एजाज़ अहमद के बौद्धिक अवदान पर एक ढंग की श्रद्धांजलि नहीं लिख सके हम…


कल एजाज अहमद हमारे बीच नहीं रहे। हमारे लिए कल चुनाव नतीजों का दिन था। सबेरे सूरज निकलने से लेकर सूरज ढलने के बाद देर रात तक चुनावी खबरों को लेकर हलकान रहे। एजाज साहब के निधन की खबर तो कल फाइल हो गयी लेकिन यहाँ उनपर कुछ लिखने का इरादा चुनावी व्यस्तता के कारण सम्भव नहीं हो पाया।

एक पँक्ति में एजाज अहमद का परिचय यह है कि वो हमारे समय के अग्रणी मार्क्सवादी विचारकों में एक थे। उनकी किताब ‘इन थियरी…’ को साहित्य के सैद्धान्तिक विमर्शों की एक जरूरी किताब माना जाता है। मार्क्सवादी विचारकों से प्रभावित हम जैसे नौजवानों के लिए एजाज अहमद एक रोलमॉडल की तरह थे। उसका एक कारण शायद यह भी रहा होगा कि समकालीन मार्क्सवादी विचारकों में शायद वह एक मात्र व्यक्ति थे जिनसे हम खुद को जोड़ सकते थे और जिसकी अंतराराष्ट्रीय स्तर पर सिद्धान्तकार के तौर पर पहचान थी। 

एजाज अहमद से सीधा परिचय साल 2005 में जामिया मिल्लिया में हुआ। शायद प्रगतिशील लेखक संघ का कोई मुकामी जलसा था जिसमें वो शिरकत कर रहे थे। उस जलसे में कई हंगामाखेज बहसें हुई थीं। ऐसी एक बहस में जब एक साहब एजाज अहमद पर बरस पड़े तो एजाज साहब ने उनका दो टूक जवाब यह कहकर दिया कि ‘माफ कीजिएगा, मैं कुरान को आसमानी किताब नहीं मानता।’ उन्होंने सिर्फ एक लाइन बोलकर सामने वाले के सभी सवालों-आरोपों का जवाब दे दिया था। ब्रेविटी एक गुण है तो एजाज साहब का वह जवाब मुझे उसका श्रेष्ठ उदाहरण लगा था।

उस समय तक हम लोगों ने एजाज साहब का लिखा एक मजमुआ ‘आज के जमाने में समाजवाद…’ पढ़ा था। फ्रंटलाइन में छपे उनके लेख बनारस में पढ़े थे। रूबरू उन्हें देखने-सुनने का वह पहला मौका था। एजाज अहमद हों या कोई और, अमेरिकी-ब्रिटिश अंग्रेजी विद्वानों में वह स्नॉबरी नहीं दिखती थी जो भारतीय अंग्रेजीदाँ में हम देखने के आदी थे। वो ‘सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग’ के बेहतरीन उदाहरण लगे। उनकी सहजता का लाभ लेते हुए एक दिन किसी गोष्ठी के बाद, मैंने उन्हें बाहर पकड़ लिया। मेरे जहन में जो भी ऊटपटाँग सवाल थे उनके सामने उड़ेल दिये। वह हाथ में कार की चाभी लिये इशारे से बोले- चलते-चलते बात करते हैं। मेरा मोनोलॉग खत्म हुआ तो उन्होंने जो जवाब दिया वह मुझे ताउम्र नहीं भूलेगा। मैंने क्या पूछा था यह भूल गया लेकिन उनका जवाब हूबहू याद है, “….मैंने इस बारे में कभी सोचा नहीं है…।” बात करते-करते हम उनकी कार तक पहुँचे जो उन्हीं की तरह सिंपल सी वैगनआर थी। गाड़ी का दरवाजा खोलते खोलते उन्होंने मुझसे कहा- आप मेरा नम्बर ले लीजिए, आप जब चाहे मुझे फोन कर सकते हैं। उन्होंने अपना फोन नम्बर देने के साथ ही शायद ईमेल भी दिया कि आप इसपर कुछ लिखें तो मुझे ईमेल कर सकते हैं। वह छोटा सा कागज जिसपर उनका नम्बर लिखा था मैंने दसियों साल तक सम्भाल कर रखा था लेकिन कभी न कॉल किया, न ईमेल। कागज का वह टुकड़ा शायद कहीं आज भी पड़ा हो। उसके बाद जामिया में ही उनसे कुछ छोटी फौरी मुलाकातें और हुईं। 

एजाज अहमद की वह बात मेरे जहन में देर तक गुँजती रही थी कि ‘मैंने इस बारे में कभी सोचा नहीं है…।’ जिस विचारक को उस जलसे में मौजूद बड़े-बड़े विद्वान सम्मान के साथ देखते हैं, वह कह रहा है कि उसने किसी मुद्दे पर कभी विचार नहीं किया है! उस वक्त तो मैं उस जवाब से हतप्रभ एवं प्रभावित भर हुआ था, बाद के सालों में जिन्दगी से गुजरते हुए धीरे-धीरे अहसास हुआ कि जिसे यह नहीं पता कि उसे क्या नहीं पता है, वह कुछ और तो हो सकता है लेकिन विचारक नहीं हो सकता। उसके बाद लाइब्रेरी जाकर उनकी किताबें खोजनी शुरू कीं। जिस ‘इन थियरी…’ का नाम सुनता था, उसे भी खोजा। उसे देखकर, पहली प्रतिक्रिया यही थी कि इतनी पतली किताब को हमारे सारे मार्क्सवादी आलोचक बहुत अहम बता रहे हैं! खैर, ‘इन थियरी’ की उन थियरी को पढ़कर उस वक्त मैंने कितना ही समझा होगा! उस दौर में पढ़ा उनका जो निबंध आज तक मेरे जहन में है वह है उनके द्वारा की गयी ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की विवेचना। अगर मुझे ठीक याद है तो एजाज साहब ने यह स्थापना दी है कि संघ ने अपने संगठन का ढाँचा कम्युनिस्ट दलों से ग्रहण किया है। उसके पहले मैंने किसी विद्वान को संघ और कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच की ढाँचागत साम्यता के बारे में तुलना करते नहीं देखा था।

सालों बाद अभी तीन-चार दिन पहले किसी मित्र से बातोंबातों में एजाज साहब का जिक्र आ गया था। उन्होंने बताया कि आजकल वो किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में ‘दर्शन’ पढ़ा रहे हैं। पिछले कुछ समय से वो अमेरिका में थे। कुछ समय काफी बीमार रहे। बेहतर होने के बाद अस्पताल से घर लौटकर स्वास्थ्यलाभ कर रहे थे। कल खबर आयी कि वो नहीं रहे। कल मार्क्सवादी विद्वान विजय प्रसाद के लेख से पता चला कि वो पिछले कुछ सालों में वापस भारत आना चाहते थे लेकिन केंद्र सरकार ने उन्हें वीजा नहीं दिया! एजाज अहमद दिल से हिन्दुस्तानी थे। उनका जन्म 1941 में हिन्दुस्तान में हुआ। उनके माता-पिता विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये। 1970 के दशक में वो अमेरिका चले गये। 1980 के दशक में भारत आ गये। काफी सालों तक भारत में रहे। जामिया मिल्लिया और जेएनयू से जुड़े रहे।

ऐसा नहीं है कि एजाज साहब के दामन पर कोई दाग नहीं लगा। हमने अपने सामने उनकी साख पर बट्टा लगते हुए देखा। एजाज साहब का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) से गहरा जुड़ाव था। सिंगूर-नन्दीग्राम के जमाने में जब महाश्वेता देवी इत्यादि वामपंथी विद्वान माकपा की मुखर आलोचना कर रहे थे, तब एजाज साहब पर चुप रह जाने के आरोप लगे। हम कह सकते हैं कि इस मामले में कम्युनिज्म की सीमाओं का हमारे सामने लाइव-डेमो हो रहा था। कम्युनिस्ट पार्टियाँ बुद्धिजीवियों-विचारकों को पार्टी की सीकड़ से बाँधकर रखने में यकीन रखती हैं। खैर, तब तक वो इतना लिख चुके थे कि साहित्य सिद्धान्तों के आने वाले छात्र उन्हें ‘इन थियरी…’ हमेशा याद रखेंगे।

होना तो यह चाहिए था कि एजाज साहब के निधन पर उनके बौद्धिक अवदान की बात की जाती है लेकिन वह करने के लिए जरूरी तैयारी मेरे पास नहीं है। कुछ लोगों द्वारा उनपर लिखा देखा तो वो सब रेटॉरिकल तरीके से उन्हें ‘फ्रेडरिक जेम्सन के निबंध ‘बहुराष्ट्रीय पूँजीवाद के दौर में तीसरी दुनिया का साहित्य” के आलोचक के तौर पर याद करते दिखे। हम जैसे ‘इन थियरी…’ से ‘इन प्रैक्टिस…’ की तरफ ऐसे बढ़े कि इस काबिल ही नहीं रहे कि एजाज अहमद जैसे विद्वान के बौद्धिक अवदान पर एक ढंग की श्रद्धांजलि लिख सकें। खैर…

अपनी छोटी सी दुनिया में एजाज अहमद के लिए हम इतना ही कर सके कि गूगल न्यूज के हिन्दी सेक्शन में बड़े मीडिया हाउसों द्वारा की गयी एकमात्र खबर जो दिख रही है, वो हमारी डेस्क ने की है। जब हमने खबर की तो केवल केरल की न्यूजसाइट ने अंग्रेजी में खबर की थी। अभी देखा मलयालम मीडिया में एजाज साहब के निधन पर कई खबरें हैं। केरल की उच्च साक्षरता दर से थोड़ी ईर्ष्या हुई। खैर, बाकी तो नहीं लेकिन एजाज साहब की ‘इन थियरी…’ मेरे बुकशेल्फ में पड़ी है। न जाने कब से पड़ी हुई है। कोशिश रहेगी कि उसे फिर से पढ़ूूँ। जरा देखूँ, एक दशक बाद वह कितनी समझ में आती है। उसकी बहस में उतरना तो मेरे लिए आज भी सम्भव नहीं क्योंकि उस दौर में भी जब हम बहुत पढ़ते थे तब भी फूको, देरीदा, जेम्सन, ईगल्टन जैसों को पढ़कर आपस में कहते थे, ‘ये लोग पहाड़ पी गए हैं…’ यानी इन विचारकों की पढ़ी हुई किताबों को इकट्ठा किया जाए तो एक पहाड़ खड़ा हो जाए। ‘इन थियरी…’ से सैद्धान्तिक तौर पर उलझने के लिए ‘पहाड़ पीना पड़ेगा’ जो अब दूर की कौड़ी लगती है। प्रयास रहेगा, कि कभी उसे पढ़कर एक छोटी सी अखबारी समीक्षा लिख दूँ। उम्मीद है कि एजाज साहब समझेंगे कि उनके तर्पण के लिए मेरे हाथ में मौजूद लुटिया जरूर छोटी है लेकिन उसमें मौजूद उनके प्रति मेरी श्रद्धा असीम है।


लोकमत हिंदी के संपादक रंगनाथ सिंह की फ़ेसबुक दीवार से साभार


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