बात बोलेगी: हिंदू थक कर सो गया है तब तो ये हाल है, जागेगा तो क्या होगा डाक साब?

डॉ. साहब की चिंता समझ में आती है, लेकिन उसका निदान वो किससे मांग रहे हैं यह समझ नहीं आया, हालांकि उन्होंने देश का ध्यान इस महान तथ्य की तरफ दिलाया है कि यह देश दो-दो महान सत्ताओं के संरक्षण में मानवाधिकारों से सम्पन्न जम्हूरियत के मज़े लेता आ रहा है।

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बात बोलेगी: काया की कराह और निज़ामे मुल्क की आह के मद्देनज़र एक तक़रीर…

आपने या किसी ने भी कभी साँप के पैर देखने की कोई चेष्टा की? नहीं की होगी। आप कह देंगे कि पैर देखने जाएंगे तो वो डस लेगा। यानी आप इस डर से उसके पैर देखने की कोशिश नहीं करते हैं और बेसबब उसके बारे में बेवफाई के दर्द भरे नगमे गाने लगते हैं। अन्तर्मन से पूछिए कि क्या आपका ये रवैया ठीक है?

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बात बोलेगी: त्रेता और द्वापर के लोकतांत्रिक कड़ाहे में लीला और मर्यादा का ‘डिस्ट्रक्टिव’ पकवान

हमारी संसद दो महान मिथकीय युगों के पहियों पर टिका ऐसा रथ है जिस पर जबरन लोकतंत्र को सवार कर दिया गया है। यह अनायास नहीं है कि त्रेता और द्वापर के बीच ग्रेगरि‍यन कैलेंडर से लयबद्ध आधुनिक लोकतंत्र कहीं लुप्त हो रहा है। हिंदुस्तान का मानस इसी त्रेता और द्वापर में कहीं अटक गया है। गलती उसकी नहीं है, उसे इस रथ पर यही मर्यादा और लीला दिखलायी दे रही है। वो उसी को देखकर जी रहा है।

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बात बोलेगी: एतबार की हद हो चुकी बंधु! चलिए अब ‘ओन’ किया जाए…

2019 के आम चुनाव के समय जब देश के प्रधानमंत्री ने ताल ठोंक कर कहा था कि हां, ‘मैं चौकीदार हूं’ तब लोगों को लगा था कि विपक्ष के नेता की बात का जवाब दिया गया है। आज वही लोग इसे ऐसे समझ रहे हैं कि यह तो स्वीकारोक्ति थी। अब लोग यह समझ रहे हैं कि जब ‘वो’ चौकीदार हैं तो ज़रूर उनका कोई मालिक भी है। मौजूदा किसान आंदोलन ने इस रहस्य को जैसे सुलझा दिया है।

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बात बोलेगी: साजिशों के गर्भगृह में चयनित आस्थाओं का खेल

गणतंत्र दिवस के दिन राजधानी में अगर किसी भी प्रकार से कानून-व्यवस्था बिगड़ती है तो उसकी ज़िम्मेदारी केवल और केवल देश के गृह मंत्रालय की है। शांतिपूर्ण किसान मार्च में जो विचलन आए उसके लिए अगर समन्वय में कमी रह गयी तो यह पुलिस की तरफ से हुई, क्या पुलिस ने यही चाहा और होने दिया?

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बात बोलेगी: ‘अपहृत गणराज्‍य’ की मुक्ति की सम्‍भावनाओं का उत्‍तरायण!

बदलाव ऐसे ही होता है। पहले कुछ बदलते हैं, फिर बहुत लोग बदलते हैं। एक लहर दूसरे के लिए जगह बनाती है, उसे पैदा करती है। लहरें अब शांत और ठहर चुके तालाब में हलचल मचा चुकी हैं। हम उन्हें उठते गिरते देख रहे हैं।

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बात बोलेगी: हर शाख पे उल्लू बैठे हैं लेकिन बर्बाद गुलिस्ताँ का सबब तो कोई और हैं…

ये खोज जब तक पूरी नहीं होगी तब तक बेचारे शाख पर बैठे उल्लुओं को ही ‘हर हुए और किए’ का दोषी माना जाएगा। बड़ी चुनौती- शुरू कहाँ से करें? घर से? पड़ोस से? गाँव से? समाज से? प्रांत से या देश से? क्योंकि गुलिस्ताँ का मतलब अब भी काफी व्यापक था।

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बात बोलेगी: जनता निजात चाहती है, निजात भरोसे से आता है, भरोसा रहा नहीं, भक्ति कब तक काम आएगी?

विज्ञान से बेवफ़ाई करने पर सदियों से हमारे सनातनी समाज का कुछ नहीं बिगड़ा, तो छह सौ साल एक बाद प्रकट हुए एक हिन्दू राजा के शासनकाल में विज्ञान की परवाह करने की कौन ज़रूरत आन पड़ी? देखा जाएगा जो होगा सो, लेकिन अभी हमें बनती हुई वैक्सीन के जल्दी से जल्दी बन जाने के लिए ही कामनाएं करनी हैं।

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बात बोलेगी: सब कुछ याद रखे जाने का साल

तमाम दमन और उत्पीड़न के बावजूद इस नारे में भविष्य के लिए एक आश्वस्ति मिली कि भविष्य बेहतर होगा क्योंकि इस दमन को याद रखा जाएगा और उसका हिसाब लिया जाएगा और इस निज़ाम के बाद ऐसा निज़ाम नमूदार होगा जो इस दमन और उत्पीड़न को दोहराने की ज़ुर्रत नहीं करेगा।

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बात बोलेगी: जाते-जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया…

एक साँचे में ढले, एक जैसा आइक्यू, एक जैसे ब्यौपारी, दोनों की देशों की जनता का एक जैसे चौंकना, एक जैसे चुनाव अभियान, एक जैसी शोहरत,एक जैसी नफ़रत, एक जैसे अनंत झूठ- क्या ही ज़ुदा करता है दोनों को?

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