बंगाल में राजनीतिक हिंसा की ऐतिहासिक जड़ें और भाजपा का उभार


यह विडंबना नहीं तो क्या है कि गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस, अरबिंदो घोष, बंकिमचन्द्र चटर्जी जैसी महान विभूतियों के जीवन चरित्र की विरासत को अपने सांस्कृतिक भूगोल में समेटे बंगाल की धरती आज अपनी सांस्कृतिक धरोहर नहीं, बल्कि अपनी हिंसक राजनीति के कारण चर्चा में है। बांगला संस्कृति के ये आइकन आज भारतीय जनता पार्टी के चुनावी एजेंडे में शामिल हैं, जहां नेताजी सुभाषचंद्र बोस के पराक्रम को चुनावी औजार के रूप में रिड्यूस कर दिया गया है।

बंगाल का राजनीतिक इतिहास देखें तो पता चलता है कि हिंसा की घटनाएं न तो पहली बार हो रही हैं और न ही आखिरी बार होंगी। बंगाल में राजनीतिक हिंसा का एक लंबा व रक्तरंजित इतिहास रहा है। बंगाल की राजनीति का एक खास तरह के उग्र रूप से सदैव वास्ता रहा है। क्रांति और जुनून राज्य के राजनीतिक मानस में शामिल है। स्वतंत्रता आंदोलन, इसके उदाहरणों से भरा पड़ा है। बंगाल में राजनीतिक हिंसा की शुरूआत ब्रितानी वायसराय लॉर्ड कर्जन के बंगाल के विभाजन के फैसले के विरोध में 1905 में हुई थी। उसके बाद आज़ादी मिलने तक बंगाल में हिंसक घटनाओं का सिलसिला चलता रहा।

आज़ादी के बाद 1960 के दशक के उत्‍तरार्द्ध में नक्सलबाड़ी आंदोलन से बंगाल की राजनीति में एक नया मोड़ आया। नक्सलबाड़ी के किसानों ने हिंसा का रास्ता चुना क्योंकि चुनावों और लोकतंत्र पर उनका भरोसा नहीं था। उस समय राज्य में सत्तासीन कांग्रेस ने, खासकर शहरी इलाकों में, हिंसा को कायम रखने का काम किया।

1947 में भारत को आज़ादी मिली और देश का विभाजन हुआ। साथ ही बंगाल का भी विभाजन हुआ। पश्चिम बंगाल का हिस्सा भारत में रह गया और पूर्वी बंगाल का हिस्सा पाकिस्तान में चला गया, जो बाद में पूर्वी पाकिस्तान कहलाया। दोनों ही ओर ख़ूनख़राबे के अलावा विस्थापन और शरणार्थियों की समस्याओं से रूबरू होना पड़ा। फिर 1971 में भारत के सक्रिय सहयोग से पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र देश होकर बांग्लादेश बना। इस दौरान एक बार फिर पश्चिम बंगाल को लाखों लोगों को शरण देनी पड़ी।

इस बीच 1950 में कूच बिहार राज्य ने भारत में विलय का फ़ैसला किया और 1955 में फ़्रांसीसी अंत:क्षेत्र चंदननगर भी भारत को सौंप दिया गया। ये दोनों ही पश्चिम बंगाल का हिस्सा बने, बाद में उसमें बिहार का कुछ हिस्सा भी शामिल किया गया। देश के साथ ही बंगाल में भी कांग्रेस की तूती बोलती रही। आजादी के बाद हुए तीन आम चुनावों में कांग्रेस पश्चिम बंगाल में छायी रही, परंतु पश्चिम बंगाल कांग्रेस में आरंभ से ही अनेक महत्वपूर्ण आंतरिक समस्याएं थीं। अतुल घोष तथा प्रफुल चंद्र सेन एक ओर थे, वहीं अरुण चंद्र गुहा, सुरेंद्र मोहन बोस और प्रफुल्ल चंद्र घोष दूसरी तरफ थे। 1967 से 1980 के बीच का समय पश्चिम बंगाल के लिए नक्सलवादी आंदोलन, बिजली के गंभीर संकट, हड़तालों और चेचक के प्रकोप का समय रहा। इन संकटों के बीच राज्य में आर्थिक गतिविधियाँ थमी सी रहीं। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही।

इधर हाल के वर्षों में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े राजनीतिक हिंसा के सिलसिले की गवाही देते हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों अनुसार वर्ष 2016 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से झड़प की 91 घटनाएं हुईं और 205 लोग हिंसा का शिकार हुए। इससे पहले यानी वर्ष 2015 में राजनीतिक झड़प की कुल 131 घटनाएं दर्ज की गई थीं और 184 लोग इसका शिकार हुए थे। वर्ष 2013 में बंगाल में राजनीतिक कारणों से 26 लोगों की हत्या हुई थी, जो किसी भी राज्य से अधिक थी। 

