बात बोलेगी: त्रेता और द्वापर के लोकतांत्रिक कड़ाहे में लीला और मर्यादा का ‘डिस्ट्रक्टिव’ पकवान


संसद के उच्च सदन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद भाषण देते हुए देश के प्रधानमंत्री जो कुछ भी कहते हैं  उसका दूरगामी असर होता है। यह एक चक्रीय प्रक्रिया जैसा होता है। पहले संघीय सरकार अपनी सरकार की उपलब्धियां राष्ट्रपति के मुखारविंद से संसद में कहलवा देती है, फिर तमाम पक्ष-विपक्ष के सांसद उस पर अपनी टिप्पणियां देते हैं और अंत में प्रधानमंत्री अपने आभार वक्तव्य में यह कहकर कि जो भी राष्ट्रपति ने कहा वह अक्षरश: सत्य है, उनके कहे पर सरकार की ओर से धन्यवाद ज्ञापित करते हैं।

एक तरह की पंचयती जैसी इस संसदीय प्रक्रिया का निर्वहन देश में अनवरत होता आ रहा है। अभिभाषण और भाषण के बारीक से अंतर के मुगालते में अंतत: सरकार विजेता घोषित हो जाती है। ज़रूर गुंजाइश होती है कि अभिभाषण में कुछ कतर-ब्यौंत हो लेकिन यहां सरकार के क्षेत्ररक्षण का कौशल काम करता है और चेयर भी इसकी भरपूर केयर करती है। पहले कतर-ब्यौंत होता देखा भी गया है लेकिन ‘न्यू इंडिया’ नामक इस इंडिया की ओल्ड हो चुकी संसद में इसके विरले ही उदाहरण देखने को मिल रहे हैं।

अपने अभिभाषण में भी राष्ट्रपति यह कहते पाये जाते हैं कि ‘मेरी सरकार’ या ‘हमारी सरकार’ ने ये किया, वो किया…इससे कई नादान लोगों को खामख्‍वाह ये मुगालता हो जाता है कि राष्ट्रपति निरपेक्ष नहीं हैं। वास्तव में यहीं राष्ट्रपति की संवैधानिक कदकाठी का मुजाहिरा भी होता है। वो महामहिम हैं लेकिन लीलाधर नहीं हैं। देश के मिथकीय नायकों की प्रचलित कथाओं का सहारा लेकर कहा जा सकता है कि वो मर्यादा से निबद्ध हैं। लीलाएं दिखाने के मौके उनके पास नहीं हैं। इसी कड़ी में उन्हें त्रेता युग का माना जा सकता है और द्वापर का भार प्रधानमंत्री पर है। देखा जाये तो हमारी संसद दो महान मिथकीय युगों के पहियों पर टिका ऐसा रथ है जिस पर जबरन लोकतंत्र को सवार कर दिया गया है। यह अनायास नहीं है कि त्रेता और द्वापर के बीच ग्रेगरि‍यन कैलेंडर से लयबद्ध आधुनिक लोकतंत्र कहीं लुप्त हो रहा है। हिंदुस्तान का मानस इसी त्रेता और द्वापर में कहीं अटक गया है। गलती उसकी नहीं है, उसे इस रथ पर यही मर्यादा और लीला दिखलायी दे रही है। वो उसी को देखकर जी रहा है।

इस तर्क सरणी के छतनार में अब प्रधानमंत्री के भाषण के महत्वपूर्ण बीज शब्द निकालकर उन्हें एक तश्तरी में रख लें, अच्छे से धो-पोंछ कर पुन: उनका अवलोकन करें और उसकी संदर्भ सहित व्याख्या की कढ़ी बनाने की तैयारी करें। सबसे पहले एक कढ़ाही या देगची लें, उसे मद्धिम आंच पर चढ़ा दें। बेसन और दही के बिना भाषण के बीज शब्दों की कढ़ी बनाने की ऐसी विधि संभवतया ज्ञात इतिहास में नहीं मिलेगी। तो बने रहिए हमारे साथ, लेकिन खुद का साथ छोड़े बगैर।

ध्यान दें, प्रधानमंत्री अक्सर द्वि-अर्थी भाषा में बोलते हैं। हमें चुन -चुन कर उन अर्थों को लेना है जिसके दूरगामी असर होते हैं। चाहें तो एक छन्नी अपने साथ रखें। एक अर्थ सर्वमान्य होता है और एक जो मौका-दस्तूर के हिसाब से बदलते रहता है। सर्वमान्य अर्थ से कढ़ी नहीं पकेगी। इसे छन्नी से छानकर एक तरफ रख दें। इसे इसकी तासीर और स्वरूप के हिसाब से नीले या हरे रंग की गीली-सूखी बाल्टी में डाल दें। यहां अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

