सिंघु बॉर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चे का जहां भव्य मंच है, 12 फुट की दो-दो एलईडी स्क्रीन लगी है और मंच से कुछ दूरी पर इसी तरह की अन्य स्क्रीन भी हैं। शाम पांच बजे तक यहां वक्ताओं की तस्वीरें दिखाई जाती हैं और अँधेरा होते ही वहां का नज़ारा ओपन थियेटर जैसा हो जाता है। यहां किसानों और सिख परम्परा से जुड़ी फ़िल्में दिखाई जाती हैं। आंदोलन के चढ़ाव के साथ इस मंच की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है।
जब 26 नवंबर को किसानों का जत्था सिंघु बॉर्डर पहुंचा और झड़प के बाद सरकार के प्रस्ताव को खारिज करते हुए बॉर्डर पर ही जम गया तो दूसरे दिन ही वहां एक सभास्थल जैसी जगह बनाई गई। यहां एकजुटता प्रदर्शित करने वाले आते और भाषण देते। संयुक्त मोर्चा के नेता यहीं से अपनी बात करते।
तब मीडिया के कैमरे और खड़े लोगों के कारण पीछे के लोगों को मंच या उस पर खड़े लोग तक नहीं दिखाई देते थे, बस आवाज़ आती थी। भाषण या ऐलान के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल किया जा रहा था, जिनकी आवाज़ भी मंच के इर्द गिर्द तक ही सिमटी रहती थी। इस बीच उस सभास्थल को मंचनुमा रूप देने की कोशिश की गई और ऊपर एक छोटा कनात तान दिया गया।
आठ दिसम्बर को सुबह सात बजे मंच पर लगे तख़्तों को ऊंचा किया जा रहा था। उस दिन किसान आंदोलन के समर्थन में देश की दस केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर राष्ट्रीय हड़ताल का ऐलान किया गया था। ज़ोर शोर से तैयारियां जारी थीं और उस दिन मैं सुबह ही सिंघु पहुंच गया था। किसान आंदोलन में मज़दूर वर्ग के शामिल होने से उत्साह का माहौल था और उम्मीद भी जगी थी।
मंच ऊंचा कर रहे लोगों में से एक ने उसी उत्साह से बोला, ‘अब हमारा आंदोलन एक फुट ऊंचा हो गया है।’ ये कहते हुए उसकी आंखों में जो अर्थपूर्ण संदेश छिपा था, वो बाद के समय में मेरे लिए और खुलता गया। मंच और ऊंचा और व्यवस्थित होता गया।
अब यहां वालंटियर हैं जो भीड़ नियंत्रित करते हैं, नाम लिखते हैं, रास्ता बनाते हैं और मंच तक असामाजिक तत्वों की पहुंच को रोकते हैं।
इन आंदोलन के दिनों में जब भी मैं गया मंच में कुछ न कुछ बढ़ोत्तरी दिखी। जिस दिन दिल्ली में बारिश शुरू हुई उसके दूसरे दिन रात 11 बजे मंच के सामने एक विशाल पंडाल बनाते हुए कुछ लोग बल्लियां लगा रहे थे, जिसके ऊपर वॉटरप्रूफ़ तिरपाल लगाई जानी थी।
बाद के दिनों में मंच से दो किलोमीटर दूर तक लाउडस्पीकर लगे हुए मिले और हर वक्ता की आवाज़ अपने तम्बू में रह रहे लोगों तक भी पहुंच रही थी। मंच अब सिंघु बॉर्डर के दो सौ मीटर के दायरे में सीमित नहीं रहा, उसका विस्तार अब सबसे पीछे की ट्रॉली तक है। वहां समाचार पाने का यह एक मुकम्मल साधन है।
सात जनवरी को जब किसानों ने सभी बॉर्डर पर ट्रैक्टर रैली निकाली तो भले ही कारपोरेट मीडिया में इसका ज़िक्र नहीं हुआ, लेकिन किसानों का आंदोलन उससे और ऊंचा हुआ है। किसान नेताओं ने इसे 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली का रिहर्सल कहा, लेकिन टीकरी और सिंघु बॉर्डर पर ट्रैक्टर पर बैठे लोगों में एक विजय भावना ज़रूर थी।
मोदी और उनके सलाहकारों की रणनीति थी कि इस आंदोलन को थकाया जाए और साथ में ध्रुवीकृत कर इसे अलग-थलग कर दिया जाए। यही रणनीति सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन में अपनाई गई और इसमें वो सफल भी रहे। और अंत में दंगे के साथ ये आंदोलन ख़त्म हुआ।
किसान आंदोलन में यह रणनीति पूरी तरह फ्लॉप साबित हुई है। ये जितना खिंच रहा है, आंदोलन में तालमेल और पुख़्ता हो रहा है, इसका और विस्तार हो रहा है।
भारतीय किसान यूनियन (एकता) उग्रहां के नेता शिंगारा सिंह मान कहते हैं कि ‘हम एक लड़ाई जीत चुके हैं। अब बस क़ानून वापिस कराना बचा है।’
जिस बात को शिंगारा सिंह कहना चाह रहे थे, उनका मंतव्य, जनता की चेतना को एक ऊंचाई पर ले जाने से था। कड़क ठंड में भी डेरा जमाए बुज़ुर्ग से लेकर बच्चे तक उस चेतना के तार में बंध गए हैं। किसानों का मंच मज़बूत हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तो लोग कहने लगे हैं कि लोहड़ी भी यहीं मनाई, अब होली भी यहीं मनाएंगे।
इस आंदोलन में 26 जनवरी को ‘किसान गणतंत्र दिवस परेड’ एक ऐसा मुकाम साबित हो सकता है जहां से आंदोलन एक नई ऊंचाई हासिल करेगा, बशर्ते यह मोर्चे की रणनीति के अनुसार सम्पन्न हो पाए। तब सिंघु पर लगे इस मंच का इक़बाल कुछ और फुट ऊंचा हो जाएगा।