दक्षिणावर्त: भांग के कुएं में विचारधारा के नाम पर प्रतिक्रियावादी हड़बोंग


Power corrupts and absolute power corrupts absolutely.

Lord Acton, 1887

अभी बीती 26 फरवरी को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद पूर्व प्रमुख और फिलहाल राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ में वरिष्ठ पद… माफ कीजिएगा, ‘दायित्व’ (याद रखिएगा, संघ, भाजपा या परिषद में कोई किसी पद पर नहीं होता, उसे दायित्व दिया जाता है) पर आसीन सुनील अंबेकर की किताब ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र’ का लोकार्पण हुआ। इसमें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ एकाध पद्मश्री और करीब दर्जन भर आइएएस अधिकारी शामिल थे।

न तो योगी आदित्यनाथ संघ के हैं, न ही वे लगभग दर्जन भर आइएएस संघ की शाखाओं में जाने वाले या प्राथमिक, द्वितीयक पूरा करने वाले, न ही जो पद्मश्री वहां डोल रहे थे, उनकी ही संघ से निकटता थी या है। यहां तक कि यह भी नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में रहेगी ही, जब भाजपा केंद्र की सरकार में न हो।

आगे बढ़ने से पहले यह प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए कि यह कार्यक्रम किसका था? विद्यार्थी परिषद का, जिसके कार्यकर्ता स्वयंसेवक बनकर व्यवस्था संभाल रहे थे? संघ का, जिसके सबसे बड़े ओहदेदार मुख्य अतिथि के तौर पर भाषण देने आए थे? उत्तर प्रदेश सरकार का, जिसके मुखिया योगी आदित्यनाथ के साथ कई आइएएस और अधिकारी भी वहीं मौजूद थे? या फिर भाजपा, जिसके लिए एक साल बाद यूपी में सियासी जंग नियत है?

यह सवाल पूछना इसलिए लाजिमी है क्योंकि इसी सवाल से संघ से जुड़े वर्तमान सवाल और उसकी विवशता भी झलकती है। भारत से भी जुड़े अधिकांश मसले इस सवाल में आ जाते हैं। मसलन, मोहन भागवत क्या हैं? खुद उनके मुताबिक एक सामाजिक संगठन (जो रजिस्टर्ड भी नहीं है) के सर्वेसर्वा। सुनील अंबेकर उसी संगठन के एक पदाधिकारी, माफ कीजिएगा ‘दायित्वधारी’ हैं। उनकी कार के दरवाजे खोलने के लिए जो हुजूम लगा या जिस तरह लोगों की दौड़ लगी, वह कसम से इस लेखक को लखनऊ स्थित लोकभवन के गेट नंबर आठ के पास खड़ी होने वाली शीर्षस्थ अधिकारियों की कार की याद दिला दे गयी, जिसके दरवाजे खोलने को चाटुकार इस तेजी से लपकते थे कि लेखक को बारहां यह अंदेशा होता था कि आज किसी न किसी का मुंह टूटेगा, कोई न कोई दुर्घटना होगी।

अमूमन कहा जाता है कि किसी भी संगठन या विचार की उम्र 100 वर्षों की होती है, यहां अमर्त्य विचारों की बात नहीं हो रही है, न ही वैसे विचारों की जो समयानुकूल खुद को ढाल भी लेते हैं और बदलाव भी कर लेते हैं। उस लोकार्पण की भीड़ और हालिया संघ के, भाजपा के और यहां तक कि विद्यार्थी परिषद के नेताओं तक के आप जलवे देख लें, तो एक कभी विख्यात और अब बदनाम टी.वी. एंकर का मशहूर वाक्य याद आता है, ‘ये रास्ता आखिर जाता कहां है?’

ये रास्ता आखिर जाता कहां है?

भारत के साथ समस्या यह है कि संघ और भाजपा अपने उरूज पर हैं, जिसके अश्वमेध के बगटुट घोड़े को थामने की ताब फिलहाल बौने विपक्ष में नहीं दिखती है। जैसा कि एक बेहद वरिष्ठ भाजपा नेता ने मुझसे बातचीत में कहा:

