भीमा कोरेगाँव: गिरफ्तारियों के आईने में राजनीति और पुलिसबल का चरित्र-परिवर्तन


23 अक्टूबर को 83 वर्षीय पादरी स्टैन स्वामी को भीमा कोरेगाँव मामले में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। यह एक ऐसे मामले में की गई सबसे ताज़ा गिरफ़्तारी है जो भारतीय राजनय और देश के पुलिसबल में एक अहम बदलाव को दिखलाता है।

भीमा कोरेगाँव महाराष्ट्र के पुणे ज़िले का एक गाँव है जहाँ 1818 में ब्रिटिश फ़ौज के दलित सैनिकों, मुख्यतः महारों ने स्थानीय ब्राह्मण शासक पेशवा बाजीराव द्वितीय की टुकड़ियों को बुरी तरह से परास्त किया था। 2018 की पहली जनवरी को हर साल की तरह महाराष्ट्र के दलित, मुख्यतः महार, इस घटना की सालगिरह मनाने के लिए इकट्ठा हुए। इसकी पूर्वसन्ध्या पर पुणे में हुई एलगार परिषद में, जिसके आयोजकों में दो सेवानिवृत्त न्यायाधीश भी शामिल थे, वक्ताओं ने हिन्दुत्व के एकरूपता थोपने की मुहिम का विरोध किया और नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना की। पुलिस का आरोप है कि यही भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के लिए उकसावा था- आयोजन के भागीदारों पर उच्च-जाति के हिन्दू राष्ट्रवादियों ने हमला किया। जवाब में उन्होंने भी कार्रवाई की और इस घटना में एक व्यक्ति की मौत हुई।

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एक दलित कार्यकर्त्ता ने दो लोगों के खिलाफ़ शिकायत दर्ज की- एक था संभाजी भिडे, जिसका पहले संघ परिवार से संबंध रहा है, और दूसरा था मिलिंद एकबोटे, एक भूतपूर्व भाजपा कॉरपोरेटर जो कई बार जेल जा चुका है। एक बार उसे सांप्रदायिक हिंसा में शामिल होने के आरोप में जेल हुई थी। एकबोटे को इस बार भी थोड़े समय के लिए जेल हुई, लेकिन पुलिस ने ‘एक सुनियोजित साज़िश’ में दोनों के शामिल होने की रिपोर्ट होने के बावजूद भिडे के एक शिष्य तुषार दामगुडे द्वारा शिकायत दर्ज करने के बाद एक अलग ऐंगल से घटना को देखना शुरू किया।

यह बदलाव उस समय आया जब पुणे स्थित ‘फ़ोरम फॉर इंटि‍ग्रेटेड नेशनल सिक्युरिटी’ एक माओवादी साज़िश की धारणा को हवा दे रहा था। यह फ़ोरम आरएसएस के निकट माना जाता है। जल्दी ही पुलिस ने नयी गिरफ्तारियां कीं- आरोपितों को ‘अर्बन नक्सल’ के तौर पर पेश किया गया।

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‘अर्बन नक्सल’ शब्द ग्रामीण इलाक़ों, मुख्यतः आदिवासी क्षेत्रों के मुक़ाबले शहरों में मौजूद कथित माओवादियों के लिए इस्तेमाल होता है। इस अभिव्यक्ति को अरुण जेटली ने 2014 में मुख्यधारा के एक राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी के लिए गढ़ा था, लेकिन इसकी मौजूदा प्रयुक्ति का श्रेय काफ़ी कुछ बॉलीवुड फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को जाता है जिन्होंने अर्बन नक्सल को ‘एक ऐसे बौद्धिक और कार्यकर्त्ता के रूप में’ परिभाषित किया ‘जो भारत का अदृश्य शत्रु है’।

इस तरह की साज़िश के विचार को संघ परिवार के द्वारा प्रचारित किया गया। 2019 की एक पुस्तिका में, जिसका श्रेय आरएसएस को दिया जाता है और जिसमें विवेक अग्निहोत्री ने भी लेखकीय योगदान किया है, यह कहा गया है कि अर्बन नक्सलों ने न सिर्फ़ ‘पुलिस, सैन्य बल, नौकरशाही और सिविल सेवाओं में घुसपैठ बना ली है,’ बल्कि ‘भारत सरकार का तख्तापलट करने का अभियान’ भी छेड़ा है और ‘सभी वाम रुझान वाले प्रोफेसर तथा पत्रकार नक्सल समर्थक हैं और यहां तक कि नक्सल समूहों की हिंसा का भी समर्थन करते हैं…।’