बंगाल की राजनीति को एक दशक पहले तक वामपंथ की तरफ झुका हुआ माना जाता था। 1977 में कम्युनिस्टों के सत्ता में आने के बाद से बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का न होना, बंगाल की वाम राजनति की एक प्रमुख पहचान रही है। मिसाल के तौर पर इस बात का जिक्र अक्सर किया जाता है कि 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के बाद देश के बाकी हिस्सों के विपरीत राज्य में शांति रही। विभाजन से पहले के रक्तपात के बावजूद, कई लोगों का यह मानना रहा कि बंगाल की धर्मनिरपेक्षता ने इसके इर्द-गिर्द अपराजेयता का एक आभामंडल तैयार करने का काम किया। यह मान लिया गया कि बंगाल पर वाम मोर्चे के लंबे और अबाधित शासन (1977-2011) ने किसी ऐसे मंच को उभरने नहीं दिया, जिसका इस्तेमाल सांप्रदायिक शक्तियां अपने राजनीतिक फायदे के लिए कर सकती थीं।

इस उल्लेखनीय इतिहास का हालांकि यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि जमीन पर हिंदू-मुस्लिम तनाव का अस्तित्व नहीं था। वर्तमान हालात की जड़ों की तलाश 19वीं सदी के बंगाली राष्ट्रवाद के इतिहास में की जा सकती है, जब उपनिवेश-विरोधी संघर्ष हिंदू पुनरुत्थानवादी विचारधाराओं और बंगाली भद्रलोक के राजनीतिक दर्शन के साथ घुलमिल गया। नरेंद्र मोदी की सरकार के आने से पहले जमीनी तौर पर बंगाल में ऐसा काफी कम था जिसे हिंदू दक्षिणपंथ का हौसला बढ़ाने लायक कहा जा सकता हो। उस समय निश्चित तौर पर भाजपा ने यह अनुमान नहीं लगाया होगा कि वह एक ऐसे राज्य में मुख्य विपक्ष हो सकती है, जहां वह सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा तक नहीं है। फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी।

2014 के चुनावों में राज्य में पार्टी को 16.8 प्रतिशत मत मिले। कमजोर हो चुके वाम मोर्चे और सिकुड़ चुकी कांग्रेस और दलबदलुओं की सतत आमद से भाजपा ने स्थानीय चुनावों में अपने लिए जगह बनानी शुरू कर दी। भाजपा और आरएसएस के नेता से बात कीजिए तो वे आपको बताएंगे कि इस घड़ी का इंतजार वे वर्षों से कर रहे थे। वे आपको बताएंगे कि कैसे पिछले पांच साल में आरएसएस की शाखाओं में वहां बढ़ोतरी हुई है और संघ संचालित स्कूलों की संख्या कई गुना बढ़ गई है। जहां पहले बुनियाद थी, वहां महल बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।

2014 से पश्चिम बंगाल की राजनीति में धुव्रीकरण बढ़ा है। सीपीएम के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे को चुनाव दर चुनाव टीएमसी से हार का मुंह देखना पड़ा। वहीं बीजेपी ने खुद को राज्य में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में स्थापित किया। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के पास अब सिर्फ उनका वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कोर वोटर आधार ही बचा है जो बीजेपी के साथ कभी नहीं जाएगा। ऐसे में बीजेपी का अपना प्रदर्शन सुधारने का एकमात्र रास्ता है कि वह खासकर दक्षिण बंगाल में टीएमसी के हिंदू वोटर के एक हिस्से को अपने साथ ले आए। इसी रणनीति के तहत सुवेंदु अधिकारी जैसे टीएमसी नेता को बीजेपी में शामिल कराया गया है।

बंगाल में राजनीतिक झड़पों में बढ़ोतरी के पीछे मुख्य तौर पर तीन वजहें मानी जा रही हैं- बेरोजगारी, विधि-शासन पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और भाजपा का उभार। राजनीतिक विश्लेषक डॉ. विश्वनाथ चक्रवर्ती इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं:

बंगाल में उद्योग-धंधे कम हैं जिससे रोजगार के अवसर नहीं बन रहे हैं जबकि जनसंख्या बढ़ रही है। खेती से बहुत फायदा नहीं हो रहा है। ऐसे में बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टी से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों का ठेका मिल सके। स्थानीय स्तर पर होने वाली वसूली भी उनके लिए कमाई का जरिया है। वे चाहते हैं कि उनके करीबी उम्मीदवार किसी भी कीमत पर जीत जाएं। इसके लिए अगर हिंसक रास्ता अपनाना पड़े, तो अपनाते हैं। असल में यह उनके लिए आर्थिक लड़ाई है।


कवर तस्वीर सिंगूर, 2007; साभार हिंदुस्तान टाइम्स


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