आपको क्या लगता है, राहुल गांधी इतनी न्यूज में क्यों रहते हैं? इसलिए, क्योंकि वह भाजपा के लिए तुरुप का इक्का है। भाजपा के नेता (खासकर शीर्षस्थ) यह जानते हैं कि उनकी पार्टी में भी मूर्खता इतनी प्रकार की और इतने परिमाण की भरी हुई है कि कोई भी ढंग का विपक्षी नेता आ गया, तो भाजपा का ढोल अगर फूटा नहीं तो, उसकी आवाज़ जरूर बेसुरी हो जाएगी। राहुल भाजपा के वरदान हैं, इसलिए खुद भगवाई इस प्रयास में रहते हैं कि राहुल की हरेक मूर्खता मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक छायी रहे और तब जनता राहुल और मोदी की जब तुलना करे, तो खीझ कर, हार कर या हंस कर मोदी के ही पक्ष में लामबंद हो जाए।

बात, बहरहाल संघ और उसकी समस्या की हो रही थी। संघ की पहली समस्या तो यह है कि उसके पास विचार ही नहीं है। यह बात सुनने में बहुत कठोर लगेगी, किंतु सच्चा आकलन करें तो संघ ने द्वितीय सरसंघचालक के बाद दक्षिणपंथ को कौन सा विचारक दिया है। ठीक है, बालासाहब देवरस और दत्तोपंत ठेंगड़ी, यज्ञदत्त शर्मा, नानाजी देशमुख आदि नाम आप गिना देंगे, लेकिन जनसंघ से जब भाजपा बना, तो जिस विचार की बात हुई थी, ‘चाल, चरित्र और चिंतन’ की बात हुई थी, नए भारत की बात हुई थी, उसमें नया संघ या भाजपा के स्तर पर क्या जुड़ा है?

एक बड़ा शून्य दिखेगा आपको। अब भी लोग दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ और ‘अंत्योदय’ को लेकर घिसा-पिटा रिकॉर्ड बजाए जा रहे हैं। उसकी भी व्याख्या करने वाला कोई ढंग का व्यक्ति नहीं दिखेगा आपको। जावड़ेकर से पूछ लीजिए, (परिषद से आए हैं), शहनवाज से पूछ लीजिए, किसी से पूछ लीजिए। कुछ अंड-बंड सुनने को मिल जाएगा। बाकी, कांग्रेस से उधार लिए गए सांसद या राकेश जी जैसे प्राध्यापकों से क्या उम्मीद करें, जिनकी पीएचडी की डिग्री पर ही चोरी का आरोप है।

यह 2021 है, हरेक के हाथ में सूचना, ज्ञान और नैरेटिव्स का भंडार है। आप कब तक पुराना झुनझुना बजाएंगे और उम्मीद करेंगे कि आज का युवक या युवती ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ गाता हुआ बलिवेदी पर चढ़ता जाएगा। देवेंद्र स्वरूप और बालासाहब देवरस आदि के समय का ‘पांचजन्य’ या ‘ऑर्गैनाइजर’ देखिए और आज का देखिए। विजयादशमी पर संघ-प्रमुख का भाषण सुनिए। ऐसा लगता है कि देश को दिशा देने की अपेक्षा रखनेवाले भाषण में दवा बेचनेवाले सेल्समैन का इश्तिहार चला आ रहा है।

प्रोग्राम क्या है, बॉस?

संघ के पास दूसरा संकट है, कार्यक्रम का। यह विशुद्ध रूप से प्रतिक्रियावादी संगठन बनकर रह गया है। कहीं दुर्घटना हुई, संघी कार्यकर्ता पहुंच जाएंगे, कहीं आपदा आय़ी, संघ के लोग पहुंच जाएंगे, सुबह शाखाओं में (जिसकी संख्या तेजी से गिर रही है) लाठी भांज आएंगे, पर कार्यक्रम कहां है, योजना कहां है? केवल चिल्लाने से यह देश हिंदू राष्ट्र नहीं हो जाएगा, हिंदू-राष्ट्र बनाने का ब्लू-प्रिट कहां है और अगर कहीं कोई ब्लू-प्रिंट है, तो उसे इतने तहखानों में छुपाकर रखने का क्या मतलब है?

भाजपा हमेशा से संघ की अनुवर्ती रही, लेकिन भला हो ज़ेड सेक्योरिटी और यूएसवीज़ का। संघ की नैतिक पकड़ छूट गयी है, इसीलिए 6 वर्षों से सत्ता में होने के बावजूद यह सरकार हलफनामा देती है कि जनसंख्या कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है जी, वह तो बस ऐसे ही चल रहा है और इस पर सरकार बहादुर को कुछ करने की जरूरत ही नहीं है।

