लो जी, बहुप्रतीक्षित शताब्दी बजट भी आ गया। जितनी निराशा की उम्मीद लोगों ने इससे जतायी थी उससे ज़्यादा ही हुई। यह सौ साल का सबसे चामत्कारिक बजट कहा गया। खुद वित्तमंत्री ने ऐसा बताया। ये और बात है कि इस सरकार के मंत्रियों में गणना को लेकर जबर्दस्त भ्रम हैं। इसे आप ‘गणनात्मक भ्रम’ कह सकते हैं। जब देश में कुछ नहीं होने का ताना मारा जाता है तब वो आज़ादी के बाद बने एक देश को सत्तर-बहत्तर साल का बताते हैं और जब खुद मियां मिट्ठू बनने का वक़्त आता है तो इसे सौ साल का बताने लगते हैं। बहरहाल।
यह बजट ऐतिहासिक है और कई लोग इसे लगभग अंतिम बजट भी मान रहे हैं क्योंकि इसके बाद इस हद दर्जे की भयंकर राष्ट्रवादी सरकार के पास बेचने के लिए कुछ बचेगा नहीं। अगला बजट आने के बीच अभी साढ़े तीन सौ दिनों का लंबा वक्फ़ा है। इस बीच विरासतें बिकती रहेंगी। इसलिए जब अगला बजट पेश करने का वक़्त आएगा तब बहुत संभव है कि सरकार एक जोरदार भाषण लगाकर कह दे कि ‘देश हो गया है अब आत्मनिर्भर, जिसे जैसे दिखे, जहां दिखे कमाये और अपना अपना जीवन चलाये।‘ सरकार की तरफ देखना निर्भरता है, उससे विमुख होना आत्मनिर्भरता। आज कही बात का मतलब जब वर्षों बाद निकाला जाये तो उसमें कहने वाले की दूरदर्शिता छिपी होती है। इस लिहाज से यह सरकार परम दूरदर्शी है।
2019 के आम चुनाव के समय जब देश के प्रधानमंत्री ने ताल ठोंक कर कहा था कि हां, ‘मैं चौकीदार हूं’ तब लोगों को लगा था कि विपक्ष के नेता की बात का जवाब दिया गया है। आज वही लोग इसे ऐसे समझ रहे हैं कि यह तो स्वीकारोक्ति थी। अब लोग यह समझ रहे हैं कि जब ‘वो’ चौकीदार हैं तो ज़रूर उनका कोई मालिक भी है। मौजूदा किसान आंदोलन ने इस रहस्य को जैसे सुलझा दिया है। यह साबित हो चला है कि मोदी केवल चौकीदार हैं और इनके असल मालिक अडानी-अंबानी हैं। किसानों ने तो उद्घोष भी कर ही डाला कि मोदी –‘न धर्म दा न साइंस दा, ये तो है रिलायंस दा’।
इस मामले में हालांकि सरकार की, दल की, दल की माता संघ की, भक्तों की, मीडिया की, टू मच डेमोक्रेसी वालों की दाद देना पड़ेगी कि किसी एक ने भी ये नहीं कहा कि–‘ऐसा नहीं है’ या ‘ये आरोप निराधार हैं, प्रधानमंत्री तो देश का होता है’, वगैरह वगैरह…। ऐसी सहज स्वीकृति प्राय: लुप्तप्राय है। अब देश का बच्चा बच्चा यह जान गया लगता है कि मोदी रिलायंस का है, अडानी का है, भाजपा का है, संघ का है, कैमरे का है, श्रृंगार का है, निर्लज्जता का है, अहंकार का है, मूरखों का है, मूर्खताओं का है, लेकिन यह जनता का नहीं है, किसानों का नहीं है, मजदूरों का नहीं है, युवाओं का नहीं है, बेरोजगारों का नहीं है, शिक्षा का नहीं है, स्वास्थ्य का नहीं है। रोड का है लेकिन टोल टैक्स वाले रोडों का, रेल का है लेकिन बढ़े हुए किरायों की रेलों का। ऐसे तो स्वस्थ्य और शिक्षा का भी है लेकिन निजी स्वामित्व के संस्थानों का ही। मोदी वैक्सीन का भी है, लेकिन फ्री वाली का नहीं।
मोदी किसका है? अब यह देश के बीच सबसे बड़ी चर्चा है। कुछ लोग धर्म का कहते हैं। बहुतेरे लोग मानते हैं कि हिन्दू धर्म का है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि व्यापारी है तो व्यापार का है लेकिन ऐसे कितने ही व्यापारी हैं जो यह मानते हैं कि मोदी व्यापार का भी नहीं है। अगर होता तो छोटे और मझोले व्यापारी भारत के बजट की तरह अपनी संपत्तियाँ बेचकर दाल रोटी न खा रहे होते। कुछ लोग मानते हैं कि मोदी किसी का नहीं है और ऐसा कहते समय वे उनकी निजी ज़िंदगी की तरफ इशारा मारते हैं, लेकिन यहां अपना ऐसा कोई मकसद नहीं है।