सितंबर 2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने चेतावनी दी थी कि नक्सलाइट लोग ‘शहरों में आ गए हैं और लोगों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं।’ खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में विद्यार्थियों को यह विचार करने को कहा कि क्या ‘अर्बन नक्सल्स, कुछ लोग जो अपने को बुद्धिजीवी समझते हैं, आपके कंधों पर बंदूक रखकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं […] आपको यह देखना होगा कि कहीं यह आपके जीवन को तबाह करने की साजिश तो नहीं। वे मोदी से नफ़रत करने के अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकते।’

जून 2018 में महाराष्ट्र पुलिस ने- जब राज्य में भाजपा-नीत गठबंधन का शासन था- भीमा कोरेगाँव की जांच के सिलसिले में पांच ‘अर्बन नक्सल्स’ को गिरफ़्तार किया। उन पर सिर्फ़ हिंसा भड़काने का आरोप नहीं था (जबकि उनमें से दो ही एलगार परिषद में शामिल हुए थे), बल्कि ‘राजीव-गांधी-स्टाइल’ में मोदी की हत्या करने की साज़िश का भी आरोप था। उनके प्रोफाइल अग्निहोत्री के विवरणों से मेल खाते थे: सुरेन्द्र गाडलिंग एक वकील थे, शोमा सेन अंग्रेजी की सेवानिवृत्त प्रोफेसर, सुधीर धवले कवि और प्रकाशक और महेश राउत तथा रोना विल्सन मानवाधिकार कार्यकर्त्ता थे। दो महीने बाद पुलिस ने कवि-कार्यकर्त्ता वरवर राव, वकील और ट्रेड-यूनियनिस्ट सुधा भारद्वाज तथा मानवाधिकार-कार्यकर्त्ता के साथ-साथ लेखक-स्तंभकार अरुण फरेरा और वरनन गोनसालविस को गिरफ़्तार किया।

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दो और ‘अर्बन नक्सल्स’ की गिरफ़्तारी अप्रैल 2020 में हुई: आनंद तेलतुंबड़े, जो भारत पेट्रोलियम के भूतपूर्व एग्ज़ि‍क्यूटिव, ‘इकनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ के नियमित लेखक, गोवा इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट के प्रोफेसर और ‘रिपब्लिक ऑफ़ कास्ट’ समेत कई किताबों के लेखक हैं; और फिर गौतम नवलखा, जो ‘इकनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ के भूतपूर्व संपादकीय सलाहकार और ‘पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स’ के सदस्य हैं। फिर इसी महीने माओवादियों के साथ जुड़ाव होने के आरोप में स्वामी की गिरफ़्तारी हुई जो झारखंड के आदिवासियों के बीच काम करते रहे हैं।

ये सभी लोग सरकार का तख्तापलट करने और प्रधानमंत्री की हत्या करने की साज़िश के आरोप में आतंक-विरोधी एक काले क़ानून, अवैधानिक गतिविधि निवारक क़ानून (यूएपीए) के तहत गिरफ़्तार किये गए। गिरफ़्तार किये गए दो लोगों के कंप्यूटर से प्राप्त पत्रों के आधार पर ये आरोप लगाए गए। ऐमनेस्टी इंटरनेशनल की डिजिटल-सिक्युरिटी टीम, ऐमनेस्टी टेक, ने बाद में यह खोज की कि इनमें से एक कंप्यूटर में मालवेयर मौजूद था जिससे उसमें दूर से घुसपैठ करना संभव था। इस आधार पर उन्होंने यह आरोप लगाया कि ये पत्र ‘प्लांटेड’ हो सकते हैं। ये पत्र गढ़ंत होंगे, इस आरोप को खारिज नहीं किया जा सकता, यह देखते हुए कि नक्सलियों के संचार [पत्राचार] ज़बरदस्त कूट-भाषा में होते हैं।

वरवर राव और अन्य राजनीतिक बंदियों की रिहाई के हक़ में साँस्कृतिक संगठनों का साझा बयान

