एक लड़ाई मुहब्बत की: यलगार परिषद 2021 में अरुंधति रॉय का भाषण


मैं 2021 यलगार परिषद के आयोजकों का शुक्रिया अदा करती हूं कि उन्होंने मुझे आज के दिन इस मंच पर बोलने के लिए बुलाया. आज जो रोहित वेमुला की 32वीं सालगिरह रहा होता, और जो 1818 में भीमा कोरेगांव की लड़ाई में जीत का दिन है. वह जगह यहां से दूर नहीं है, जहां ब्रिटिश आर्मी में लड़ने वाले महार फौजियों ने पेशवा राजा बाजीराव द्वितीय को हराया था, जिनकी हुकूमत में महार और दूसरी दलित जातियां सताई जाती रही थीं और उन्हें इस कदर बाकायदा अपमानित किया जाता कि बयान करना मुश्किल है.

इस मंच से बाकी वक्ताओं के साथ अपनी आवाज मिलाते हुए मैं किसानों के आंदोलनों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर करती हूं, जिनकी मांग है कि उन तीन कृषि विधेयकों को फौरन वापस लिया जाए जिन्हें जबरदस्ती लाखों किसानों और खेतिहर मजदूरों के ऊपर थोप दिया गया है. इसके नतीजे में वे सड़कों पर उतर आए हैं. हम यहां उन अनेक लोगों के लिए अपना गम और गुस्सा जाहिर करने आए हैं, जिनकी मौत इस आंदोलन के दौरान हुई है. दिल्ली की सीमा पर हालत तनावपूर्ण और खतरनाक होती जा रही है, जहां दो महीनों से किसानों ने शांति के साथ डेरा डाल रखा है. इस आंदोलन में फूट डालने और इसे बदनाम करने के लिए हर संभव तरकीब अपनाई जा रही है, उकसाया जा रहा है. हमें पहले से कहीं ज्यादा इस वक्त किसानों के साथ खड़े होने की जरूरत है.

हम यहां उन दर्जनों सियासी कैदियों की रिहाई की मांग करने के लिए भी जमा हुए हैं, जिनको सख्त आतंक-विरोधी कानूनों के तहत बेतुके आरोपों में जेल में बंद रखा गया है. और इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें अब भीमा कोरेगांव सिक्सटीन के नाम से जाना जाता है. उनमें से अनेक न सिर्फ संघर्ष के साथी हैं, बल्कि मेरे निजी दोस्त हैं जिनके साथ मिल कर मैं हंसी हूं, जिनके साथ चली हूं, जिनके साथ मैंने रोटियां खाई हैं. किसी को भी इसमें यकीन नहीं है, शायद उनको कैद करने वालों को भी, कि उन्होंने सचमुच वे घिसे-पिटे अपराध किए हैं जिनके इल्जाम उन पर लगे हैं. सब जानते हैं कि वे जेल में हैं क्योंकि वे एक साफ समझदारी और नैतिक साहस रखते हैं – और ये दोनों ही खूबियां ऐसी हैं  जिन्हें यह हुकूमत एक अहम खतरे के रूप में देखती है. कोई सबूत मौजूद नहीं है, तो इसकी कमी पूरी करने के लिए कुछ लोगों के खिलाफ दसियों हजार पन्नों की चार्जशीट दाखिल की गई है. एक जज को उन पर फैसला करने की बात तो दूर, उनको बस पढ़ने भर में कई साल लग जाएंगे.

फर्जी आरोपों से अपना बचाव करना उसी तरह मुश्किल है, जिस तरह सोने का नाटक कर रहे किसी इंसान को जगाना. भारत में हमने सीखा है कि कानूनी निबटारे पर निर्भर करना एक जोखिम भरा काम है. वैसे भी, कहां और कब ऐसा हुआ कि अदालतों ने फासीवाद की लहर को मोड़ दिया हो? हमारे मुल्क में कानूनों पर बहुत चुनिंदा तरीके से अमल किया जाता है, जो आपके वर्ग, जाति, एथनिसिटी, धर्म, जेंडर और राजनीतिक विचारों पर निर्भर करता है. इसलिए, जहां कवि और पादरी, छात्र, एक्टिविस्ट, टीचर और वकील जेल में हैं, कत्लेआम करने वालों, सिलसिलेवार हत्याएं करने वालों (सीरियल किलर्स), दिन दहाड़े पीट-पीट कर हत्याएं करने वाली भीड़, विवादास्पद जजों और ज़हर उगलने वाले टीवी एंकरों को इनाम से नवाजा जा रहा है. और वे ऊंचे पद की उम्मीद कर सकते हैं. सबसे ऊंचे पद की भी.

