बात बोलेगी: जनता निजात चाहती है, निजात भरोसे से आता है, भरोसा रहा नहीं, भक्ति कब तक काम आएगी?


इक्कीसवीं सदी को ऐसे तो ज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की सदी होना था पर मुनाफे की होड़ और आवारा पूंजी के गठजोड़ ने इस सदी की दशा दिशा बदल दी। और ऐसे बदली कि खुद मुनाफाखोरों का दर्शन और उनका अपना ‘वाद’ ही संकट में आ गया। और संकट में भी ऐसा आया कि आवारा पूंजी को स्थायी बनाने के लिए प्राचीन काल से चला आ रहा अचल संपत्ति जमा करने का आजमाया हुआ नुस्खा अपनाने की नौबत आ गयी। उत्पादन, इंडस्ट्री, फैक्ट्री और इस तरह के तमाम उद्यम अब निश्चित तौर पर जोखिमों के अधीन मान लिये गये। गंभीर संकट से उपजी इस छटपटाहट ने दुनिया के मेहनतकशों के सामने ऐसा संकट पैदा कर दिया जिसके लिए उन्हें चैन से जीने के लिए मरने की ज़रूरत आन पड़ी। निजात के लिए आतुर लोगों का सबसे अंतिम ठौर जान देना होता गया। इसकी दर अभी इतनी कम है कि देश में आत्महत्या या आत्मघात की घटनाओं पर स्वत: संज्ञान लेने की नौबत नहीं आयी है, हालांकि इस निज़ाम में संज्ञान लेना भी तमाम जोखिमों के अधीन बना दिया गया है। और जिन्हें संज्ञान लेने के लिए अधिकृत किया गया है वो मुस्कुराने के बजाय हँस कर देशभक्ति का प्रमाण देने लगे हैं।

कोरोना अपने साथ एक निजात की खबर भी लेकर आया कि जब वायरस है तो उसका तोड़ भी निकलेगा। मामला कंप्यूटर से जुड़ा होता तो जानकार लोग दावे से यह बात कह सकते थे कि ज़रूर एंटी-वायरस बन चुका है। इसीलिए पहले दुनिया भर में कम्प्यूटरों में वायरस भेजा जाएगा और फिर एंटी-वायरस बेचा जाएगा। यह बात दावे से इसलिए कही जा सकती थी क्योंकि ऐसे कई तजुर्बे पहले हो चुके हैं। बार-बार दोहराने के बाद अगर प्रयोग एक ही जैसे परिणाम दें तो उसे विज्ञान में एक प्रमाण माना जाता है। जब कोरोना वैक्सीन की खबर आयी तब उसके साथ उसका नाम भी चला जो पहले एंटी-वायरस बना लेता था और उसके बाद अपने हेडक्वार्टर से पूरी दुनिया में वायरस फैला देता था। यहां निजात की उम्मीद में भी लोगों के सामने जान के लाले आ पड़े। कंप्यूटर जैसी औकात इंसान की बनाये जाने को लेकर दबी जुबानों से कुछ-कुछ खबरें बाहर आने लगीं लेकिन उन खबरों को किसी ने तवज्जो न दी। उनके साथ विज्ञापनों का बल और प्रचार युद्ध के लिए आक्रामक संसाधन जो न थे। खैर, शक शुबहा से शुरू हुआ वैक्सीन निर्माण का कारवां निर्बाध चलता रहा।