आरोपितों के घरों की तलाशी लेते हुए महाराष्ट्र पुलिस ने ऐसे साहित्य को भी साक्ष्य के तौर पर सूचीबद्ध किया जो प्रतिबंधित नहीं हैं- उन्होंने आरोपितों के राजनीतिक विचारों और सामाजिक रवैयों पर भी टिप्पणियां कीं। मिसाल के लिए, वरवर राव की बेटी पवना और दामाद के. सत्यनारायण के घर की तलाशी लेते वर्दीधारी ने पूछा, ‘आप माओ और मार्क्स के बारे में लिखी किताबें क्यों पढ़ते हैं? आपके पास चीन से प्रकाशित किताबें क्यों हैं? (…) आपके घर में फुले और अंबेडकर की तस्वीरें हैं, पर भगवान की नहीं, ऐसा क्यों?’ राव की बेटी से उसने कहा, ‘आपके पति दलित हैं, इसलिए वे किसी परंपरा का पालन नहीं करते। लेकिन आप तो ब्राह्मण हैं, आप ज्वेलरी या सिंदूर का इस्तेमाल क्यों नहीं करतीं? आप एक परंपरागत पत्नी की तरह कपड़े क्यों नहीं पहनतीं? क्या बेटी को भी पिता की तरह होना चाहिए?’ इस तरह के पुलिस वाले, लोगों को अपने धर्म की उच्च-जातीय समझ का पालन करने और वाम-विचारों को खारिज करने का सुझाव देते हुए हिन्दू राष्ट्रवादी निगरानीकर्त्ताओं के विमर्शों को प्रतिध्वनित करते हैं।

भीमा कोरेगांव: ताज़ा पूछताछ और गिरफ्तारियों पर 700 से ज्‍यादा विद्वानों का वक्‍तव्‍य

अंतरराष्ट्रीय ख्याति की इतिहासकार रोमिला थापर और अन्य विद्वानों ने अगस्त 2018 में इन गिरफ्तारियों के खिलाफ़ एक याचिका दायर की, लेकिन तीन जजों की बेंच में से दो जजों ने आरोपितों को जमानत देने से इनकार कर दिया। अल्पमत वाले जज जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ का विचार था: ‘सरकार के विरोध और हथियारबंद होकर सरकार का तख्तापलट करने की कोशिशों के बीच स्पष्ट अंतर किया जाना चाहिए।’ उनके लिए, भीमा कोरेगाँव मामला ‘राज्य के द्वारा असहमति को दबा देने का एक प्रयास’ था। ‘इनमें से प्रत्येक व्यक्ति मानवाधिकार के उल्लंघन का शिकार होने वालों को बचाने के प्रयासों के कारण अभियोग झेल रहा है।’ दूसरे शब्दों में, भीमा कोरेगाँव मामले के आरोपित न्यायिक तानाशाही के शिकार हैं और राजनीतिक क़ैदी हैं।

सितंबर 2019 के चुनावों के बाद भाजपा-नीत सरकार की जगह शिव सेना-एनसीपी-काँग्रेस की सरकार आई। जिस दिन इस नयी सरकार ने यह तय किया कि इन आरोपितों के खिलाफ़ दायर चार्जशीट की समीक्षा की जाएगी, उसके अगले ही दिन केंद्र के गृह मंत्रालय ने तफ्तीश एनआइए को सौंप दी।

20 अक्‍टूबर को युनाइटेड नेशन्स हाइ कमिश्नर ऑफ़ ह्यूमन राइट्स मिशेल बैशलेट ने भारत ‘सरकार से यह सुनिश्चित करने की मांग की अभिव्यक्ति की आज़ादी और शांतिपूर्ण जमावड़े के अधिकार का उपयोग करने वालों को हिरासत में न लिया जाए।’ उन्होंने यह भी मांग की कि ‘भारत सरकार बुनियादी मानवाधिकारों, जिनकी हिफ़ाज़त करना उसका दायित्व है, का उपयोग करने की वजह से अवैधानिक गतिविधि निवारक क़ानून के तहत गिरफ़्तार किये गए लोगों को रिहा करे।’


यह लेख 29 अक्‍टूबर, 2020 को दि इंडियन एक्‍सप्रेस में प्रकाशित हुआ है। लेखक किंग्‍स इंडिया इंस्टिट्यूट में भारतीय राजनीति और समाजशास्‍त्र के प्रोफेसर हैं। इस लेख का अनुवाद संजीव ने किया है।


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