कोई भी इंसान जिसके पास एक औसत समझ भी हो, वह इस पैटर्न को देखने से चूक नहीं सकता कि कैसे एक ही तरीके से, उकसाने वाले एजेंटों द्वारा 2018 की भीमा कोरेगांव रैली, 2020 के सीएए विरोधी आंदोलनों और अब किसानों के आंदोलनों को बदनाम करने और उन्हें तोड़ने की कोशिश हुई है. ऐसे काम करके उनका कुछ नहीं बिगड़ता, जो दिखाता है कि मौजूदा हुकू्मत में उन्हें कितना समर्थन हासिल है. चाहे तो मैं आपको यह दिखा सकती हूं कि दशकों से किस तरह बार-बार दोहराते हुए यही पैटर्न इन लोगों को सत्ता में ले आया है. अब जब पश्चिम बंगाल में चुनाव करीब आ रहे हैं, हम सहमे हुए इंतजार कर रहे हैं कि राज्य के लोगों को जाने क्या देखना है.

कॉरपोरेट मीडिया ने पिछले दो बरसों में एक आयोजन और एक संगठन के रूप में यलगार परिषद के बारे में लगातार बदनामी फैलाई है. एलगार परिषद: अनेक आम लोगों के लिए, दो शब्दों का यह नाम रेडिकल लोगों का – आतंकवादियों, जिहादियों, अर्बन नक्सलियों, दलित पैंथर्स का – एक ऐसा संदिग्ध खुफिया गिरोह बन गया है, जो भारत को बर्बाद करने की साजिश में लगा हुआ है. बदनाम करने, धमकाने, डराने और घबराहट फैला देनेवाले माहौल में, इस सभा को आयोजित करना ही अपने आप में साहस और चुनौती की ऐसी कार्रवाई है, जो सलाम करने के लायक है. इस मंच पर मौजूद हम लोगों पर यह जिम्मेदारी है कि जितना मुमकिन हो बेबाकी से हम अपनी बात रखें.

करीब तीन हफ्ते पहले, अमेरिका में 6 जनवरी को, जब हमने झंडों, हथियारों, फांसी की सूली और सलीबों से लैस, फर और हिरण के सींग पहने हुए एक अजीबोगरीब भीड़ को अमेरिकी संसद पर हमला करते देखा तो मेरे दिमाग में एक खयाल उठा, “भला हो हमारा, हमारे मुल्क में हम पर तो इनके जैसे लोगों की हुकूमत चल रही है. उन्होंने हमारी संसद पर कब्जा कर रखा है. वे जीत चुके हैं.” हमारे संस्थानों पर उनका कब्जा है. हमारे रहनुमा हर रोज़ अलग-अलग किस्म के फरों और सींगों में नज़र आते हैं. हमारी पसंदीदा दवा गोमूत्र है. वे इस मुल्क के हरेक लोकतांत्रिक संस्थान को तबाह करते जा रहे हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका भले ही बड़ी मुश्किल से, इस कगार से लौट पाने में कामयाब रहा और कुछ-कुछ अपने साम्राज्य की सामान्य चाल-चलन की झलक देने लगा है. लेकिन भारत में हमें अतीत में सदियों पीछे ले जाया जा रहा है, जिससे बचने के लिए हमने इतनी कड़ी कोशिशें की हैं.

नहीं हम वो नहीं है – यलगार परिषद का यह जलसा कोई रेडिकल या चरमपंथी नहीं है. यह हम नहीं हैं जो असल में कोई गैरकानूनी और संविधान विरोधी काम कर रहे हैं. यह हम नहीं हैं जिन्होंने अपनी नजरें फेर लीं, या खुले तौर पर कत्लेआमों को बढ़ावा दिया, जिनमें हजारों की तादाद में मुसलमानों का कत्ल किया जाता रहा है. यह हम नहीं हैं जो शहरों की सड़कों पर सरेआम दलितों को कोड़े लगाए जाते हुए चुपचाप देखते हैं. यह हम नहीं हैं जो लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं और नफरत और फूट के दम पर हुकूमत चला रहे हैं. यह काम उन लोगों द्वारा अंजाम दिया जा रहा है जिन्हें हमने अपनी सरकार के रूप में चुना है, और उनकी प्रचार मशीनरी द्वारा अंजाम दिया जा रहा है जो खुद को मीडिया कहता है.

भीमा कोरेगांव की लड़ाई के दो सौ साल गुजर चुके हैं. ब्रिटिश लोग जा चुके हैं, लेकिन उपनिवेशवाद का एक ढांचा अभी भी बना हुआ है, जो उनसे भी सदियों पहले से चला आ रहा था. पेशवा जा चुके हैं, लेकिन पेशवाई यानी ब्राह्मणवाद नहीं गया है. यहां आप सब सुनने वालों के लिए मुझे यह कहना जरूरी नहीं है, लेकिन जो नहीं जानते उनके लिए मुझे कहना होगा कि ब्राह्मणवाद एक ऐसा नाम है जिसका उपयोग जाति-विरोधी आंदोलन ऐतिहासिक रूप से जाति व्यवस्था के लिए करते रहे हैं. इसका मतलब सिर्फ ब्राह्मण नहीं है. हालांकि इस ब्राह्मणवाद को एक कारखाने में ले जाया गया था, जहां इसे आधुनिक, लोकतांत्रिक लगने वाले जुमले दिए गए और जातियों पर नियंत्रण रखने का एक बारीक और विकसित मैनुअल और प्रोग्राम मिला है (जो नया नहीं है, बस उसकी कमजोरियां दूर कर दी गई हैं). इसने दलित-बहुजनों की रहनुमाई वाले राजनीतिक दलों के सामने वजूद की चुनौती खड़ी कर दी है, जिनसे कभी कुछ उम्मीद मिलती थी. 21वीं सदी के ब्राह्मणवाद का चुना हुआ वाहन, ब्राह्मण नेतृत्व वाला आरएसएस है, जो एक सदी की अथक मेहनत के बाद अपने नामी सदस्य नरेंद्र मोदी के जरिए दिल्ली में सत्ता पर काबिज है.