प्रयोगशालाओं से निकलकर वैक्सीन से ज़्यादा वैक्सीन की खबरें ही आने लगीं। कभी राष्ट्र के नाम संदेशों में, कभी यूं ही बैठे ठाले कुछ न करने की मनोस्थिति में कुछ करने के लिए मन की बातों में तो कभी औचक टीवी पर प्रकट होने के लिए। वैक्सीन की खबरों से राहतें तलाशते व्यापक समाज ने वैज्ञानिक चेतना से समझौता तक करना मंजूर किया। खबरदार जो बनती हुई वैक्सीन की खबरों पर कोई प्रतिक्रिया दी! माना कि शरीर अपना है पर है तो राष्ट्र का ही? अपने शरीर की फिक्र राष्ट्र की फिक्र भले हो लेकिन उसके प्रति सतर्कता का एक कदम भी आपको देशद्रोही बना सकता है। विज्ञान से बेवफ़ाई करने पर सदियों से हमारे सनातनी समाज का कुछ नहीं बिगड़ा, तो छह सौ साल एक बाद प्रकट हुए एक हिन्दू राजा के शासनकाल में विज्ञान की परवाह करने की कौन ज़रूरत आन पड़ी? देखा जाएगा जो होगा सो, लेकिन अभी हमें बनती हुई वैक्सीन के जल्दी से जल्दी बन जाने के लिए ही कामनाएं करनी हैं। कामनाएं फलीभूत भी होंगी क्योंकि ये कामनाएं उसके लिए हैं जो हमारे ह्रदयों का सम्राट है।

लो जी! देखते-देखते यह इंतजार इंतजारहीन हो गया। कोरोना की वैक्सीन ने नये वर्ष के प्रथम दिवस पर अपने आने की घोषणा भी कर दी। चंद रोज़ बाद यह इंसानी शरीरों में प्रविष्ट भी हो जाएगी। लेकिन ये क्या? कुछ नामुराद लोग इस घोषणा को जल्दबाज़ी बता रहे हैं? नेताओं का छोड़ ही दो, उनके नेता तो छुट्टियां मनाने चले गये, लेकिन वैज्ञानिक भी? क्या इन्हें अभी भी विज्ञान की चिंता है? ये कौन जमात है जो दो घटनाओं और दो बातों के बीच आज भी संबंध तलाशने की बीमारी से ग्रसित हैं? क्या इन्हें नहीं पता कि तर्क, विज्ञान की पहली और बुनियादी शर्त है और जब इतना बड़ा उपमहाद्वीप बिना तर्क के पिछले छह-सात साल से निर्बाध गति से चल रहा है तो क्या एक वैक्सीन बिना तर्क के नहीं चल सकती? चल सकती है और ज़रूर चल सकती है। चलेगी भी। जैसे बाकी सब कुछ चल रहा है वैक्सीन भी चलेगी।

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पेंच लेकिन बार-बार फंस जा रहा है। योगगुरू कहते हैं कि वो वैक्सीन नहीं लगवाएंगे। कम से कम इस बयान से 10-12 प्रतिशत को यह संदेश तो पहुंच ही गया कि उनके लिए कोरोनिल ही अचूक उपाय है। एक मुख्यमंत्री जो कोरोना के मामले में इच्छाधारी प्रवृत्ति का मुजाहिरा कर चुके हैं यानी जब उन्हें मन किया या कोई ऐसा राजनैतिक प्रसंग आ गया जहां उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति से उनके कद का घटाव-बढ़ाव हो सकता है तब तब उन्होंने कोरोना के अधीन आने या उससे मुक्त होने की घोषणाएं करने का कौशल अर्जित किया- वो भी यानी शिवराज सिंह ने भी कह दिया कि वो वैक्सीन नहीं लगवाएंगे। अब कोरोना जिनकी इच्छा से उनके शरीर में आवाजाही करे उसे परमानेंट नो एंट्री का साइन बोर्ड लगाने की ज़रूरत क्या है? अंदरूनी सूत्रों के हवाले से ऐसी खबर आयी है कि इससे केंद्रीय नेतृत्व थोड़ा नाखुश है।