जैसा प्रधानमंत्री ने कहा, देश को विदेशी विध्वंसक विचारधाराओं (फ़ॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियॉलॉजी) से बचाना, सतर्क व सावधान रहना है जबकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (फ़ॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) देश के लिए हितकर है। अब यहां एक ही शब्द युग्म का इस्तेमाल दो अर्थों में किया गया है। हमें पहले अर्थ को लेना है क्योंकि यहीं ‘मृग की कस्तूरी’ वास करती है जिसका इस्तेमाल हमें संदर्भ-प्रसंग और व्याख्या की कढ़ी बनाने में करना है।

सबसे पहले बात करते हैं संदर्भ की। कोई बात संदर्भ में ही कही जाती है या हर बात के कहने के पीछे एक संदर्भ होता है। यह एक सभ्यतागत सच है और ऐसी विशेषता है जो मनुष्य मात्र को अन्य प्राणियों से पृथक करती है, हालांकि अन्य प्राणियों पर हुए शोध ने यह बताया है कि जानवर भी अकारण नहीं बोलते बल्कि उनके बोलने के पीछे भी कोई न कोई संदर्भ होता है। यानी भय में, भूख में, खुशी में, रंज में सभी प्राणी बोलते हैं। हां, भाषा की बारीकियां उनमें विकसित नहीं हुई हैं इसलिए उनमें द्वि-अर्थी बातें होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

फिलहाल प्रधानमंत्री ने जब यह कहा तो उसका मौलिक संदर्भ यह था कि देश में मानव अधिकारों के हनन की अब इतनी वारदातें हो चुकीं हैं कि घड़े में पाप जमा होकर उगलने की सी सूरत बन गयी है। चूंकि घड़ा लगातार वारदातों की खबरें उगल रहा है तो राह चलते लोगों का ध्यान उस पर जा रहा है। न केवल ध्यान जा रहा है बल्कि तेज़ी से ध्यान जा रहा है। इन्टरनेट की गति प्रकाश की गति से भी तेज़ हुई जा रही है। तो लोगों के ध्यान में ये सब आ रहा है। लोग हैं और संवेदनशील लोग हैं, तो इन बहती हुई वारदातों पर सरकार को आगाह कर दे रहे हैं कि भाई- अब मोटर बंद करो, पानी बह रहा है टाइप से, जैसे अक्सर पड़ोसी करते हैं।

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प्रथम दृष्ट्या ये वाजिब बात है। कोई बहते हुए पानी को लेकर संवेदनशील है, चिंतित है तो इसमें बुरा क्या मनाना, लेकिन प्रधानमंत्री को लगता है कि ये अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप कहलाएगा। और इसलिए ‘जल ही जीवन है’, ‘पानी है तो कल है’ या ‘मानव अधिकारों से खिलवाड़ कब तक’? जैसी बातें जो राह चलते लोग बोल रहे हैं उन पर कान नहीं देना है, ये डिस्ट्रक्टिव आइडियॉलॉजी है जो विदेश से आ रही है।

लेकिन यह इस संदर्भ की तात्कालिक व्याख्या भर है। इसकी ऐतिहासिक व्याख्या और दीर्घकालीन व्याख्या यह है कि यदा यदा ही देश-दुनिया में पूंजीवाद अपनी ही बनायी भूलभुलैया में फँसता है और लोगों को दिखाये हसीन सपने डिलीवर करने में चूकने लगता है। शनै: शनै: लोगों का आकर्षण उससे हटने लगता है और मुनाफा नामक अंतिम उत्पाद के उत्पादन में बेतहाशा क्षरण होने लगता है। तब जर्मनी में पैदा हुई एक विचारधारा पूंजीवाद से सताये लोगों को सहारा देने खड़ी हो जाती है। वो किसानों के बीच, मजदूरों के बीच, कल-कारखानों में, दफ्तरों में, बैंकों में, परिवहन में, कालेजों में, विश्वविद्यालयों में जा बैठती है। लोगों की चिंताओं, सपनों को स्वर देने लगती है। मुक्ति की प्रार्थना गीत बनकर सताये लोगों का कंठहार बन जाती है। तब यह निज़ाम के लिए ज़रूरी हो जाता है कि ऐसी जुंबिशों को डिस्ट्रक्टिव बताया जाये।

यहां प्रधानमंत्री ने इस बात का भी ख्याल रखा है क्योंकि कोरोनाजनित ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए इन्हीं मार्गों पर कंटक बिछाए गए हैं जहां से इस विचारधारा के फूल उगने तय हैं। यह युद्ध की तैयारी है।

प्रधानमंत्री तमाम टोना-पद्धतियों से लैस होने के बावजूद यहां भी दो अर्थों की गुंजाइश छोड़ गए, लेकिन उन्हें भरोसा है कि उन्होंने जिन्हें संबोधित किया है वे इस दूसरे अर्थ को कभी नहीं खोलेंगे या उनमें इतना हुनर नहीं है। वो अर्थ यह है कि अगर जर्मनी में पैदा और विकसित हुई विचारधारा से परहेज करना है तो क्या इटली में पैदा हुई और जर्मनी में भी एक दौर में अपनायी गयी विचारधारा को अंगीकार किया जाना है? संभव है उन्होंने इसी विचारधारा को डिस्ट्रक्टिव कहकर गुनाह की माफी मांगी हो, लेकिन उनका अंदाज़ ऐसा रहा कि लोगों ने उसे आत्म-स्वीकृति न समझकर आरोपण समझ लिया है? बात और बात के अंदाज़ से उनके अर्थ यहां- वहां हो जाने का खतरा बना रहता है जिसे लोग अपने अपने नज़रिये से ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। कन्फ़्यूजन की इस स्थिति में आप दोनों अर्थों को कढ़ी बनाने में इस्तेमाल कर सकते हैं।