कइयों का यह मानना था कि आधुनिक पूंजीवाद भारत में जाति का अंत कर देगा या कम से कम इसे बेकार बना देगा. खुद कार्ल मार्क्स का भी यही मानना था. लेकिन क्या ऐसा हुआ? दुनिया भर में पूंजीवाद ने इसे यकीनी बनाया है कि दौलत रोज़ ब रोज़ बहुत ही थोड़े से हाथों में सिमटती चली जाए. भारत में 63 सबसे अमीर लोगों के पास जितनी दौलत है वह 1.3 अरब लोगों के लिए 2018-19 के केंद्रीय बजट से भी ज्यादा है. हाल में ऑक्सफेम के एक अध्ययन में पाया गया कि कोरोना महामारी के दौरान भारत में जहां करोड़ों लोगों ने लॉकडाउन में अपना रोजगार खोया, अप्रैल 2020 के महीने में हरेक घंटे में 1 लाख 70 हज़ार लोगों के हाथों से काम छिन रहा था, वहीं इसी दौरान भारत के अरबपतियों की दौलत 35 फीसदी बढ़ गई. उनमें से सबसे अमीर सौ लोगों ने – चलिए उन्हें कॉरपोरेट क्लास कहते हैं – इतना पैसा बनाया कि अगर वे चाहते तो भारत के सबसे गरीब 13 करोड़ 80 लाख लोगों में से हरेक को करीब 1 लाख रुपए दे सकते थे. कॉरपोरेट मीडिया के एक अखबार ने इस खबर की यह हेडलाइन लगाई: कोविड डीपेन्ड इनइक्वलिटीज़: वेल्थ, एजुकेशन, जेंडर (कोविड से गहराती गैरबराबरी: दौलत, शिक्षा, जेंडर). बेशक अखबार की इस खबर से और हेडलाइन से जो शब्द गायब था वह थी, जाति.

सवाल यह है कि क्या इस छोटे-से कॉरपोरेट क्लास – जिसके पास बंदरगाह, खदानें, गैस के भंडार, रिफाइनरियां, टेलीकॉम्युनिकेशन, हाई स्पीड डाटा और मोबाइल नेटवर्क, विश्वविद्यालय, पेट्रोकेमिकल कारखाने, होटल, अस्पताल, और टेलिविजन केबल नेटवर्क हैं – एक तरह से भारत पर जिसका मालिकाना है और जो इसे चलाता है, क्या इस वर्ग की कोई जाति है? काफी हद तक, हां है. अनेक सबसे बड़ी भारतीय कॉरपोरेट कंपनियों पर परिवारों का मालिकाना है. कुछेक सबसे बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों की मिसाल लें – रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लि. (मुकेश अंबानी), अडाणी ग्रुप (गौतम अडाणी), आर्सेलर मित्तल (लक्ष्मी मित्तल), ओ.पी. जिंदल ग्रुप (सावित्री देवी जिंदल), बिड़ला ग्रुप (के.एम. बिड़ला). वे खुद को वैश्य कहते हैं. वे बस विधि के विधान में लिखा हुआ अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं – पैसा बना रहे हैं.

राग दरबारी: मुद्दों के दौर में सामाजिक न्याय की दिशाहीन राजनीति

कॉरपोरेट मीडिया के मालिकाने के बारे में जमीनी अध्ययनों को देखा जाए, और उनके संपादकों, उनमें नियमित लिखने वाले स्तंभकारों और वरिष्ठ पत्रकारों का जातिवार हिसाब लगाया जाए तो इससे उजागर होगा कि खबरों को बनाने और चलाने के मामले में प्रभुत्वशाली जातियों, खास कर ब्राह्मण और बनिया जातियों का कितना दबदबा है – चाहे खबरें असली हों या फर्जी. दलित, आदिवासी और अब दिन ब दिन मुसलमान इस पूरे मंजर से ही गायब हैं. ऊपरी और निचली अदालती व्यवस्था में, सिविल सेवा, विदेश सेवाओं के बड़े पदों पर, चार्टर्ड अकाउंटेंट्स की दुनिया में, या शिक्षा, स्वास्थ्य, और प्रकाशन के क्षेत्र में अच्छी नौकरियों में, या शासन के किसी भी दूसरे हिस्से में हालात अलग नहीं हैं. ब्राह्मण और बनिया दोनों मिला कर कुल आबादी के शायद दस फीसदी से भी कम होंगे. जाति और पूंजीवाद ने आपस में मिल कर खास तौर से एक नुकसानदेह और खोटी चीज़ तैयार की है जो खास तौर से भारतीय है.