संघ कहिए, भाजपा कहिए या भारत का दक्षिणपंथ कहिए- एक वैचारिक लकवे से ग्रस्त प्रतीत होता है। किसी भी परिवर्तनकामी आंदोलन के तीन सिरे होते हैं- आर्थिक, सामाजिक और भारत जैसे देश में धार्मिक। संघ का आर्थिक दर्शन क्या है? स्वदेशी चिल्लाते रहिए, विनिवेश करते रहिए। आप अगर विनिवेश या निजीकरण के पक्ष में आ ही गए हैं, तो उसी को कहिए ना, उस पर कुछ सिद्धांत दीजिए, अपने काडर्स को प्रशिक्षित कीजिए, लेकिन यहां सुर कुछ औऱ है, तान कुछ और है।

सामाजिक समरसता और ‘नो हिंदू पतिता भवेत्’ का नारा बुलंद करने वाले लोग अब आरक्षण का नाम भी लेने से डरते हैं। वह ऐसा बम हो गया है, जिसे छूना तो दूर, उसका नाम भी लेना मना है। हां, आज भी हजारों-लाखों समर्पित कार्यकर्ता एकल विद्या केंद्र या दूर-दराज के गांवों में वनवासी कल्याण आश्रम में अपनी जिंदगी झोंक रहे हैं, पर विजन क्या है, दर्शन क्या है और लक्ष्य क्या है? टोकनिज्म तो पिछले बहुत वर्षों से हो रहा है, लेकिन संघ और भाजपा जिस शैक्षिक नीति को “मैकाले, मार्क्स और मुल्लों” की फैलायी हुई दुकान कहती थी, उसे बदलने या भारतीय गौरव के अनुरूप बनाने के क्या कार्य हुए हैं?

आपका दर्शन स्पष्ट था, नीति स्पष्ट थी, भले ही उसमें पिछले कई दशकों से आपने कोई नयी बात नहीं जोड़ी थी, पर अभी देखें तो सब हड़बोंग ही तो है। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के इंद्रेश कुमार और उनके साथी वह काम कर रहे हैं, जो बड़े से बड़ा मुल्ला न कर सका। प्रभु श्रीराम को इमाम-ए-हिंद बनाने लगे, कल को हनुमान जी मनसबदार-ए-अयोध्या या फैजाबाद भी करार दिए जा सकते हैं। आप मुसलमानों को अपने साथ लाना चाहते हैं, तो एक स्वस्थ चर्चा और बातचीत से लाएंगे न, कि उन्हें मनसबदारी का लालच देकर। यही वजह हुई कि इंद्रेश कुमार को कुछ दिनों पहले एक प्रायोजित चर्चा में से बिना बोले लौटना पड़ा।

अपना-अपना कुआं

भाजपा की मजबूरी है, हो सकती है, होती रहेगी और होनी भी चाहिए। वह एक राजनीतिक संगठन है। उसे नम्यता लानी ही पड़ेगी, लेकिन जो उसका मातृ-संगठन होने का दावा करता है, उसे दिशा-निर्देशित करने की जिसकी पहचान है, उसे एक्स, वाइ या जेड सेक्योरिटी के लिए, कुछ एसयूवीज के लिए बलि पर नहीं चढ़ाया जाना चाहिए।

इतनी बड़ी सत्ता पाकर उसकी मदद से एक काउंटर-रिसर्जेंस का, वैचारिक परिशुद्धि का, सांस्कृतिक पुनरुत्थान का और आध्यात्मिक ज्ञान का सर्वव्यापी आंदोलन अब तक फैल जाना चाहिए था। हुआ क्या है? यह पूरे देश को दिख रहा है। दिशा दिखाने और देनेवाले खुद ही दिशाहारा हो गए हैं, सिद्धांत की जिनसे अपेक्षा थी, वे खुद ही पतन की गहरी खाई में दिख रहे हैं।

और अंत में- दक्खिनी टोले वालों के लिए एक राहत का किस्सा। एक पुराने खुर्राट वामपंथी से एक नवतुरिया कॉमरेड ने बातचीत के क्रम में एक शब्द कहा, ‘वैज्ञानिक समाजवाद…’। पुराने कॉमरेड ने डांटते हुए कहा, वैज्ञानिक समाजवाद क्या होता है बे, समाजवाद तो समाजवाद होता है, इसमें वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक क्या? नवतुरिया सिर खुजाकर रह गया, जवाब न दे सका।

तो मित्रो, आग चारों तरफ बराबर लगी है। कुएं में भांग हमेशा से थी, फर्क इतना आया है कि अब उसमें पानी का नामोनिशान नहीं बचा। चौतरफा भांग के कुएं हैं… अपने-अपने…सो टेक अ चिल पिल…!



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