मौत के ‘तांडव’ के बीच शासकों का निर्मम चुनावी स्नान?

कोरोना महामारी का प्रकोप शुरू होने के साल भर बाद भी देश उसी जगह और बदतर हालत में खड़ा कर दिया गया है जहां से आगे बढ़ते हुए महाभारत जैसे इस युद्ध पर तीन सप्ताह में ही जीत हासिल कर लेने का दम्भ भरा गया था।

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तन मन जन: ‘स्वास्थ्य की गारंटी नहीं तो वोट नहीं’- एक आंदोलन ऐसा भी चले!

भारत में जन स्वास्थ्य राजनीति का मुख्य एजेण्डा क्यों नहीं बन पाया? यह सवाल भी उतना ही पुराना है जितना कि देश में लोकतंत्र। आजादी के बाद से ही यदि पड़ताल करें तो लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा की मांग तो जबरदस्त रही लेकिन राजनीति ने लगभग हर बार इस मांग को खारिज किया। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ तथा कई गैर सरकारी संगठनों ने अपने तरीके से जन स्वास्थ्य का सवाल उठाया, सरकारों ने महज नारों को स्वास्थ्य का माध्यम माना और संकल्प, दावे, घोषणाएं होती रहीं लेकिन जमीन पर हकीकत कुछ और है।

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जनता के फैसले का अपहरण संवैधानिक लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है

सत्ता का खून बीजेपी के मुंह को लग चुका है। मध्यप्रदेश के बाद उसका अगला निशाना राजस्थान बना लेकिन यहाँ अशोक गहलोत ज़रा जीवट वाले निकले। उन्होंने बीजेपी के हथियार से ही बीजेपी को पटखनी दे दी।

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दक्षिणावर्त: जेपी के चेलों से पुष्पम प्रिया चौधरी तक बिहार की यंग और डार्क कॉमेडी

एक बूढ़ा निजाम को हिलाता है और उसके फल से तीन ज़हरीले फल पैदा कर जाता है। आज जब बिहार अपने सवाल तलाश रहा है, तो उसके पास एक भ्रष्टाचारी बाप के पूत, एक एनजीओवादी महिला और एक देशद्रोह के आरोपित के अलावा कोई युवा विकल्प तक नहीं है।

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