दक्षिणावर्त: संघ को अब बता ही देना चाहिए कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ का उसका रोडमैप क्या है!


कल नयी दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने ‘संस्कार भारती कला संकुल’ का उद्घाटन किया। जिस तरह की तस्वीरें इस आयोजन की नुमायां हो रही हैं, वह भारत में दक्षिणपंथ के भविष्य को लेकर बहुत कुछ न भी कहें, तो उसके वर्तमान पर तो इशारा कर ही देती हैं। कहने की बात नहीं कि नैरेटिव-निर्माण की ताकत को संघ हमेशा से खोजता और प्रयासरत रहा है। वाम की यही ताकत है, जो पुराने से पुराने संघी की तमन्ना भी है, इरादा भी और परम-चरम लक्ष्य भी। इस ‘कला-संकुल’ की इमारत दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर भाजपा कार्यालय से बहुत दूर नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने में आवंटित ज़मीन मनमोहन सरकार के कार्यकाल में पेंच में फंसी, लेकिन नरेंद्र मोदी की विराट बहुमत वाली सरकार ने सारे रास्ते आसान कर दिए।

संघ यह जानता है कि ज़मीन पर इतने दशकों से काम करने के बावजूद अब तक कला, संस्कृति, साहित्य और क्रिएटिव आर्ट के बाकी आयामों पर उसकी पकड़ अब तक नहीं है। मिलेनियल्स तक अभी भी, ‘ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के..’ पर अधिक झूमते हैं, बनिस्बत ‘तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित…’ के। छोटे से केबिन में चलनेवाले संस्कार भारती के इस कला-केंद्र को अत्याधुनिक, बहुसज्ज चारमंजिला मकान में बदल देने के पीछे संघ का देश के बौद्धिक और कला-जगत में भी अपना दबदबा बढ़ाने का ही सपना है। दो साल के निर्माण कार्य के बाद यह इमारत तैयार हुई है और इसका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि खुद सरसंघचालक ने इसका उद्घाटन किया है।

संघ की खलिश न तो नयी है, न ही मिटने वाली है। यही खलिश उसके स्वयंसेवक प्रधानमंत्री को गोहत्या करनेवालों के लिए रोने पर मजबूर करती है, तो कभी खुद संघ राष्ट्रीय मुस्लिम मंच को समर्थन देता है, तो कभी भाजपा की कैबिनेट मंत्री सदन को आश्वस्त करती हैं कि ‘शिक्षा का भगवाकरण’ एजेंडा नहीं है, वह तो ‘कम्युनिस्टों के साथ भी’ काम करती हैं। यह खलिश बौद्धिक-कलाजीवी वर्ग में अपनी स्वीकार्यता की है, वैचारिक एजेंडे को डायल्यूट करने की कीमत पर भी आगे बढ़ने की है।

कला-संकुल के उद्घाटन पर भाजपा के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य मुरली मनोहर जोशी जी को छोड़ दें, तो अधिकांश ऐसे चेहरे दिखेंगे, जिनको मेरे एक दोस्त ‘2014 के बाद के भाजपायी’ कहते हैं। पूर्व कम्युनिस्टों से लेकर नौकरशाहों की पत्नियों और परिषद के रास्ते संघ में घुसने वाले नव-तरुणों की भीड़ को देखकर चाहें तो वामपंथी राहत की मीलों लंबी सांस ले सकते हैं कि फिलहाल उनके विचार-वर्तुल का प्रभाव कम नहीं होने वाला है।

राहत की सांस इसलिए कि संघ के पास वैकल्पिक परियोजना नहीं है, अगर है भी तो दिखती नहीं है। संघ का नैतिक आधार पहले ही इनोवा और एंडेवर जैसी गाड़ियों और ज़ेड, वाय़ सेक्योरिटी में धसक चुका है। वह आभा खो चुकी है, जिसके जरिये कोल्हापुरी चप्पल और धोती-कुरता में मौजूद एक आदमी किसी कैबिनेट मंत्री को पूरी धौंस के साथ हड़का सकता था। दूसरे, संघ ने अपना विषय या पाठ्यक्रम नहीं तैयार किया है। नयी शिक्षा नीति के परिणाम तो अभी दिखने में कुछ साल लगेंगे, लेकिन सात साल बाद सहमते-सकुचाते आपने अगर बाबर को ‘आक्रांता’ लिखकर ही अपने लक्ष्य को पूरा समझ लिया, तो फिर कुछ कहना ही नहीं है।

तीसरी बात यह है कि संघ या राइट विंग/दक्षिणपंथ इस देश में हिंदुओं की तरह ही बिखरा और ढीला-ढाला है। एक केंद्रीय नेतृत्व की बात आती है, तो संघ भी अपना पल्ला झाड़ लेता है और फिर मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना की भेड़चाल में, सोशल मीडिया के इस क्षणजीवी समय में हर वो आदमी दक्षिणपंथ का ठेका ले लेता है, जो वामपंथ या कांग्रेस का विरोधी हो। समस्या यह है कि हरेक वाम या कांग्रेस विरोधी को आप जब तक भाजपा समर्थक या दक्षिणपंथी समझेंगे, आपके यहां इसी तरह की ऊहापोह रहेगी।

संघ की ताकत उसके प्रचारक यानी स्वयंसेवक रहे हैं। आधुनिकता की मार से अब प्रचारकों की संख्या कम हो रही है। सत्ता की नजदीकी से युवाओं-किशोरों (इनके स्त्रीलिंग भी) की आंखें चुंधियाई हैं और जो पुराने या खांटी सैद्धांतिक लोग थे, वे कहीं हाशिये पर पड़े हैं क्योंकि उन्होंने मांगा नहीं। मांगने की संस्कृति है ही नहीं। नए काडर (स्वयंसेवक) न तो संघ को समझते हैं, न उनको ऐसी जरूरत है। वह समाज या देश के निर्माण में लगे मजदूर भी नहीं हैं क्योंकि उनके पास ऐसा वैल्यू-सिस्टम भी नहीं है। वो तो बस जल्द से जल्द अपनी भौतिक ऊंचाई फलांगने में लगे हैं।