प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस पार्टी की वंशवादी सियासत पर हमले करते नहीं थकते हैं, लेकिन वे इन कॉरपोरेट घरानों की मदद करने और उनको फायदा पहुंचाने के लिए पूरी तरह समर्पित हैं. जिस पालकी में उनकी झांकी निकलती है, वह भी ज्यादातर वैश्यों और ब्राह्मण परिवारों के मालिकाने वाले कॉरपोरेट मीडिया घरानों के कंधों पर चल रही है. मिसाल के लिए कुछ के नाम ये हैं – टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, इंडिया टुडे, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण. रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के हाथों में सत्ताईस टीवी चैनलों की लगाम है, क्योंकि इन चैनलों के शेयरों पर इसका कब्जा है. मैंने “झांकी निकलने” की बात की, क्योंकि मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में करीब सात सालों के दौरान कभी भी प्रेस का सीधे सामना नहीं किया है. एक बार भी नहीं.

जहां हम आम लोगों का निजी डेटा खोद निकाला जा रहा है और हमारी आंखों की पुतलियां स्कैन की जा रही हैं, वहीं एक ऐसी अपारदर्शी व्यवस्था लागू की गई है जिसकी ओट में कॉरपोरेट दुनिया अपने प्रति दिखाई जा रही अटूट वफादारी की कीमत अदा कर सकती है. 2018 में एक चुनावी बॉन्ड योजना लाई गई, जिसमें राजनीतिक दलों को बेनामी चंदा देना संभव हो गया है. इस तरह अब हमारे यहां एक सचमुच की, बाकायदा संस्थाबद्ध, पूरी तरह से सीलबंद एक पाइपलाइन है जिसके जरिए कॉरपोरेट और राजनीतिक एलीट के बीच पैसे और सत्ता की आवाजाही होती रहती है. इसलिए इसमें हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा दुनिया का सबसे अमीर राजनीतिक दल है.

इसलिए इसमें भी हैरानी की बात नहीं है कि जब यह छोटा सा वर्गीय-जातीय एलीट तबका जनता के नाम पर, हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर, इस मुल्क पर अपनी गिरफ्त को मजबूत कर रहा है, तब यह अवाम के साथ एक दुश्मन ताकत की तरह पेश आने लगा है, जिसमें इसके अपने वोटर भी शामिल हैं. उसे इस अवाम पर किसी तरह काबू करना है, इसको चकमा देना है, इसकी ताक में रहना है, ऐसा कुछ करना है कि यह घबरा जाए, इस पर छुप कर हमला करना है, और सख्ती से हुकूमत करनी है. हम घात लगा कर होने वाली घोषणाओं और गैरकानूनी अध्यादेशों का एक राष्ट्र बन गए हैं.

नोटबंदी ने रातोरात अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी.

जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 को रद्द करने के नतीजे में 70 लाख लोगों पर अचानक ही एक लॉक डाउन लगा दिया गया, जिनको महीनों फौजी और डिजिटल घेरेबंदी में रहना था. यह इंसानियत के खिलाफ अपराध है, जिसे सारी दुनिया की नजरों के सामने अंजाम दिया जा रहा है और यह हमारे नाम पर हो रहा है. एक साल के बाद, एक जिद्दी, चुनौती देने वाले अवाम ने आजादी के अपने संघर्ष को जारी रखा है, तब भी जब एक के बाद एक आने वाले सरकारी फरमान कश्मीर की देह की एक-एक हड्डी को तोड़ रहे हैं.

खुलेआम मुसलमान विरोधी नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनसीआर) के नतीजे में मुसलमान औरतों की रहनुमाई में महीनों तक आंदोलन चला. इसका अंत उत्तर-पूर्वी दिल्ली में एक मुसलमान विरोधी कत्लेआम के साथ हुआ, जिसे हत्यारे गिरोहों ने पुलिस की देख-रेख में अंजाम दिया, और जिसके लिए उल्टे मुसलमानों को ही कसूरवार ठहराया जा रहा है. सैकड़ों मुसलमान नौजवान, छात्र और एक्टिविस्ट जेलों में हैं, जिनमें उमर खालिद, खालिद सैफी, शरजील इमाम, मीरन हैदर, नताशा नरवाल और देवांगना कालिता शामिल हैं. आंदोलनों को इस्लामपरस्त जिहादी साजिश के रूप में दिखाया गया है. मुल्क भर में आंदोलनों की रीढ़ बने और अब एक निशानी बन चुके शाहीन बाग के धरने की रहनुमाई करने वाली औरतों के बारे में हमें बताया गया कि वे “जेंडर-कवर” (“औरतों की ढाल”) हैं. और करीब-करीब हरेक विरोध प्रदर्शन में संविधान की जो सार्वजनिक प्रतिज्ञा ली जा रही थी, उसको “सेक्युलर कवर” (“धर्मनिरपेक्षता की ढाल”) कह कर खारिज कर दिया गया.

