दक्षिणावर्त: कोविडकाल में एक विश्रृंखल डायरी के बेतरतीब पन्ने

वे दरअसल कठोरता की ऐसी कच्ची बर्फ पर खड़े हैं, जिसके नीचे अथाह समंदर है- दुःख और अवसाद का। उस कच्ची बर्फ को तड़कने से बचाने के लिए ही दोनों एक दूसरे के साथ खूब स्वांग करते हैं- वैराग्य और ‘केयर अ डैम’ वाले एटीट्यूड का। एक खेल है दोनों के बीच, जो चल रहा है।

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दक्षिणावर्त: मौत का समाचार, तथ्यों का अंतिम संस्कार और श्मशान में पत्रकार

तकनीक की अबाध और सुगम पहुंच ने घर-घर में इन 24 घंटे चलने वाली ‘थियेट्रिक्स’ की दुकानों को तो पहुंचा दिया, लेकिन पत्रकारिता के सबसे जरूरी आयाम ‘ख़बर’ की ही भ्रूण-हत्या कर दी गयी। अब कहीं भी कुछ भी बचा है, तो वो है प्रोपैगैंडा, फेक न्यूज़ और कम से कम ‘व्यूज़’। समाचार कहीं नहीं हैं, विचार के नाम पर कुछ भी गलीज़ परोसा जा रहा है।

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दक्षिणावर्त: दूसरी लहर में किसके पास इतना नैतिक बल बचा है जो किसी को कुछ कहे?

चार महीनों में क्यों नहीं पत्रकारों ने बिहार के आइसोलेशन-सेंटर्स की फॉलोअप स्टोरी की? एकाध इंडियन एक्सप्रेस ने की, फिर सब खत्म! उस अवधि में दवाओं, अस्पतालों की तैयारी पर फॉलोअप स्टोरी क्यों नहीं हुई?

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दक्षिणावर्त: एक चुनाव मैनेजर और कुछ एलीट पत्रकारों के नक्कारखाने से रिसते दुख

यह बात समझने की है कि एपल का एचआर मैनेजर कभी भी स्टीव जॉब्स नहीं बन सकता है, उसी तरह सोशल मीडिया या चुनाव-प्रबंधन करनेवाला व्यक्ति कभी भी नेता की जगह नहीं ले सकता है और अगर नेता में, उसके कैंपेन में दम नहीं है तो कितना भी अच्छा मैनेजर हो, वह कुछ नहीं बिगाड़ या बना सकता है।

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दक्षिणावर्त: संघ को अब बता ही देना चाहिए कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ का उसका रोडमैप क्या है!

यह बात कहने में दुःखद कितनी भी लगे, लेकिन संघ के पास लोग नहीं हैं। न तो शीर्ष पर बिठाने लायक, न ही मध्यक्रम के। जितनी भी ऊर्जा है, वह सब प्रारंभिक स्तर पर है, प्रवेश की है और इसीलिए इतनी भगदड़ हो रही है।

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दक्षिणावर्त: बड़े लोगों के आपसी हास्य-विनोद और वाम-उदार चिंतकों का भोलापन

यह सरकार शिक्षा के साथ खिलवाड़ के मामले में अब तक की सभी सरकारों से अधिक सक्रिय है, तो यह बहुत राहत की बात है कि अब तक इस सरकार ने कोई नयी यूनिवर्सिटी खोलने की नहीं सोची है, वरना नालंदा के बाद बारी तो तक्षशिला की ही थी।

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दक्षिणावर्त: दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख…

टीवी सीरीज में या पूरे समाज में जो हो रहा है, वह एक-दूसरे का पूरक है या प्रतिबिंब? यदि प्रतिबिंब है तो जो बेचैनी, जो क्रांति न्यूज-चैनल्स को देख कर महसूस होती है, वह मोटे तौर पर समाज में अनुपस्थित क्यों है, जो समस्याएं या टकराव बहुमत वाले समाज में हैं, वह टीवी या सिनेमा से अनुपस्थित क्यों है?

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दक्षिणावर्त: सहस्रबुद्धि विमर्शों की ‘टोकरी में अनंत’ पाठों से बनता यथार्थ

क्‍या वाकई यह पहली सरकार है जिसने महिलाओं (कम से कम हिंदी साहित्‍य में) का सही में सम्मान किया है? या फिर ऐसा है कि बीते सात दशक के दौरान कृष्‍णा सोबती से लेकर चित्रा मुद्गल वाया अलका सरावगी, मृदुला गर्ग और नासिरा शर्मा (सभी उपन्‍यासकार) हिंदी की कोई कवियत्री अकादमी पुरस्‍कार के लायक हुई ही नहीं?

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दक्षिणावर्त: भांग के कुएं में विचारधारा के नाम पर प्रतिक्रियावादी हड़बोंग

संघ कहिए, भाजपा कहिए या भारत का दक्षिणपंथ कहिए- एक वैचारिक लकवे से ग्रस्त प्रतीत होता है। किसी भी परिवर्तनकामी आंदोलन के तीन सिरे होते हैं- आर्थिक, सामाजिक और भारत जैसे देश में धार्मिक। संघ का आर्थिक दर्शन क्या है? स्वदेशी चिल्लाते रहिए, विनिवेश करते रहिए। आप अगर विनिवेश या निजीकरण के पक्ष में आ ही गए हैं, तो उसी को कहिए ना, उस पर कुछ सिद्धांत दीजिए, अपने काडर्स को प्रशिक्षित कीजिए, लेकिन यहां सुर कुछ औऱ है, तान कुछ और है।

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दक्षिणावर्त: आत्मा का सौदा भी काम न आया गोया सारे पाप चेहरे पर नुमायां हो गए…

भाजपा और संघ का चरित्र भी बदल गया है और चाल भी। संघ का अपने आनुषंगिक संगठनों पर जो नैतिक प्रभाव या दबदबा था, वह अब पूरी तरह न्यून या शून्य तक पहुंच गया है। भाजपा में तो संगठन और सत्ता एकमेक हो गए हैं। आप याद करें तो पाएंगे कि अटलजी के समय भी भाजपा अध्यक्ष का एक अलग व्यक्तित्व होता था, लेकिन आज जेपी नड्डा जब अमित शाह या नरेंद्र मोदी से मिलते हैं, तो उनकी देहभाषा देखिए। साफ प्रतीत होता है कि कोई सेल्स एक्जक्यूटिव अपने कंट्री हेड के सामने खड़ा है।

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