एक पूर्व मुख्यमंत्री ने अपने दल के समर्थकों को भी यह संदेश दे डाला कि यह वैक्सीन भाजपा की है। जब सपा की सरकार की वापसी होगी तब यह वैक्सीन लगवायी जाएगी। तब तक कोरोना से भयातुर बने रहते हुए राजनैतिक मोर्चे पर केवल ट्विटर से जंग लड़ी जाती रहेगी। लीजिए, दो अढ़ाई प्रतिशत जनता को भी इशारा मिल गया कि ये वैक्सीन वैज्ञानिक खोज नहीं है बल्कि भाजपा की मिल्कियत है।

चयनित ढंग से तर्क की बैसाखी का सहारा लेकर कहीं से मनीष ति‍वारी भी इस मैदान-ए-जंग में यह कहते हुए कूद गये कि अभी ट्रायल फेज़ में ही इसकी अनुमति नहीं देना चाहिए। इससे देश की बड़ी आबादी को जोखिम में डाला जा रहा है। बात ठीक है, लेकिन मनीष ति‍वारी को पहले यह जवाब भी देना होगा कि उनके नेता कहां हैं? यहां वो मात खा गये। यही हाल शशि थरूर का हुआ। खैर, नवागंतुक वैक्सीन की घोषणा में अभी भी बड़ी आबादी निजात पाने का अहसास कर रही है।

लेकिन ये क्या? अदार पूनावाला ने अपने डॉग को टॉमी और बाकियों के डॉग को कुत्ता कह डाला! फिर क्या, दूसरे भी जो स्वदेशी ब्रांड यानी भारत बायोटेक के जनाब हैं उन्होंने अदार साहब की पोल खोल दी यह कहते हुए कि- मुंह न खुलवाओ। जिस वैक्सीन की डीलरशिप लेकर आये हो न, उन्होंने तो वैक्सीन के दुष्प्रभाव दबाने के लिए पैरासि‍टामोल जैसी सात्विक दवाई का इस्तेमाल किया है। जो भी नतीजे या सफलताएं इस विदेशी वैक्सीन की बतायी जा रही हैं वो भ्रामक और झूठी हैं। असल काम तो पैरासि‍टामोल ने किया।

ये जुबानी जंग अब कलई खोलने जा ही रही थी और वैक्सीन का तिलि‍स्म टूटने ही जा रहा था कि मंच पर अचानक अंधेरा छा गया। पर्दा गिरा दिया गया। कुछ देर तक दर्शक और देश की टीवी देखने वाली जनता उँगलियों के नाखून चबाती रही। तनाव चरम पर पहुंच रहा था कि पर्दा उठ गया। प्रकाश व्यवस्था पूर्ववत् हो गयी और दोनों कंपनियों के मालिकान ले के हाथों में हाथ मंच पर अवतरित हुए। उनके हाथ में संयुक्त बयान की एक संयुक्त प्रति थी, जिसका वाचन दोनों ने संयुक्त स्वर में किया और बताया कि दोनों वैक्सीन एक जैसी ही हैं। कोई किसी से कम नहीं है।

सवाल अब भी बना हुआ है कि एक सी हैं तो लेकिन किस मामले में? या तो दोनों ही पानी हैं। या दोनों ही पैरासि‍टामोल के भरोसे हैं। बड़ी आबादी फिर कनफ्यूज़ हुई बैठी है। कोई मदद नहीं मिल रही। वैज्ञानिकों की बातें सुनो तो वो भी प्रायोजित सवालों तक का सही जवाब नहीं दे पा रहे हैं। नेताओं से सवाल पूछो तो लगते हैं बताने कि तुम देशद्रोही हो। डॉक्टर्स ने आजकल सोचना छोड़ा हुआ है। वो आइसीएमआर के अधीन चले गये हैं। पत्रकार बेचारे इस बारे में क्या ही बोलें? विज्ञान की लंका  तो कब की लगा चुके हैं। अब बचता कौन है जिससे पूछें?

जनता निजात चाहती है। निजात भरोसे से आता है। भरोसा हो नहीं रहा। भक्ति कब तक काम आएगी?



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