खैर मोदी किसी के भी हों, हैं तो देश के प्रधानमंत्री ही न! लेकिन इसी पहेली में है मज़ा। अगर ये सुलझ गयी या सुलझा ली जाये तो देश को हर मोर्चे पर होने वाली फजीहत से बचाया जा सकता है। जैसे मान लीजिए, वे कहीं किसी भाषण में नाले से गैस और उस गैस से चाय बनाने की तरकीब बता रहे हों या प्लास्टिक सर्जरी जैसी चिकित्सा पद्धति आदि का ज़िक्र कर रहे हों और आपके पढ़े-लिखे दोस्त उनका मज़ाक बनाने लग जाएं, तो आप वहां यह कहकर बच निकल सकते हैं कि –‘वो साइंस दा थोड़े ही हैं’। फर्ज़ कीजिए वो 2ab समझाने लगे अलजेब्रा का। सामने बैठी गणित की जमात खिल्ली उड़ाने को हो तो आप कह दें- ‘वो गणित दा थोड़े ही हैं’।
इस प्रक्रिया को ‘डिस-ओन’ यानि इंकार करना कहा जाता है। आप यह प्रक्रिया बार-बार दोहराते रहें, इससे आपको सुकून मिल सकता है, हालांकि उस परिस्थिति से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आप इंकार करते करते थक जाएं, ढेर हो जाएं, आखिर तो देश का प्रधानमंत्री ही है न। और प्रधानमंत्री को तो हर विषय, हर मुद्दे पर बोलना होता है। जिन विषयों पर बोलना ज़रूरी न भी हो वहां भी मोदी कोई जुगत बैठा लेते हैं और भक से बोल देते हैं। तो आपको ऐसे तमाम मुद्दों और विषयों पर उनको डिस-ओन करना पड़ सकता है।
और इस संसार में मुद्दों की कोई कमी है क्या? आखिर कब तलक यह डिस-ओन डिस-ओन खेलते रहेंगे? कहीं तो आपको ज़िम्मेदारी उठाना पड़ेगी? कहीं तो मान लेना पड़ेगा कि भाई, यहां मैं अपने प्रधानमंत्री की कही बात को इज्ज़त देता हूं और ये मानता हूं कि जो कहा वो ठीक है या इसे ठीक होना ही चाहिए। आखिर एक प्रधानमंत्री कैसे लगातार इस तरह बोल सकता है कि उसके देश के नागरिकों को बार बार उसे ‘डिस-ओन’ करना पड़े?
महंगाई पर, देश की सुरक्षा पर, कश्मीर की खुशहाली पर, मुसलमानों की सुरक्षा पर, महिलाओं के सम्मान पर, किसानों की आय पर, छोटे उद्योगों की सेहत पर, मिडिल क्लास की बेहतरी पर, नौकरियों के अवसरों पर, आर्थिक तरक्की पर, ग्रोथ पर, विकास पर, पेट्रोल-डीजल के दामों पर, गैस सिलेन्डर की कीमतों पर, आय कर पर, बिक्री कर पर, वस्तु एवं सेवा कर पर, कहां-कहां आप इस एक व्यक्ति को ‘डिस-ओन’ कर पाइएगा? बताइए?
एतबार, जम्हूरियत के लिए बहुत ज़रूरी है। सब कुछ होता है, बस एतबार नहीं होता है। अब तो उनको भी नहीं हो रहा है जिन्होंने बीते छह साल में ठूंस-ठूंस कर एतबार अपनी जेबों में भर लिए थे। जिन्हें उनकी बातों पर इस कदर भरोसा था कि उनकी बात न मानने पर किसी का कत्ल कर दें। मसलन, मोदी आएंगे तो इन्कम टैक्स नहीं भरना पड़ेगा। डॉलर की कीमत में अब रुपये नहीं बल्कि रुपये की कीमत में अब डॉलर बिकेंगे। चीन-पाकिस्तान, अफगानिस्तान- ईरान, इराक, बगदाद, रूस, इंग्लैंड के लोग अपने यहां पानी भरने आएंगे।
जब उनसे हम कहते थे कि ऐसा नहीं होता है, तो जेब से एतबार की दो-चार पुड़िया निकाल कर गुलेल में फँसा कर कैसे तो वे अपुन की तरफ उछालते थे। याद है न?
उन्हें शांति मिले और उनके एतबार को जन्नत नसीब हो। उन्हें एक नेक सलाह है- अब कहिए इस व्यक्ति से कि आजमा लिया है। परख लिया है। देख लिया है। बस! अब और नहीं देखना।