होगा
नहीं कर सकता मैं आत्‍मघात भी
डर है एक मन में
कि जैसे घिसटता आया तुम्‍हारा दुख मां के आंचल में लिपटा आज तक
मेरा दुख भी कहीं न सालता रहे उनको
जिन्‍हें मैंने अब तक संबोधित भी नहीं किया।
पिता
तुम्‍हें आना ही होगा, लेकिन ठहरो
वैसे नहीं, जैसे तुम आए थे मां के जीवन में तीस बरस पहले
भेस बदल कर आओ
समय बदल चुका है बहुत
और मां के मन में है कड़ुवाहट भी बहुत
खोजो कोई विधि, लगाओ जुगत
और घुस जाओ मां के कमरे में बिलकुल एक आत्‍मा के जैसे

इसका पता सिर्फ तुम्‍हें हो या मुझे।

2 

मैं नहीं जानता
मांओं के पति, उनके प्रेमी भी होते हैं या नहीं
न भी हों तो क्‍या
एक कंधा तो है कम से कम मांओं के पास
बेटों का दिया दुख भुलाने के लिए
मेरी मां के पास वह भी नहीं
मुझे लगता है
विधवा मांओं को प्रेम कर ही लेना चाहिए
उम्र के किसी भी पड़ाव पर
मां को अकेले देख
अपने प्रेम पर होता है अपराध बोध
होता तो होगा उसे भी रश्‍क मुझसे
मां
तुम क्‍यों नहीं कर लेती प्रेम
और इस तरह मुझे भी मुक्‍त
उस भार से
जो मेरे प्रेम को खाए जा रहा है।

3 

पिता का होना
मेरे लिए उतना जरूरी नहीं
जितना मां के लिए था
पिता होते, तो मां
मां होती
अभी तो वह है मास्‍टरनी आधी
आधी मां
और मैं जब देखो तब
शोक मनाता हूं उस पिता का
जिसे मैंने देखा तक नहीं
सोचो
फिर मां का क्‍या हाल होगा
मैंने तो पैदा होने के बाद से नहीं पूछा आज तक
पिता के बारे में उससे
कि कहीं न फूट जाएं फफोले
अनायास।
अब लगता है
मुझे करनी ही चाहिए थी बात इस बारे में
हम दोनों ही बचते-बचाते
पिता से आज तक
एक-दूसरे से अनजान
दरअसल आ गए हैं उनके करीब इतना
कि मेरे दुख और मां के दुख
एक से हो गए हैं
दिक्‍कत है कि बस मैं ऐसा समझता हूं
और वह क्‍या समझती है, मुझे नहीं पता।

Read more

10 Comments on “पिता पर तीन कविताएं”

  1. शुक्रिया दोस्त….. पिता पर जितना भी लिखें– लगता है अभी बहुत कुछ कहाँ रह गया….पर आप ने इतना तो लिखा…

  2. बहुत मार्मिक लेकिन जटिल कविता है । एक बेटा है जिसकी स्मृति में पिता की उपस्थिति और सुख नहीं है लेकिन उनका न होना भी न होने जैसा नहीं है । एक माँ है जिसके जीवन में पति अब नहीं है लेकिन इस अनुपस्थिति पर पुत्र से भी कोई एक संवाद नहीं है । यह रिश्तों की जितनी जटिलता को सामने लता है वस्तुतः वह रिश्तों की गहराई है । अभिषेक ने पिता को अनुपस्थित उपस्थिति की तरह जितनी संवेदनशीलता और तकलीफ से याद किया है वह सचमुच यादगार है । शुभकामनायें मित्र !

  3. अच्छा किया तुमने कि माँ के दुःख और वंचना को माँ नहीं बेटे की नज़र से देखने की कोशिश की और मुझे लगता है हम ऐसे ही शायद देख सकते हैं..समझ सकते हैं. पवन करण को भी माँ के प्रेम को देखने समझने के लिए बेटी की आत्मा और देह में परकाया प्रवेश करना पड़ा..माँ बनकर देखना उनके लिए भी संभव न था…जिन औरतों को हम जानते हैं उनमें माँ होती है लेकिन हमसे सँवाद करते समय वह नहीं होती. जिस माँ को हम जानते है वह हमसे सँवाद करते हुए औरत नहीं होती…तो पिता को तो हम फिर भी बरास्ता माँ जान सकते हैं थोड़ा-बहुत. माँ के प्रेम को समझ पाना असंभव होता है..

  4. Abhishekji bahut bahut khubsurat kavita hai tino, , maa ko akele dekh apne pream par hota hai apradhbodh ye line behed marmsparshi hai, aur in kavitaon k liye aapne jis photo ka chayan kiya hai vah bhi behad khubsurat (Touchi) hai.

    jyotsna

  5. वैसे मैं तुम्हें बहुत तो नहीं जानता…लेकिन तुमको बहुत कठोर और मजबूत समझता था..एक दूसरे अभिषेक को पढ रहा हूं…

  6. अभिषेक, अद्भुत….।
    कविता में हमेशा तुम्‍हारा लड़ाकू ही दिखाई पड़ा…
    जिस अभिषेक को मैं जानती हूं….
    आज वह विगलित अभिषेक यहां दिखा…।

    मैं हमेशा से जानती थी अभिषेक….
    कि तुम जानते हो….
    और देखो, आज सामने आ गया….
    यकीनन तुमने कुछ राहत महसूस की होगी…
    मैंने की है…।

  7. पिता से अधिक माँ पर टिप्पणी है,पुत्र पिता और माँ के बीच उलझे त्रिकोर्ण को सम्कोर्ण बनाने और एक नई द्रस्ती से सम्बन्ध को देखने कि कोशिश है,सिर्फ भावुकता नहीं है,प्रश्न है संसय है और उत्तर तलाशने कि इमानदार प्रयास है,कुछ शब्द देर तक गुन्जतें हैं,जैसे गोल कंधे,माओं के प्रेमी होतें हैं क्या,पिता आना तो वैसे नहीं जैसे तीस साल पहेले आए थे,आदि,सबसे बरी बात यह कि माँ को महसूस करना आसान होता है लेकिन पिता को? अच्छी कविता है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *