नीतीश जी पिछले पंद्रह वर्षों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। बीच के आठ महीने बेशक उन्होंने कुर्सी जीतनराम मांझी के लिए छोड़ी थी, लेकिन रिमोट-कण्ट्रोल की बागडोर नहीं छोड़ी थी। मांझी थोड़े बिदके तो उनकी फजीहत कर, आनन-फानन उनसे कुर्सी छीन ली गयी। पंद्रह साल का समय बहुत होता है काम करने के लिए, लेकिन सत्ता से उनका मन भरा नहीं है। इस चुनाव में वह, उनकी पार्टी और उनकी सहयोगी पार्टी सब मिल कर एक बार फिर ‘धमकी’ दे रहे हैं कि अभी और बिहार का विकास करूँगा, मुझे अभी और मौका मिलना चाहिए।
यह स्थिति केवल बिहार में नहीं है, लगभग पूरी दुनिया में है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प को अभी और काम करना है। रूस में पुतिन दशकों से बने हैं और अभी हटना नहीं चाहते। चीन में शी जिनपिंग ने आजीवन गद्दी पर बने रहने का अधिकार एक ही बार में हासिल कर लिया है। ये सब थोड़े से उदाहरण हैं। आखिर यह सब क्या है? यह सब जनतंत्र के निरंतर सिमटने अथवा आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने के लक्षण हैं। हमें इनसे सावधान रहने और इस प्रवृति के खिलाफ संघर्ष करने के लिए सोचना चाहिए। हमारे राजनीतिक जीवन के ये ऐसे वायरस हैं, जो पूरे जनतांत्रिक ढाँचे को नहीं, बल्कि उसकी परंपराओं को भी लील जाएंगे।
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मैं फिलहाल बिहार पर आना चाहूँगा जहाँ चुनावी जंग छिड़ चुकी है और अगले महीने की 10 तारीख को चुनावी नतीजों के साथ यह फैसला हो जाएगा कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। नीतीश कुमार मित्र रहे हैं और अनेक वर्षों तक साथ काम करने का अनुभव भी रहा है। उनकी योग्यता पर मैं कोई सवाल नहीं उठा रहा हूँ। नैतिकता पर अवश्य उठा रहा हूँ। मुझे याद है 2005 के उनके चुनावी भाषण (जुमले भी कह सकते हैं)। वह कहते थे मुझे लालू प्रसाद की तरह पंद्रह साल नहीं चाहिए, बस एक पांच साल चाहिए। वह पठान शासक शेरशाह का उदाहरण देते थे। शेरशाह मुश्किल से पाँच साल दिल्ली की गद्दी पर रहा लेकिन उसने मुल्क के इतिहास पर एक गहरी लकीर खींच दी। बहुत होते हैं विकास करने के लिए पाँच साल, लेकिन उन्हीं नीतीश जी को बिहार की जनता और परिस्थितियों ने पंद्रह साल दिए। उन्हें अभी और वक़्त चाहिए!
कोई पुराने इतिहास में नहीं, आज़ादी के बाद के अपने हिंदुस्तानी इतिहास में ही एक मुख्यमंत्री ऐसा हुआ जिसने अपने सात साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री नेहरू से मिल कर कह दिया कि मुख्यमंत्री के रूप में जितना मुझे करना था, कर दिया, अब मैं पार्टी का काम करना चाहता हूँ। इस इतिहास-पुरुष का नाम कुमारसामी कामराज था, जो तमिलनाडु का मुख्यमंत्री था। उन्होंने प्रांतीय कांग्रेस के लिए काम करने की इच्छा प्रकट की, नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस की कमान दिलवायी थी। अपने सात साल के राज में ही कामराज ने पूरे राज्य का बिजलीकरण कर दिया था। स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मिल की शुरुआत देश में पहली दफा पचास के दशक में ही कामराज ने की थी। वह हीरो की तरह जिए, हीरो की तरह मरे।
अपने ही बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुश्किल से ढाई साल मुख्यमंत्री रहे, लेकिन इतने अल्पकाल में ही जितना किया पूरा बिहार आज भी जानता है। प्रधानमंत्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री ने बहुत कम समय तक के लिए काम किया, लेकिन काम के लिहाज से भी उन्हें खूब याद किया जाता है। वह केवल 1965 के वॉर हीरो नहीं थे। हरित-क्रांति की बुनियाद उन्होंने ही रखी थी। उन दिनों लोगों को यकीन ही नहीं होता था कि भारत अन्न के मामले में कभी आत्मनिर्भर होगा।
दुनिया के अनेक बड़े राजनेताओं ने खुद ही लम्बे शासन से परहेज किया। नेल्सन मंडेला बस एक दफा और एक पारी दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति हुए। उनसे आगे बने रहने के लिए आरज़ू की गयी, उन्होंने नकार दिया। उनके सामने संभवतः अमेरिकी राष्ट्रपति वाशिंगटन का उदाहरण था। अमेरिका में आज भी कोई दो बार से अधिक राष्ट्रपति नहीं हो सकता।
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एक इंसान को जो करना होता है, उसके लिए पाँच साल बहुत होते हैं। भारत जैसे सुस्त समाज के लिए इसे दस भी किया जा सकता है, लेकिन उसके बाद तो किसी शासक का बना रहना खतरनाक और शर्मनाक दोनों है। जवाहरलाल नेहरू यदि 1960 के पहले पदमुक्त हो जाते, तो वे कहीं बड़े हीरो दीखते। ऑफिस में मरना कुछ लोगों का शौक हो सकता है, लेकिन मेरे हिसाब से यह शौक नहीं,अय्याशी है, एक मनोरोग। जनता को ऐसे लोगों की शिनाख्त करते रहनी चाहिए।
भारत के पुराने इतिहास में मुझे मौर्यवंशीय अशोक से बहुत नफरत होती है, हालांकि सामान्य तौर पर उसे महान कहे जाने का प्रचलन है। इसके मुकाबले उसके दादा चन्द्रगुप्त का मैं उतना ही अधिक प्रशंसक हूँ। चन्द्रगुप्त ने पचीस साल की उम्र में अपनी ताकत से पाटलिपुत्र की गद्दी हासिल की थी (उसका महत्व कम करने के लिए अशरफ इतिहासकार चाणक्य को अधिक महत्व देते हैं, लेकिन यह एक झूठ है। चाणक्य था या नहीं, यह भी संदिग्ध है। कुछ प्रमाणों के अनुसार चाणक्य कुछ समय तक के लिए उसका सेक्रेटरी था, लेकिन जरा अधिक हांकता था इसलिए चन्द्रगुप्त ने उसे जल्दी ही हटा भी दिया था)। चन्द्रगुप्त में बड़ी बात मुझे उसकी आध्यात्मिकता लगती है। 23 साल राज करने के बाद 48 की उम्र में उसने अपने बेटे को राजकाज सौंपा और सन्यास से लिया। कहा जाता है कि जैनियों की तरह सलेखना अर्थात अन्न-त्याग कर उसने अपनी जान दे दी। बहुत हो गया राज-पाट!
लेकिन महान कहा जाने वाला अशोक? उसने ऑफिस में ही जान दी। जीवन भर अपने ही नाम के शिलालेख लगवाता रहा। उसके राज-काल में कोई नई खोज हुई हो, कोई महत्वपूर्ण काम हुआ हो इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। शांति स्थापित थी। यही उसकी उपलब्धि थी। मरने के चार साल बाद तक सत्ता के लिए संघर्ष चलता रहा और अंततः मौर्य साम्राज्य कई भागों में बिखर गया। पाटलिपुत्र का महान इतिहास उसके साथ ही विनष्ट हो गया। उसकी स्थिति बहुत कुछ मुगलकालीन औरंगजेब से मिलती-जुलती है।
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कोई शासक कई रूपों में अपने समय और भावी इतिहास को प्रभावित करता है। सल्तनत-काल में रज़िया कुल जमा चार साल (1236-40) गद्दी पर रहीं, किन्तु उन्हें इतिहास कैसे भूल सकता है! अनेक वर्षों तक सत्ता में बने रहने वाले औरंगजेब उसका मुक़ाबला नहीं कर सकते। अमेरिकी राष्ट्रपतियों के इतिहास में वाशिंगटन, एंड्रू जैक्सन और अब्राहम लिंकन अलग-अलग कारणों से उल्लेखनीय माने जाते हैं। उल्लेखनीय होने के आधार इनके कार्य हैं न कि इनके लम्बे कार्यकाल। अपने देश में ही लगातार एक पार्टी और एक व्यक्ति का शासन, उस व्यक्ति और पार्टी के लिए भी नुकसानदायक साबित हुआ है, देश-समाज के लिए तो हुआ ही है।
शायद इसीलिए समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया कहते थे- रोटी उलटते-पलटते रहो, ताकि वह ठीक से पके। एकतरफा सिंक रही रोटी जल जाती है, पकती नहीं। वैसे ही सत्ता को भी उलटते रहो, ताकि जनता का भला हो सके। लगातार वर्षों से एक ही शासक का बना रहना मुर्दा समाज के लक्षण हैं। जिन्दा समाज लगातार के बदलावों में दीखता है।
(यह लेख प्रेमकुमार मणि की फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं