COVID-19 से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए जलवायु को खतरे में डाल रहे हैं G-20 के देश

कोविड से पहले जहाँ दुनिया भर में पर्यावरण अनुकूल नीतिगत फैसलों के नतीजे दिखना शुरू ही हुए थे, वहीँ कोविड की आर्थिक मार से उबरने के नाम पर दुनिया की कुछ चुनिन्दा अर्थव्‍यवस्‍थाएं अब जीवाश्‍म ईंधन से जुड़े उद्योगों पर अच्छा ख़ासा निवेश कर रही हैं। इससे न सिर्फ़ पिछले फैसलों के नतीजों पर पानी फिर रहा है, बल्कि अगले दस सालों में रिन्यूएबिल ऊर्जा अपनाने के रास्ते पर ख़ासी रुकावटें भी पैदा होंगी।

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तन मन जन: कोरोनाकाल में डायबिटीज़ का जानलेवा कहर!

इस कोरोनाकाल में मधुमेह रोगियों की ज्यादा उपेक्षा हो रही है। प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ‘द लान्सेट’ के एक अध्ययन के अनुसार ज्यादा उम्र के डायबिटिक लोगों की स्थिति कोरोनाकाल में जानलेवा है। यह अध्ययन चीन के वुहान के दो अस्पतालों में 191 मरीजों पर किया गया।

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इस दिवाली तीन-चौथाई देश वायु प्रदूषण से बेपरवाह, आधे से ज्यादा आबादी कोरोना से बेफ़िक्र

कोविड की मार सबसे ज़्यादा झेलने वाले 10 राज्यों में हुए एक सर्वे से पता चलता है कि इस दिवाली कोरोना और वायु प्रदूषण सबसे बड़ी चिंताएं हैं। फेसबुक पर …

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तन मन जन: कोरोनाकाल में कैंसर के उपेक्षित रोगी

कोरोनाकाल में कैंसर रोगियों की उपेक्षा ने न केवल कैंसर बल्कि अन्य भयावह रोगों की गिरफ्त में फंसे असहाय लोगों के ज़ख्म पर नमक छिड़कने का काम किया है। साथ ही अमानवीयता के उदाहरण भी पेश किए हैं।

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COVID-19 से उपजे आर्थिक दबाव में पांच लाख से ज्यादा लड़कियां बाल विवाह के लिए मजबूर

सिविल सोसाइटी संगठनों की मदद से चलाये जा रहे वैश्विक प्रयासों द्वारा पिछले एक दशक में बाल विवाहों की संख्या में 15% तक की कमी अवश्य आयी है, लेकिन 2030 तक बाल विवाह को समाप्त करने के लक्ष्य को प्राप्त करने लिए एक लंबा रास्ता तय करना अभी बाकी है।

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तन मन जन: चुनावी लहर के बीच उभर चुकी कोरोना की दूसरी लहर पर कब बात होगी?

चुनाव के दौरान नेताओं के लिए जनता का उमड़ना लाजिमी है। बिहार चुनाव में तो कोरोना कहीं लग ही नहीं रहा। आश्चर्य है। न कोई गाइडलाइन न कोई परहेज। मास्क की बात तो क्या करें लोगों को नंगे बदन बूथ पर वोट डालने के लिए घंटों कतार में लगे देख लें।

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तन मन जन: ‘स्वास्थ्य की गारंटी नहीं तो वोट नहीं’- एक आंदोलन ऐसा भी चले!

भारत में जन स्वास्थ्य राजनीति का मुख्य एजेण्डा क्यों नहीं बन पाया? यह सवाल भी उतना ही पुराना है जितना कि देश में लोकतंत्र। आजादी के बाद से ही यदि पड़ताल करें तो लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा की मांग तो जबरदस्त रही लेकिन राजनीति ने लगभग हर बार इस मांग को खारिज किया। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ तथा कई गैर सरकारी संगठनों ने अपने तरीके से जन स्वास्थ्य का सवाल उठाया, सरकारों ने महज नारों को स्वास्थ्य का माध्यम माना और संकल्प, दावे, घोषणाएं होती रहीं लेकिन जमीन पर हकीकत कुछ और है।

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बेमौसम कुछ भी अच्छा नहीं होता, बारिश हो या खैरात!

अब यदि भविष्य में बरसात से पहले कहीं चुनाव का मौसम हो, तो संकल्प-पत्रों में मुफ़्त छाता, नाव और लाइफ जैकेट बांटने की घोषणाओं का सिलसिला शुरू हो सकता है. वैसे भी हमारे प्रधानजी को तो यह तक पता होता है कि कौन-कौन रेनकोट पहनकर नहाता है देश में. उनके लिए रेनकोट को भी मुफ्त वाली सूची में शामिल किया जा सकता है.

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तन मन जन: कोरोना-काल में बढ़ता प्रदूषण जानलेवा तबाही की दस्तक है!

दिल्ली के अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने भी कहा है कि प्रदूषण यदि जरा भी बढ़ा तो फेफड़ों और श्वसन सम्बन्धी बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि होगी और यह लोगों के लिए जानलेवा होगा।

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बीमारियों से तबाह दुनिया में बॉलीवुड का नायक कब तक भगवान भरोसे रहेगा?

एक ज़माना था जब सिनेमा एक तरफ डॉक्टर को भगवान दिखाता था और दूसरी ओर मरीजों को भगवान के भरोसे दिखाता था। घर वाले बेचारगी में मंदिर-मंदिर सिर पटकते थे। घंटे से सिर फोड़ते थे। एक ज़माना आज है, जब चिकित्सा व्यवस्था भगवान भरोसे है और मरीज भी भगवान के भरोसे। सिनेमा कॉर्पोरेट भरोसे है।

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