दक्षिणावर्त: आत्मा का सौदा भी काम न आया गोया सारे पाप चेहरे पर नुमायां हो गए…


फिल्मों में हमने अक्सर यह दृश्य देखा होगा जब खलनायक को पकड़ने के लिए पुलिस कप्‍तान अपने मातहतों से कहता है, ‘चोर को पकड़ने के लिए हमें चोर की तरह ही सोचना होगा’। एक लोक-कहावत यह भी है कि कई बार लड़ते-लड़ते हम बिल्कुल अपने दुश्मन की तरह हो जाते हैं।

महाभारत को ही देखिए, जहां कौरवों का वध करते-करते पांडव भी कई बार धर्म की रेखा लांघते से प्रतीत होते हैं। अर्जुन जब कर्ण का वध कर रहे होते हैं, उस समय कर्ण विरथ और शस्त्रहीन होते हैं। तब वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण से सवाल पूछ बैठते हैं, उनको धर्माधर्म का उपदेश देते हैं। जब भगवान उन्हें दुर्योधन के अत्याचारों का स्मरण कराते हुए डांटते हैं, तो कर्ण कहते हैं:

वृथा है पूछना, था दोष किसका?
खुला पहले गरल का कोष किसका?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है।।

रश्मिरथी, रामधारी सिंह दिनकर

एक लेखक की भी याद आती है, इस वक्त। ऑस्कर वाइल्ड था उसका नाम। आयरिश था और उसने एक ही उपन्यास अपने जीवन में लिखा- ‘द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे’। कहानी का लब्बोलुआब कुछ यूं है कि इसका नायक एक खूबसूरत नौजवान है जो अपनी जवानी को कायम रखने के लिए अपनी आत्मा का सौदा शैतान के साथ करता है। उसे इस राह पर धकेलने वाला उसका तथाकथित दोस्त लॉर्ड हेनरी होता है जो ‘चार्वाक’ का चेला होता है और विलास को ही जीवन का उद्देश्य समझता है। शैतान को अपनी आत्मा बेचने वाले डोरियन की पेंटिंग बासिल नाम का पेंटर बनाता है। उस पेंटिंग की खासियत होती है कि डोरियन के सारे कुकर्म, अपकर्म, सुकर्म और अकर्म, यौवन और बुढ़ापा तो उस पेंटिंग में झलकते हैं, लेकिन डोरियन जस का तस बना रहता है। वजह यह कि अमरत्व के लिए डोरियन जब अपनी आत्मा का सौदा करता है, तो जो भी पाप, जो भी घाव वह अपनी रूह को देता है, उसका दाग उसके पोर्ट्रेट पर आ जाता है। यानी पाप करने पर भी उसका शरीर तो खूबसूरत रहता है, पर पेंटिंग में मौजूद उसकी आत्मा बदसूरत होती जाती है। उपन्यास का अंत ही ऑस्कर वाइल्ड का ‘मास्टरस्ट्रोक’ है, लेकिन फिलहाल इस कथा को सुनाने का मकसद कुछ और है।  

उपर्युक्त अस्वीकरण या कहानी के साथ यह याद दिलाना था कि पिछले दिनों अहमदाबाद में दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम बल्कि स्पोर्ट्स कांप्लेक्स का उद्घाटन हुआ। उस कांप्लेक्स का नाम सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर है और उसमें हॉकी के स्टेडियम और दो स्वीमिंग पूल आदि के अलावा एक क्रिकेट स्टेडियम भी है, जिसका नाम मोटेरा था और जिसे अब बदलकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी के नाम पर रखा गया है।

पिछले पूरे हफ्ते मीडिया से लेकर सोशल मीडिया और राजनीति से लेकर सामाजिक दुनिया तक में इस पर उबाल मचा रहा। भक्तों (जो मोदी समर्थकों के लिए आम संबोधन है) औऱ चमचों (जो मोदी विरोधियों के लिए उनके समर्थक लिखते हैं) के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। एक तरफ मोदी समर्थकों ने पूरे देश में जितने भी संस्थान, स्टेडियम या इमारतों के नाम नेहरू-गांधी खानदान पर थे, उनकी सूची सोशल मीडिया पर वायरल कर दी है। दूसरी तरफ कांग्रेस-वाम समर्थकों ने प्रधानमंत्री के नाम पर स्टेडियम का नाम रखे जाने की कड़ी आलोचना शुरू कर दी है।

आगे बात को बढ़ाने से पहले एक बार फिर से दिनकर की चंद पंक्तियों को देखने और गुनने की जरूरत है, जिनसे ज्‍यादा प्रासंगिक आज की दशा में आज शायद ही कुछ होगाः

…मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं,
विकट जिस वासना में जल रहे हैं,
‘अभी पातक बहुत करवायेगी वह,
उन्हें जाने कहां ले जायेगी वह।
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे,
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे।

रश्मिरथी, रामधारी सिंह दिनकर

प्रधानसेवक के नाम पर क्रिकेट का स्टेडियम हो, यह न तो तार्किक है, न उचित और न ही समीचीन। इसे भाजपा या संघ के समर्थक चाहे किसी भी अगर-मगर से सही ठहराएं, मगर जो गलत है वह तो गलत ही है, अन्यथा पोस्ट-मॉडर्निज्म से हजार साल पहले ही नागार्जुन हमें ‘स्यादवाद’ की शिक्षा दे गए हैं, जहां सब कुछ सही भी है, गलत भी है और सही और गलत दोनों भी है या फिर सही भी नहीं है और गलत भी नहीं है। यदि नेहरू और इंदिरा के प्रधानमंत्रित्‍व काल में ही उन्‍हें भारत-रत्न दिया जाना ग़लत है, मायावती का सत्‍ता में रहते हुए अपनी प्रतिमा लगवाना गलत है, तो मोदी के नाम पर क्रिकेट स्टेडियम होना भी गलत है।

बात हालांकि इतनी एकरेखीय नहीं है। यह महज एक स्टेडियम की बात नहीं है, एक परंपरा की, एक शुरुआत की बात है। इससे पहले भी चाटुकारों से भरे इस देश में मोदी के नाम पर पाठ्यपुस्तक में पाठ और मंदिर बनाने की बात चापलूस लोग कर चुके हैं। इस परंपरा से एक खतरनाक शुरुआत को बल मिलेगा क्योंकि हमारे देश में महान चापलूसों की कमी नहीं है औऱ यह हम राहुल-प्रियंका-सोनिया के मामले में बखूबी देख रहे हैं और उसके पहले नेहरू-गांधी खानदान के मामले में देख चुके हैं।

बुद्धिमानों का कहना है कि बाढ़ की शुरुआत एक छोटी सी धारा से होती है औऱ उसको रोकने में ही सारी ताकत लगानी चाहिए। यही चिंता उन संघी सज्जन के मुंह से भी तब व्यक्त होती है, जो संघ में अपना पूरा जीवन झोंक चुके हैं और जो अटल-आडवाणी के समय दिल्ली के गलियारों में काफी प्रभावशाली थे। फिलहाल, वह वर्तमान राजनीति में मिसफिट होकर हाशिये पर पड़े हैं। बातचीत के क्रम में वह कहते हैं, ‘इस देश में तो राम और कृष्ण को भी जाना पड़ा, बुद्ध आए, महावीर आए, गांधी आए, नेहरू आए और गए, काल की गति से कोई नहीं बचा। मोदी भी एक दिन जाएंगे ही। चिंता उस दिन की करनी चाहिए और यह चिंता भाजपा को लेकर या संघ को लेकर नहीं होनी चाहिए, यह चिंता तो समग्र देश को लेकर करनी चाहिए।’

यह कहने की कोई बात नहीं कि भाजपा और संघ का चरित्र भी बदल गया है और चाल भी। संघ का अपने आनुषंगिक संगठनों पर जो नैतिक प्रभाव या दबदबा था, वह अब पूरी तरह न्यून या शून्य तक पहुंच गया है। भाजपा में तो संगठन और सत्ता एकमेक हो गए हैं। आप याद करें तो पाएंगे कि अटलजी के समय भी भाजपा अध्यक्ष का एक अलग व्यक्तित्व होता था, लेकिन आज जेपी नड्डा जब अमित शाह या नरेंद्र मोदी से मिलते हैं, तो उनकी देहभाषा देखिए। साफ प्रतीत होता है कि कोई सेल्स एक्जक्यूटिव अपने कंट्री हेड के सामने खड़ा है।

संघ भी अपनी नैतिक पूंजी भला कैसे बरकरार रखेगा, जब उसका सर्वोच्च अधिकारी ही फीता काटने और जेड सेक्योरिटी में रुचि रखने लगे। जब उसके प्रचारक एंडेवर और सफारी जैसी बड़ी गाड़ियों में चढ़ने और ट्रांसफर-पोस्टिंग के खेल में रुचि रखने लगें, तो वह किसी मंत्री या सांसद-विधायक को किस बिना पर नैतिकता की घूंट पिला सकते हैं?

संघ के एक उच्चपदस्थ अधिकारी बताते हैं कि यूपी में यह हाल है कि विद्यार्थी परिषद के मंत्रियों के ह्वाट्सएप चैट में एक मंत्री की इस तरह की टिप्पणी आती है कि फलानी लड़की बहुत सही है और उसके बाद दूसरे पदाधिकारी विविध तरह के नुस्खे बताते हैं कि किस तरह उस लड़की को राह पर लाया जा सकता है या पटाया जा सकता है। उसी तरह, दिल्ली में एक यूनिवर्सिटी में जब लेक्चरर्स की नियुक्ति हो रही थी, तो कथित तौर पर पुराने कार्यकर्ताओं से राय ली गयी, एक कथित समूह भी बनाया गया लेकिन आखिरकार वे नियुक्तियां जाति-विशेष की नियुक्तियां बन कर रह गयीं। मार्क्सवादियों की फैलायी कीच साफ करते-करते आप उनसे भी बदबूदार कीच में लोट गए।

कांग्रेस या विपक्ष के पाप गिनवाने से आपके अपने अपराध कम नहीं हो जाते, माननीय प्रधानसेवक जी। जनता ने आपको इतना बंपर बहुमत इसलिए ही दिया था कि नेहरू-गांधी खानदान की बपौती मात्र बनकर यह देश न रहे, कि यहां के जितने भी अश्रुत-अविख्यात नायक-नायिका हैं, उनकी भी चर्चा हो, इतिहास की जो एकरेखीय-विकृत धारा है, वह बहुरेखीय, बहुवर्ण्य और विविध हो सके।

हुआ यह है कि मोदी के नाम पर भाजपा में इतना सघन केंद्रीकरण हुआ है कि भविष्य की झलक ही हौलनाक दिखती है। आखिरकार, मोदी भी मानव हैं, कोई अतिमानव नहीं। वह शिक्षा से लेकर विदेश-नीति तक सबके ज्ञानी नहीं हो सकते हैं। सबसे संकट की बात है कि जो भाजपा हमेशा ही सेकंड रैंक के नेताओं को तैयार रखने के लिए जानी जाती थी, उसमें आज प्रधानसेवक को छोड़कर कोई नहीं दिखता है। जेटली, सुषमा तो स्वर्गीय ही हो गए, वसुंधरा को किनारे कर दिया गया है और मामाजी मध्य प्रदेश तक सिमट गए हैं, रमन सिंह जी परिदृश्य से गायब हैं। मोदी के बाद जो दो लोग नज़र आ रहे हैं, वे अमित शाह और योगी हैं।

