जिस “आइडिया ऑफ इंडिया” की कल्पना जवाहरलाल नेहरू ने की थी उसमें भारत को न केवल आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से स्वावलम्बी होना था बल्कि असाम्प्रदायिक भी होना था। ये नेहरू ही थे जिन्होंने समाजवाद के प्रति असीम प्रतिबद्धता दिखायी और धर्मनिरपेक्षता तथा सामाजिक न्याय को संवैधानिक जामा पहनाया।
प्रगतिशील नेहरू ने विविधता में एकता के अस्तित्व को सदैव बनाये रखते हुए विभिन्न शोध कार्यक्रमों तथा पंचवर्षीय योजनाओं की दिशा तय की जिस पर चलकर भारत आधुनिक हुआ। नेहरू ने राजनैतिक आज़ादी के साथ-साथ आर्थिक स्वावलम्बन का भी सपना देखा तथा इसको अमली जामा पहनाते हुए कल-कारखानों की स्थापना, बांधों का निर्माण, बिजलीघर रिसर्च सेन्टर, विश्वविद्यालय तथा उच्च तकनीकी संस्थानों की उपयोगिता पर विशेष बल दिया। महिला सशक्तिकरण और किसानों के हित के लिए कटिबद्ध नेहरू दो मजबूत खेमों में बंटी दुनिया के बीच मजलूम और कमजोर देशों के मसीहा बनकर उभरे तथा उन्हें संगठित कर गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया और शक्तिशाली राष्ट्रों की दादागिरी से इनकार करते हुए अलग रहे।
आज जब हम कोविड-19 जैसी परिस्थिति से गुजर रहे हैं तो नेहरू की वैज्ञानिक सोच एक बार फिर चर्चा में है। हालात ने हमें नेहरू पर फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यदि उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं का अस्तित्व न होता तो इस संकट की घड़ी में क्या होता। 1947 में भारत न तो महाशक्ति था और न ही आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर। बंटवारे में बड़ी आबादी का हस्तांतरण हुआ पर जिस तरह सड़कों पर आज लोग मारे-मारे फिर रहे हैं और उनका कोई पुरसाहाल नहीं है, ऐसा नेहरू ने नहीं होने दिया। अपनी सीमा के अंदर सबको सुरक्षित रखा उनके सामने। तब भी अंध आस्था के लिए आमजन का दुरुपयोग करने वाले संगठन खड़े थे।
नेहरू के सपनों का भारत तो सदृढ़ रूप में खड़ा है। उनकी कल्पना साकार रूप ले चुकी है परंतु आजादी के आंदोलन के दौरान लगभग दस वर्षों तक जेल की सजा काट चुके नेहरू को हम याद करने की औपचारिकता भी नहीं निभाते और अब वे न हमारे सपनों में ही आते हैं। “भारत एक खोज” और इतिहास तथा संस्कृति पर अनेक पुस्तकों के लेखक नेहरू आज मात्र पुस्तकों की विषयवस्तु बनकर रह गए हैं और कहीं कहीं तो उन्हें वहां भी जगह नही मिल रही है। किसी भी देश ने अपने राष्ट्र निर्माता को शायद ही ऐसे नज़रअंदाज़ किया हो जैसा हमने नेहरू को किया।
आज की पीढ़ी को राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्यों के प्रति सचेत करने की ज़रूरत है। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद, आज़ादी के आंदोलन के मूल्य और नेहरू के योगदान को बताने की जरूरत है।
ये कार्य कौन करेगा? साम्प्रदायिक ताक़तें तो करने से रहीं। वे सदैव नेहरू विरोधी रही हैं। लेकिन कांग्रेस भी कम दोषी नहीं है। उसने कभी भी नेहरू के योगदान एवं उनके व्यक्तित्व पर चर्चा करने की ज़हमत नही उठायी और न ही आज़ादी के मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। वास्तव में कांग्रेस भी मूल्य, पारदर्शिता, अभिव्यक्ति की आज़ादी, प्रजातंत्र के प्रति नेहरूवियन सोच से डरती है।
भारतीय राष्ट्रवाद के सबसे बड़े दुश्मन विंस्टन चर्चिल ने 1937 में नेहरू के बारे में कहा था कि “कम्युनिस्ट, क्रांतिकारी, भारत से ब्रिटिश संबंध का सबसे समर्थ और सबसे पक्का दुश्मन…।” अठारह साल बाद 1955 में फिर चर्चिल ने कहा, “नेहरू से मुलाकात उनके शासन काल के अंतिम दिनों की सबसे सुखद स्मृतियों में से एक है। इस शख़्स ने मानव स्वभाव की दो सबसे बड़ी कमजोरियों पर काबू पा लिया है; उसे न कोई भय है न घृणा।”
इसमें कोई संशय नही होना चाहिए कि साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित इस देश मे साम्प्रदायिक सद्भाव की अवधारणा और सभी को साथ लेकर चलने की नीति और तरीके की खोज जवाहरलाल नेहरू ने ही की थी और उसी सिद्धांत और उनकी सामाजिक उत्थान की अर्थनीति के ही कारण ही साम्प्रदायिक और छद्म सांस्कृतिक संगठनों का लबादा ओढ़े राजनीतिक दल चार सीट भी नही जीत पाते थे। वे धर्म के वैज्ञानिक और स्वच्छ दृष्टिकोण के समर्थक थे। उनका मानना था कि भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य है न कि धर्महीन। सभी धर्मों का आदर करना और सभी को उनकी धार्मिक आस्था के लिए समान अवसर देना राज्य का कर्तव्य है।
नेहरू जिस आजादी के समर्थक थे और जिन लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों को उन्होंने स्थापित किया था आज वे खतरे में हैं। मानव गरिमा, एकता और अभिव्यक्ति की आजादी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
अब समय आ गया है कि हम एकजुटता, अनुशासन और आत्मविश्वास के साथ लोकतंत्र को बचाने का प्रयास करें। हम आज़ादी के आंदोलन के मूल्यों पर फिर से बहस करें और एक सशक्त और असाम्प्रदायिक राष्ट्र की कल्पना को साकार करने में सहायक बनें। हमारे इस पुनीत कार्य मे नेहरू एक पुल का कार्य कर सकते हैं।
बिल्कुल सही लिखा है आपने। सहमत हूं कि नेहरू के भुलाने में कांग्रेसियों का भी योगदान है।