सड़क से सलाखों तक: CAA विरोधी आंदोलन की पहली बरसी पर मऊ में हुए दमन की रिपोर्ट

उनके कहने का मतलब यह है कि मुसलमानों से जुड़ी कोई भी चीज “जिहाद” है (जिसे गलत तरीके से आतंकवाद का एक दूसरा नाम बताया जाता है) और इससे अलग कोई भी बात महज एक ब्योरा भर है. जिन पुलिसकर्मियों ने बुरी तरह जख्मी मुसलमान नौजवानों को राष्ट्रगान गाने पर मजबूर किया जब कि उन्हें सड़क पर एक ढेर के रूप में जमा किया गया था, उन पुलिसकर्मियों पर आरोप दायर करना तो दूर अभी तक उनकी पहचान भी नहीं की गई है. बाद में उन जख्मी लोगों में से एक आदमी की मौत भी हो गई, जब देशभक्ति से भरी पुलिस ने उनके गले में लाठी ठूंस दी थी. इस महीने गृह मंत्री ने ‘दंगों’ को संभालने के लिए दिल्ली पुलिस की तारीफ की.

और अब कत्लेआम के एक साल के बाद, जब जख्मी और तबाह समुदाय किसी तरह इससे उबरने की कोशिश कर रहा है, तब बजरंग दल और विहिप अयोध्या में राम मंदिर के लिए चंदा जमा करने के लिए ठीक उन्हीं कॉलोनियों में रथ यात्राएं और मोटरसाइकिल परेड निकालने का ऐलान कर रहे हैं.

हम पर लॉकडाउन एंबुश भी हुआ – हम 1 अरब 30 करोड़ लोगों को चार घंटे की नोटिस के साथ तालाबंद कर दिया गया. लाखों शहरी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चल कर घर लौटने को मजबूर हुए, जबकि रास्ते में उनको अपराधियों की तरह पीटा गया.

एक तरफ महामारी तबाही मचा रही थी, दूसरी तरफ विवादास्पद जम्मू-कश्मीर राज्य के बदले हुए दर्जे को देखते हुए चीन ने लद्दाख में भारतीय इलाकों पर कब्जा कर लिया. हमारी बेचारी सरकार यह दिखावा करने पर मजबूर हो गई कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. चाहे जंग हो या नहीं हो, एक सिकुड़ती जा रही अर्थव्यवस्था को अब पैसा बहाना होगा ताकि हजारों फौजियों के पास साज-सामान हो और वे हमेशा-हमेशा जंग के लिए तैयार रहें. ज़ीरो डिग्री से नीचे तापमान में महज मौसम के चलते अनेक सैनिकों की जान चली जा सकती है.

पैदा की गई तबाहियों की इस सूची में अब सबसे ऊपर ये तीन कृषि विधेयक हैं, जो भारतीय खेती की कमर तोड़ देंगे, इसका नियंत्रण कॉरपोरेट कंपनियों के हाथ में दे देंगे और किसानों के संवैधानिक अधिकारों तक की अनदेखी करते हुए खुलेआम उन्हें उनके कानूनी सहारे से वंचित कर देंगे. 

यह ऐसा है मानो हमारी आंखों के सामने किसी चलती हुई गाड़ी के पुर्जे-पुर्जे किए जा रहे हैं, इसके इंजन को बिगाड़ा जा रहा है, इसके पहिए निकाले जा रहे हैं, इसकी सीटें फाड़ी जा रही हैं, इसका टूटा-फूटा ढांचा हाइवे पर छोड़ दिया गया है, जबकि दूसरी कारें फर्राटे से गुज़र रही हैं, जिन्हें ऐसे लोग चला रहे हैं जिन्होंने हिरण के सींग और फर नहीं पहन रखे हैं.

इसीलिए हमें इस यलगार की – अपनी नाराज़गी की इस लगातार, सामूहिक और बेबाक अभिव्यक्ति की – बेतहाशा जरूरत है: ब्राह्मणवाद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, इस्लाम को लेकर मन में बिठाई जा रही नफरत के खिलाफ और पितृसत्ता के खिलाफ. इन सबकी जड़ में है पितृसत्ता – क्योंकि मर्द जानते हैं कि अगर औरतों पर उनका नियंत्रण नहीं रहे तो किसी चीज पर उनका नियंत्रण नहीं रहेगा.

ऐसे वक्त में जबकि महामारी तबाही मचा रही है, जबकि किसान सड़कों पर हैं, भाजपा की हुकूमत वाले राज्यों में जल्दी-जल्दी धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश लागू किए जा रहे हैं. मैं थोड़ी देर इनके बारे में बोलना चाहूंगी क्योंकि जाति के बारे में, मर्दानगी के बारे में, मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में, प्यार, औरतों, आबादी और इतिहास के बारे में इस हुकूमत के मन में जो बेचैनियां हैं, उनकी झलक आप इन अध्यादेशों में देख सकते हैं.

उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020 (The UP Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Ordinance 2020, जिसे लव जिहाद विरोधी अध्यादेश भी कहा जा रहा है) को बस एकाध महीना ही गुजरा है. लेकिन कई शादियों में रुकावटें डाली जा चुकी हैं, परिवारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं, और दर्जनों मुसलमान जेल में हैं. तो अब, उस गोमांस के लिए जो उन्होंने नहीं खाया, उन गायों के लिए जो उन्होंने नहीं मारीं, उन अपराधों के लिए जो उन्होंने कभी नहीं किए (हालांकि धीरे-धीरे यह नजरिया बनता जा रहा है कि मुसलमानों का कत्ल हो जाना भी उन्हीं का अपराध है) पीट कर मार दिए जाने के साथ-साथ, उन चुटकुलों के लिए जो उन्होंने नहीं बनाए हैं, जेल जाने के साथ-साथ (जैसे कि नौजवान कॉमेडियन मुनव्वर फारूक़ी के मामले में हुआ), मुसलमान अब प्यार में पड़ने और शादी करने के अपराधों के लिए जेल जा सकते हैं. इस अध्यादेश को पढ़ते हुए कुछ बुनियादी सवाल सामने आए, जिनको मैं नहीं उठा रही हूं, जैसे कि आप “धर्म” की व्याख्या कैसे करते हैं? एक आस्था रखने वाला इंसान अगर नास्तिक बन जाए तो क्या उस पर मुकदमा किया जा सकेगा?

2020 उप्र अध्यादेश “दुर्व्यपदेशन, बल, असम्यक असर, प्रपीड़न, प्रलोभन द्वारा किसी कपटपूर्ण साधन द्वारा या विवाह द्वारा एक धर्म से दूसरे धर्म में विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध…” की बात कहता है. प्रलोभन की परिभाषा में उपहार, संतुष्टि पहुंचाना, प्रतिष्ठित स्कूलों में मुफ्त शिक्षा, या एक बेहतर जीवनशैली का वादा शामिल है. (जो मोटे तौर पर भारत में हरेक पारिवारिक शादी में होने वाली लेन-देन की कहानी है.)

आरोपित को (जिसके चलते धर्म परिवर्तन हुआ है) एक से पांच साल की कैद की सजा हो सकती है. इसके लिए दूर के रिश्तेदार समेत परिवार का कोई भी सदस्य आरोप लगा सकता है. बेगुनाही साबित करने की जिम्मेदारी आरोपित पर है. अदालत द्वारा ‘पीड़ित’ को 5 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जा सकता है जिसे आरोपित को अदा करना होगा. आप फिरौतियों और ब्लैकमेल की उन अंतहीन संभावनाओं की कल्पना कर सकते हैं, जिन्हें यह अध्यादेश जन्म देता है. अब एक बेहतरीन नमूना देखिए: अगर धर्म बदलने वाला शख्स एक नाबालिग, औरत या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है, तो ‘धर्म परिवर्तक’ [यानी आरोपित] की सज़ा दोगुनी हो जाएगी – दो से दस साल तक कैद. दूसरे शब्दों में, यह अध्यादेश औरतों, दलितों और आदिवासियों को नाबालिगों का दर्जा देता है. यह कहता है कि हम बच्चे हैं: हमें बालिग नहीं माना गया है, जो अपने कामों के लिए जिम्मेदार हैं. उप्र सरकार की नजरों में हैसियत सिर्फ प्रभुत्वशाली हिंदू जातियों के मर्दों की ही है, एजेंसी सिर्फ उनके पास है. यही वो भावना है जिसके साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि औरतों को (जिनके दम पर कई मायनों में भारतीय खेती चलती है) किसान आंदोलनों में क्यों “रखा” जा रहा है. और मध्य प्रदेश सरकार ने प्रस्ताव रखा है कि जो कामकाजी औरतें अपने परिवारों के साथ नहीं रहती हैं, वे थाने में अपना रजिस्ट्रेशन कराएं और अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की निगरानी में रहें.

अगर मदर टेरेसा जिंदा होतीं तो तय है कि इस अध्यादेश के तहत उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ती. मेरा अंदाजा है कि उन्होंने जितने लोगों का ईसाइयत में धर्मांतरण कराया, उनकी सजा होती दस साल और जीवन भर का कर्ज. यह भारत में गरीब लोगों के बीच काम कर रहे हरेक ईसाई पादरी की किस्मत हो सकती है.

और उस इंसान का क्या करेंगे जिन्होंने यह कहा था:

क्योंकि हमारी बदकिस्मती है कि हमें खुद को हिंदू कहना पड़ता है, इसीलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता है. अगर हम किसी और धर्म के सदस्य होते तो कोई भी हमारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता. कोई भी ऐसा धर्म चुन लीजिए जो आपको हैसियत और आपसी व्यवहार में बराबरी देता हो. अब हम अपनी गलतियां सुधारेंगे.

आपमें से कई जानते होंगे, ये बातें बाबासाहेब आंबेडकर की हैं. एक बेहतर जीवनशैली के वादे के साथ सामूहिक धर्मांतरण का एक साफ-साफ आह्वान. इस अध्यादेश के तहत, जिसमें “सामूहिक धर्मांतरण” वह है जब “दो या दो से अधिक व्यक्ति धर्म संपरिवर्तित किए जाएं”, ये बातें आंबेडकर को अपराध का जिम्मेदार बना देंगी. शायद महात्मा फुले भी कसूरवार बन जाएं जिन्होंने सामूहिक धर्म परिवर्तन को अपना खुला समर्थन दिया था जब उन्होंने कहा था:

मुसलमानों ने, चालाक आर्य भटों की खुदी हुई पत्थर की मूर्तियों को तोड़ते हुए, उन्हें जबरन गुलाम बनाया और शूद्रों और अति शूद्रों को बड़ी संख्या में उनके चंगुल से आजाद कराया और उन्हें मुसलमान बनाया, उन्हें मुसलमान धर्म में शामिल किया. सिर्फ यही नहीं, बल्कि उन्होंने उनके साथ खान-पान और शादी-विवाह भी कायम किया और उन्हें सभी बराबर अधिकार दिए…

इस उपमहाद्वीप की आबादी में दसियों लाख सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों और बौद्धों का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक बदलावों और सामूहिक धर्मांतरणों की गवाही है. “हिंदू आबादी” की गिनती में तेज गिरावट वह चीज है जिसने शुरू-शुरू में प्रभुत्वशाली जातियों में आबादी की बनावट के बारे में बेचैनी पैदा की थी और एक ऐसी सियासत को मजबूत किया था जिसे आज हिंदुत्व कहा जाता है.

लेकिन आज जब आरएसएस सत्ता में है तो लहर पलट गई है. अब सामूहिक धर्मांतरण सिर्फ वही हो रहे हैं जिन्हें विश्व हिंदू परिषद आयोजित कर रहा है – इस प्रक्रिया को “घर वापसी” के नाम से जाना जाता है जो उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर में हिंदू सुधारवादी समूहों ने शुरू की थी. घर वापसी में जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोगों की हिंदू धर्म में “वापसी” कराई जाती है. लेकिन इसके लिए एक शुद्धि की रस्म निभानी होती है ताकि “घर” से बाहर रहने से आई गंदगी को साफ किया जा सके.

अब यह तो एक परेशानी है क्योंकि उप्र अध्यादेश के तर्क के मुताबिक यह एक अपराध बन जाएगा. तो फिर वह इस परेशानी से कैसे निबटता है? इसमें एक प्रावधान जोड़ा गया है जो कहता है: “यदि कोई व्यक्ति अपने ठीक पूर्व धर्म में पुनः संपरिवर्तन करता है/करती है, तो उसे इस अध्यादेश के अधीन धर्म संपरिवर्तन नहीं समझा जाएगा.” ऐसा करते हुए अध्यादेश इस मिथक पर चल रहा है और उसने इसे कानूनी मंजूरी दे दी है कि हिंदू धर्म एक प्राचीन स्थानीय धर्म है जो भारतीय उपमहाद्वीप की सैकड़ों मूल निवासी जनजातियों और दलितों और द्रविड़ लोगों के धर्मों से भी पुराना है और वे सब इसका हिस्सा हैं. ये गलत है, सरासर गैर ऐतिहासिक है.

भारत में इन्हीं तरीकों से मिथकों को इतिहास में और इतिहास को मिथकों में बदला जाता है. अतीत का लेखा-जोखा रखने वाले, प्रभुत्वशाली जातियों से आने वाले लोगों को इसमें कोई भी विरोधाभास नहीं दिखाई देता कि जब जहां जरूरत हो, मूल निवासी होने का दावा भी किया जाए और साथ ही खुद को आर्यों का वंशज भी बताया जाए. अपने करियर की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जब डर्बन पोस्ट ऑफिस में भारतीयों के दाखिल होने के लिए एक अलग दरवाज़े के लिए अभियान चला रहे थे, ताकि उन्हें काले अफ्रीकियों के साथ, जिन्हें वो अक्सर ‘काफिर’ और ‘असभ्य’ कहते थे, एक ही दरवाजे से आना-जाना न पड़े, तब गांधी ने दलील दी कि भारतीय और अंग्रेज “एक ही प्रजाति से निकले हैं जिसे इंडो-आर्यन कहा जाता है.” उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि प्रभुत्वशाली जाति के ‘पैसेंजर इंडियंस’ को उत्पीड़ित जाति के गिरमिटिया (अनुबंधित) मजदूरों से अलग करके देखा जाए. यह 1894 की बात थी. लेकिन सर्कस अभी भी खत्म नहीं हुआ है.