यह बात कहने में दुःखद कितनी भी लगे, लेकिन संघ के पास लोग नहीं हैं। न तो शीर्ष पर बिठाने लायक, न ही मध्यक्रम के। जितनी भी ऊर्जा है, वह सब प्रारंभिक स्तर पर है, प्रवेश की है और इसीलिए इतनी भगदड़ हो रही है। आप झटके से किसी से भी पूछ लीजिए, पांच संघी (या फिर दक्षिणपंथी ही) पत्रकारों का नाम बताओ, पसीना छूट जाएगा लोगों का। पूछिए, पांच संघी बुद्धिजीवियों, कलावंतों, अकादमिकों के बारे में- लोग बता नहीं पाएंगे। ईकोसिस्टम का जो रोना संघ रोता है, वह अगर 7 वर्षों में दरकना भी नहीं शुरू हुआ, तो आगे का हवाल बस सोचा जा सकता है। यही वजह है कि थक-हारकर बौद्धिकों के रूप में वह राकेश सिन्हा हैं, जिन पर थीसिस चोरी का आरोप है, तो पत्रकारों के तौर पर वही अनंत विजय हैं, जो पूर्व कॉमरेड थे।

नए लोगों के स्तर पर इतनी मारामारी है औऱ सोशल मीडिया की इतनी लट्ठबाजी कि आपस में ही दक्षिणपंथी भिड़े हुए हैं। इसको हाल ही में एक राइट-विंग पोर्टल के पूर्व संपादक के अपना उद्यम शुरू करने और उसके बाद मोदी को रोस्ट किए गए वीडियो की प्रतिक्रिया से जान सकते हैं। मेरी मां बताती थीं कि जब मेरे पिता अपने उरूज पर थे, यूनिवर्सिटी प्रोफेसर के तौर पर, तो उनके चेलों में ‘हम असल चेला, त हम असल चेला’ की लड़ाई होती थी। दक्षिणपंथ के नए युवा तुर्क तो फिलहाल इसी लड़ाई में उलझे हैं कि हम असली, तो तुम नकली।

पहले से (और वह भी सात दशकों से) स्थापित नैरेटिव को तोड़कर, उसके बराबर में नया नैरेटिव खड़ा करना श्रमसाध्य काम है, बड़ी मेहनत लगेगी। संघ और भाजपा को इस मेहनत से दिक्कत है। ‘मोदी है न’! देश और हिंदुओं के दुर्भाग्य और वाम-कांग्रेसी युति के सौभाग्य से अब तक यह मंतर चल भी रहा है और इसीलिए, इस देश में विचारधारा-आधिपत्य (हेजेमनी) या नैरेटिव-निर्माण पर ढंग का काम नहीं हुआ है। होता, तो अल-जजीरा अमेरिका में छह संस्थानों को महज छह करोड़ रुपये मिलने पर ढाई बीघे का आलेख नहीं लिखता, उसमें विहिप को आतंकी संस्थान नहीं बताता और इस बात पर चिंता नहीं जताता कि ये छहों संस्थान संघ से जुड़े हैं, इसलिए कोविड राहत कार्य में इनको नहीं लगाना चाहिए। नैरेटिव की यही ताकत होती है कि किसी एक गुमनाम अमेरिकी संस्था ने बिना भारत को समझे विश्व हिंदू परिषद को आतंकी संगठन बता दिया और आज भी वही चर्चा जारी है।

नैरेटिव की ताकत क्या होती है, यह समझना हो तो अमेरिका के ही अलबामा में देखिए, जहां योग की शिक्षा प्राइवेट स्कूलों में बंद कर दी गयी है। इसको रिवोक करने का प्रस्ताव सीनेट में औंधे मुंह गिरा है और 1993 में ही बने इस नियम के तहत योग में मंत्रों का उच्चारण नहीं किया जा सकता है। यौगिक आसनों को अंग्रेजी नाम और मंत्रों को अंग्रेजी अक्षर देने की भी बात इसमें है। यह नियम हालांकि, री-वोटिंग के लिए फिर से प्रस्तुत होगा, लेकिन उम्मीद कम है कि 1993 में ही योग को बैन कर चुका अमेरिकी राज्य अलबामा इसको फिर से जारी रखेगा।

नैरेटिव की ही ये ताकत है कि कांग्रेस जैसे बड़े दल का सदर रह चुका आदमी, खुलेआम एक इंटरनेट टॉक में भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप की मांग रखता है। ये वही राहुल गांधी हैं, जो विपक्ष के पीएम उम्मीदवार हैं, जो लगातार झूठ बोलकर फिर माफी मांगते हैं और उसके बाद फिर उसी झूठ का प्रचार फिर से शुरू कर देते हैं।

हस्बेमामूल यह कि अगर संघ को अपनी ज़मीन सलामत रखनी है, विचार के स्तर पर खुद को प्रासंगिक रखना है, तो कुछ काम तत्काल प्रभाव से करने होंगे। इनमें सबसे प्रमुख काम यह है कि संघ को यह साफ करना चाहिए कि उसका एजेंडा क्या है, उसका हिंदू-राष्ट्र कैसा है और इसके लिए रोडमैप क्या है। सात साल से रह-रह के हिंदू राष्‍ट्र की रट लगाने वाले भाजपा और संघ नेताओं को अब इस बारे में मीडिया और जनता में फैला भ्रम दूर कर देना चाहिए।



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