अब आते हैं प्रसंग पर- यहां भी फौरी और दीर्घकालीन मामला है। फौरी ये है कि पड़ोसी या राह चलते अंजान व्यक्ति को घर के मामले में तांक-झांक की इजाजत नहीं देना है और उनकी बातों पर ध्यान न देने की नसीहत दी गयी है क्योंकि इससे घर की बदनामी होती है। बदनामी के साथ एक बहुत सब्‍जेक्टिव सहूलियत ये है कि यह आपके मानने पर है। आप चाहें तो उस कृत्य को बदनामी मान सकते हैं जिसके कारण किसी को कुछ कहने का मौका मिला है। आप चाहें तो उस कहे हुए को बदनामी माने। प्रमं ने यहाँ दूसरी बात को बदनामी का सबब माना है। कृत्य को सही ठहराने के लिए यह ज़रूरी है कि उस पर हुई बदनामी को डिस्क्रेडिट कर दिया जाये।

प्रसंग में दीर्घकालीन मामला ये है कि इसी दुनिया में जर्मनी नामक एक देश में एक शासक ऐसा हुआ है जिसका अंदाज़-ए बयान, चाल-चलन, चरित्र आदि प्रमं से मिलता है और अनायास नहीं बल्कि बजाफ़्ता आयातित है। वो है उस शासक के नक्श-ए-कदम। तो जब वो शासक ऐसी ही परिस्थिति में फंसा तो उसने ऐसा ही रूपक रचा था। एक जमात को कुछ नाम दिया, उस जमात की विचारधारा, उसकी नस्ल, उसके रंग, रूप को निंदनीय बतलाया, समाज और देश के लिए खतरा बतलाया। इस तरह सोचने से हालांकि ‘शेष बची चौथाई रात’ की तसल्ली मिलती है। अपनी रेसिपी में आप प्रसंग के दूसरे हिस्से का ही उपयोग करें तो, जायका बनेगा।

The Telegraph, Page 1

अब आते हैं अंतिम बात पर और वो है व्याख्या, जिससे सब बचते हैं। बचते इसलिए हैं कि ऐसे आलम में जिसका प्रसंग एक ऐतिहासिक शासक की साम्यता पर टिका हो तब व्याख्या करने के खतरे बढ़ जाते हैं। फिर भी कढ़ी बनाना है तो उसके अवयवों को इकट्ठा तो करना पड़ेगा न, साधौ। तो व्याख्या बहुत सिंपल है। मानव अधिकारों पर राज्य प्रायोजित जो छोटी-बड़ी वारदातें की जा रही हैं और मानव कल्याण के तमाम दावे, वादे, खाली कनस्तर की आवाज़ें निकाल रहे हैं तब सिवाय भयंकर अराजकता फैलाने के कोई ऐसा मार्ग नहीं बचता है जिससे किले को अभेद्य रखा जा सके।

राज्य का गठन हिंसा के केन्द्रीय दमन की ज़रूरी यान्त्रिकी के तौर पर भी हुआ था और इसलिए उसमें दमन की तमाम केंद्रीय शक्तियाँ अंतर्निहित की गईं थीं। इन शक्तियों के बल पर ही यह कल्पना लोक रचा गया था कि इतनी शक्तियों से सम्पन्न राज्य नामक यह यान्त्रिकी लोगों का कल्याण कर सकेगी। हालात अब कल्याण की अवधारणा से ऊपर निकल चुके हैं और असंतोष की बाढ़ खतरे के निशान से ऊपर बह रही है तो इस शक्तिसम्पन्न राज्य के सामने वो परिस्थितियां पैदा किया जाना समय की मांग है ताकि राज्य और उसका विधान और उसे संचालित कर रही मौजूदा सरकार अपने होने की ज़रूरत को बनाए रख सकें। आपको क्या लगता है नक्श-ए-कदम से यह नहीं सीखा होगा?

तो ले लीजिए इस व्याख्या को भी और अब देगची में उबाल आने का इंतज़ार कीजिए। बीच-बीच में कलछी चलाते रहिएगा। कहीं कढ़ी देगची से चिपके न इसका ख्याल रखिए। जब कलछी चलाएं तो देखते रहिए त्रेता, द्वापर, मर्यादा और लीला के बीच आपको कहीं-कहीं विविधतता से परिपूर्ण लोकतंत्र का लदर-फदर टुकड़ा डोलते नज़र आएगा। उसकी परवाह नहीं करना है, वह जायके में प्रकट होगा।



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