आज यहां इतने व्यापक राजनीतिक नजरिए वाले वक्ताओं की मौजूदगी एलगार परिषद की बौद्धिक काबिलियत को जाहिर करती है, कि यह देख पा रहा है कि हम पर होने वाले हमले सभी दिशाओं से आ रहे हैं – किसी एक दिशा से नहीं. इस हुकूमत के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और कुछ नहीं होती जब हम खुद को अपने या अपने समुदायों की अलग-थलग कोठरियों में, छोटी-छोटी हौजों में बंद कर लेते हैं, जहां हम गुस्से में पानी के छींटे उड़ाते हैं – जब हम बड़ी तस्वीर नहीं देखते, तब अक्सर हमारा गुस्सा एक दूसरे पर निकलता है. जब हम अपनी तयशुदा हौजों की कगारें तोड़ देते हैं सिर्फ तभी हम एक नदी बन सकते हैं. और एक ऐसी धारा के रूप में बह सकते हैं जिसे रोका नहीं जा सकता. इसे हासिल करने के लिए हमें उससे आगे जाना होगा जिसे करने का फरमान हमें दिया गया है, हमें उस तरह सपने देखने का साहस करना होगा जैसे रोहित वेमुला ने देखा. आज वो यहां हमारे साथ हैं, हमारे बीच, वे अपनी मौत में भी एक पूरी की पूरी नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा हैं, क्योंकि वे सपने देखते हुए मरे. उन्होंने मरते हुए भी अपनी मानवता, अपनी आकांक्षाओं और अपने बौद्धिक कौतूहल को मुकम्मल बनाने के अपने अधिकार पर जोर दिया. उन्होंने सिमटने से, सिकुड़ने से, दिए गए सांचे में ढलने से इन्कार कर दिया. उन्होंने उन लेबलों से इन्कार किया, जो असली दुनिया उनके ऊपर लगाना चाहती थी. वे जानते थे कि वे कुछ और नहीं, बल्कि सितारों से बने हुए हैं. वे एक सितारा बन गए हैं.

हमें उन फंदों से सावधान रहना होगा, जो हमें सीमित करती हैं, हमें बने-बनाए स्टीरियोटाइप सांचों में घेरती हैं. हममें से कोई भी महज अपनी पहचानों का कुल जोड़ भर नहीं है. हम वह हैं, लेकिन उससे कहीं-कहीं ज्यादा हैं. जहां हम अपने दुश्मनों के खिलाफ कमर कस रहे हैं, वहीं हमें अपने दोस्तों की पहचान करने के काबिल भी होना होगा. हमें अपने साथियों की तलाश करनी ही होगी, क्योंकि हममें से कोई भी इस लड़ाई को अकेले नहीं लड़ सकता. पिछले साल सीएए का विरोध करने वाले हिम्मती आंदोलनकारियों ने और अब हमारे चारों तरफ चल रहे किसानों के शानदार आंदोलन ने यह दिखाया है. जो किसान संघ एक साथ आए हैं, वे अलग अलग विचारधाराओं वाले, और अलग अलग इतिहासों वाले लोगों की नुमाइंदगी करते हैं. मतभेद गहरे हैं: बड़े और छोटे किसानों के बीच, जमींदारों और बेजमीन खेतिहर मजदूरों के बीच, जाट सिखों और मजहबी सिखों के बीच, वामपंथी और मध्यमार्गी संघों के बीच. जातीय अंतर्विरोध भी हैं और दहला देने वाली जातीय हिंसा है, जैसे कि बंत सिंह ने आपको आज बताया जिनके दोनों हाथ और एक पैर 2006 में काट दिए गए. इन विवादों को दफनाया नहीं गया है. उनके बारे में भी कहा जा रहा है – जैसा कि रंदीप मद्दोके ने, जिन्हें आज यहां होना था, अपनी साहसी डॉक्युमेंटरी फिल्म लैंडलेस में कहा है. और फिर भी वे सब साथ आए हैं ताकि इस सत्ता का सामना किया जा सके, ताकि वह लड़ाई लड़ी जा सके जिसे हम जानते हैं कि वह वजूद की एक लड़ाई हैं.

शायद यहां इस शहर में जहां पर आंबेडकर को ब्लैकमेल करके पूना पैक्ट पर दस्तखत कराए गए थे, और जहां जोतिबा और सावित्रीबाई फुले ने अपना क्रांतिकारी काम किया था, इस शहर में हम अपने संघर्ष को एक नाम दे सकते हैं. शायद हमें इसे सत्य शोधक रेजिस्टेंस कहना चाहिए – आरएसएस के खिलाफ खड़ा एसएसआर.

नफरत के खिलाफ मुहब्बत की लड़ाई. एक लड़ाई मुहब्बत की खातिर. यह जरूरी है कि इसे जुझारू तरीके से लड़ा जाए और खूबसूरत तरीके से जीता जाए.

शुक्रिया.


अनुवाद: रेयाज़ुल हक़


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