अमित शाह की तो बात एक बार भाजपा में सर्व-स्वीकार्यता की बन भी जाए, पर उनके तड़ीपार होने के कलंक से छुटकारा और सर्वदेशीय पहुंच भी प्रश्नांकित है। जहां तक योगी का प्रश्न है, तो अभी उनके पास 2022 की अग्नि-परीक्षा है, जिसमें उन्होंने खुद अपने कर्मों और अपने पंचरत्नों के कुकर्मों से मामला एकतरफा जीत की तरफ से ‘कड़े मुकाबले’ में बदल दिया है। साथ ही, यह भी याद रखना होगा कि देश की सर्वोच्च कुर्सी कोई यूपी की सीएम की कुर्सी नहीं है, जहां हिंदू युवा वाहिनी के चुनाव लड़ा देने की धमकी देकर मनोज सिन्हा के सामने से परोसी हुई थाली छीन ली गयी थी।

घूम-फिर कर बात भारत के भविष्य पर आती है, जहां इतिहास गवाह रहा है कि जब भी देश में बहुत मजबूत केंद्रीय सत्ता रही है, देश का विघटन हुआ है। मौर्य साम्राज्य से लेकर औरंगजेब तक का इतिहास इसका गवाह रहा है। मोदी के जाने के बाद क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं अतिभयावह रूप भी ले सकती हैं क्योंकि फिलहाल तमिलनाडु में करुणानिधि और जयललिता के बाद शून्य है, बिहार में नीतीश घिस चुके हैं पर बियाबान है, यूपी में अखिलेश-मायावती चुके हुए हैं, केरल में भी भाजपा सेंध लगा रही है और उत्तर-पूर्व में भी येन-केन-प्रकारेण सत्ता तो उसी के हाथ में है।

गहन केंद्रिकता के बाद जब क्षेत्रीय स्तरों पर भावनाओं का ज्वार उमड़ेगा और खासकर उस समय में जब जातिगत, धर्मगत फांक बिल्कुल स्पष्ट और अधिक गहरी हो गयी है, तो क्या यह सोचना बहुत दूर की कौड़ी है कि किसी जिले-मोहल्ले से भी ओवैसी, उपदेश राणा और चंद्रशेखर राव जैसे लोग निकलें और उन पर नियंत्रण करना कठिन हो जाए? देश के हरेक कोने में अगर ऐसे ही नेता उभर गए, तो फिर क्या एक बार उसी दौर में हम नहीं चले जाएंगे जब देश के प्रधानमंत्री कुछ इस तरह बदलते थे जैसे शादियों के वेन्यू बदले जा रहे हों? भाजपा के कई टुकड़े होने का अंदेशा भी कोई कोरी गप नहीं है और न ही उपर्युक्त आशंकाएं बिल्कुल खारिज की जा सकती हैं।’

वैसे, ‘द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे’ के अंत में कहानी का नायक (या प्रतिनायक, खलनायक, जो भी कहें) अपनी बदसूरत शक्ल के साथ पेंटिंग की बगल में औंधे मुंह गिरा होता है और पेंटिंग उतनी ही खूबसूरत और जवान हो जाती है। आत्मा का सौदा भी कोई काम न आया और आखिरकार सारे पाप चेहरे पर नुमायां हो ही गए।

यह भी याद रखने की बात है कि ऑस्कर वाइल्ड की कहानियों को ‘ज़हर’ कहा गया और उन्हें अपने आखिरी वक्त बेहद मुफलिसी और गुमनामी में पेरिस में गुजारने पड़े थे। वजह यह थी कि उन्हें ‘ग्रॉस इंडीसेन्सी’ के जुर्म में सजा मिली थी। विक्टोरियन नैतिकता ने तब तक समलैंगिकता शब्द को ग्रहण नहीं किया था और उसके बदले ग्रॉस इंडीसेन्सी का ही इस्तेमाल होता था।            



About व्यालोक

Journalist, social media consultant and columnist

View all posts by व्यालोक →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *