बीमारियों से तबाह दुनिया में बॉलीवुड का नायक कब तक भगवान भरोसे रहेगा?


इधर छह महीने से दुनिया सहित हमारा देश कोरोना के चलते लगाये गये लॉकडाउन और अनलॉक का ही सामना कर रहा है। इसने जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। कुछ समय तक तो हम सब लोग इसकी गंभीरता और अगंभीरता को लेकर गहरे द्वंद्व में रहे। अब, जब अचानक इसके शिकार लोगों में अपने मित्रों-रिश्तेदारों और नज़दीकियों को भी शामिल हुआ देख रहे हैं तब मन एक गहरे डर और आशंका से भरने लगा है। वास्तव में कोरोना न सिर्फ एक गंभीर खतरा हो चुका है बल्कि लगातार यह जटिल भी होता जा रहा है। इसे साधारण नहीं माना जा सकता। प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी न किसी रूप में इस महामारी ने हम सबको अपने लपेटे में ले लिया है। राजनीतिक हो या सामाजिक-सांस्कृतिक अथवा आर्थिक, हर मोर्चे पर इसने मानव समाज को कई तरह की बन्दिशों और पराजयों से लाद दिया है।

इसी संदर्भ में मैं कई दिनों से यह सोच रही हूं कि हर सनसनीखेज मुद्दे पर झटपट फिल्में बना देने वाला बॉलीवुड इस महामारी पर कोई फिल्म बना रहा है क्‍या? गानों और एल्बमों में तो यह विषय आने लगा है लेकिन क्या फीचर फिल्मों में कोई ऐसी सुगबुगाहट है? यह सोचकर ही रोमांच होता है कि यह विषय कितना व्यापक है। इसमें मनुष्यता का हर रंग दिखायी देता है। त्रासदियों और इंसानियत के वैभव से भरे इस समय को सिनेमा आखिर किस रूप में चित्रित करेगा?

मेरी नज़र बार-बार उन फिल्मों की ओर चली जाती है जो किसी खास दौर की ऐसी त्रासदी को लेकर बनी हों। खासतौर से बीमारी और उसके इलाज को लेकर। और बीमारी को लेकर वास्तव में मेडिकल साइंस का क्या रवैया रहा है? निश्चित रूप से इस मामले में हमारा बॉलीवुड बहुत निराश करता है। सच कहूं तो मेरा यह उम्मीद करना मुझे ही कुछ अटपटा लग रहा है कि आखिरकार हर बात को मनोरंजन बना देने वाले बॉलीवुड में ऐसी फिल्मों का अभाव क्यों है जिनमें मुद्दे को लेकर कोई रचनात्मक गंभीरता हो। इसकी जड़ में वाकई क्या है और बॉलीवुड सिनेमा हमें क्या सीख देता है, इसे जानना बहुत जरूरी है ताकि उम्मीदों की सीमा भी तय हो और दुख भी न हो। बॉलीवुड सिनेमा के भीतर चित्रित विषय हमको क्या सीख देता है? क्या इस सीख से हमारे व्यवहार में कोई विशेष फर्क पड़ा है। मुझे लगता है कि बहुत ज्यादा फर्क पड़ा है। इन फिल्मों ने हमें राम भरोसे रहना सिखाया है। कहा जा सकता है कि अगर फिल्में मेडिकल साइंस जैसे रूखे विषय को दिखाने लगेंगी तो मनोरंजन का क्या होगा? क्या सिनेमा, सिनेमा रह पाएगा?

उस दौर के फ़िल्मकारों का एक सामाजिक सरोकार होता था: बिमल रॉय की दो बीघा जमीन का एक मिनिमल पोस्टर

यहीं पर यह भी सवाल उठता है कि क्या हम सिनेमा सिर्फ मन बहलाने के लिए देखते हैं? यह उतना ही बड़ा सवाल है जितना बड़ा सवाल यह है कि क्या हम भोजन सिर्फ स्वाद के लिए करते हैं? सच यह है कि स्वाद कितना भी उम्दा हो लेकिन शरीर को पौष्टिकता न मिले तो वह भोजन लंबे समय तक ग्रहण नहीं किया जा सकता। ठीक उसी तरह कितना भी अच्छा नाच-गाना आइटम सांग और कॉमेडी हो लेकिन अगर फिल्म में कोई ठोस विषय न हो तो वह बार-बार नहीं देखी जा सकती है। जब भारत में पहली बार 1913 में फिल्म रिलीज़ हुई थी तब किसी ने नहीं सोचा था कि फिल्म क्षेत्र एक इन्डस्ट्री का रूप ले लेगा। यह कैसी इंडस्ट्री होगी इसका अंदाजा भी किसी को नहीं था। प्रारंभिक दौर से लेकर कुछ दशक पहले तक फिल्में सामाजिक वास्तविकता का आईना होते हुए संदेशपरक होती थीं। उस दौर के फ़िल्मकारों का एक सामाजिक सरोकार होता था। किसी खास विषय और मुद्दे को लेकर बहुत बड़ी बात को कहना एक बड़ा ध्येय होता था। श्वेत-श्याम के दौर से रंगीन सिनेमा तक दर्जनों ऐसे नाम हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। बाबूराव पेंढारकर, वी. शांताराम, बिमल रॉय, चेतन आनंद, महबूब खान, सत्यजीत राय, बी. आर. चोपड़ा, गुरुदत्त से शुरू होकर यह श्रृंखला बढ़ती जाती है।

इनके बाद की फ़िल्में आदर्शवाद के ढकोसले को ढोते हुए मात्र मनोरंजन के उद्देश्य से बनायी जाने लगी थीं जिनमें कथ्य और शिल्प अतिरंजना से भरपूर होने लगे थे, जिनका वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता था। फिल्म के स्वरूप में लगातार बदलाव आया और अब जब निर्माता-निर्देशक-लेखक के भीतर रचनात्मक बदलाव हुए और  तकनीक ज्यादा मजबूत हुई है, फिल्म बनने की गति में तेजी आयी है। इस वजह से फ़िल्मों के स्तर में भी बदलाव आया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने से पहले बनने वाली अधिकांश फ़िल्मों में विशुद्ध मनोरंजन हुआ करता था और मधुर गीत-संगीत की भरमार होती थी। इसमें भी कोई बुराई नहीं है क्योंकि फिल्मों को मनोरंजन का साधन ही माना गया। बेशक शुरुआत से मनोरंजन, शिक्षा और सरोकार के बीच रस्साकशी चलती रही है।

आज दर्शकों का ज़ायका पूरी तरह बदल चुका है। आज के समय में समाज में घटित होने वाली घटनाओं के सच को लेकर अनेक फ़िल्में बन रही हैं, लेकिन उनमें भी चित्रण की ईमानदारी को कायम रख पाना एक बड़ी चुनौती है। कई फिल्मों में डॉक्टर, वकील, नेता, स्त्रियों, बच्चों, बुजुर्गों, सरकारी तंत्र आदि के साथ हुए भ्रष्टाचार को बेहतर एवं सटीक तरीके से प्रस्तुत किया गया। यह सच है कि अधिकतर दर्शक खांटी मनोरंजन के लिए फ़िल्में देखना पसंद करते हैं लेकिन इधर बॉलीवुड में कुछ नये फिल्मकारों ने समाज में हो रहे भ्रष्टाचार, अन्याय और स्त्रियों के जरूरी और महत्त्वपूर्ण मुद्दों को केन्द्र में रखकर फ़िल्में बनायी हैं। फिर भी  समस्याओं के अनुपात में वे ऊंट के मुंह में जीरा जैसी ही हैं। निर्माता-निर्देशकों की महती जिम्मेदारी है कि ऐसी फ़िल्में बनाएं जो सच को उजागर करें।

वैसे तो देश की किसी भी सनसनीखेज खबर के सामने आते ही एक-दो निर्देशक तुरंत उस पर फिल्म बनाने की घोषणा कर देते हैं और बनाते भी हैं लेकिन वास्तव में वे ऐसी किसी भी समस्या पर फिल्म नहीं बनाते हैं जिसके आधार पर सत्ता को कठघरे में खड़े होकर जवाब देना पड़े। बड़े निर्देशक भी बिलकुल बच-बचाकर फ़िल्में बनाते हैं। रचनात्मक जोखिम लेकर फ़िल्मकारी अब भी दूर की कौड़ी है। आरुषि हत्याकांड पर तो फिल्म बनती है, लेकिन गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से मरने वाले बच्चों पर फिल्म नहीं बनती। जेसिका लाल मर्डर केस पर फिल्म बनती है, लेकिन छत्तीसगढ़ में महिला नसबंदी के दौरान मौत के मुंह धकेल दी जाने वाली कम उम्र की स्त्रियों और उनके अपराधी डॉक्टरों-मंत्रियों पर फिल्म नहीं बनती। आँख के सामूहिक ऑपेरशन के समय अंधे हुए बुजुर्गों पर कोई फिल्म नहीं बनती। जैसी फ़िल्में बनती हैं, वे भी घालमेल का नमूना भर बनकर रह जाती हैं। पूरे देश में स्वास्थ्य को लेकर लोगों की जिंदगी से जिस तरह का खेल चल रहा है वह चिंता और दुःख की बात है। कुछ फ़िल्में जरूर आयीं जिनमें स्वास्थ्य से किए गए खिलवाड़ को लेकर कुछ दृश्य थे, लेकिन उसे उतनी गंभीरता से प्रस्तुत नहीं किया गया जितना जरूरी था।

सन 1971 में ऋषिकेश मुख़र्जी की फिल्म ‘आनंद’ प्रदर्शित हुई जिसमें आंत के कैंसर की गंभीर और उस समय लाइलाज बीमारी से ग्रस्त आनंद बहुत मजाकिया लहजे से अपनी बीमारी के  खतरे को कम बताता है ताकि कोई दुखी न हो। फिल्म एक तरह से मरते हुए इंसान की सहनशीलता और सच्चाई का सामना करने के साहस के प्रति दर्शकों में संवेदना पैदा करने के उद्देश्य से बनायी गयी थी और साथ ही इस बीमारी की भयानकता के प्रति सजग करने के लिए भी। इसके केन्द्र में तो आनंद है, लेकिन उस फिल्म में दो डॉक्टर भी हैं जिनमें से एक डॉ. भास्कर  झोपड़पट्टी में गरीबों का मुफ्त इलाज करता है और लोगों के बीमार मनोविज्ञान से आक्रोशित भी है। वह कहता है कि बीमारी का तो इलाज हो सकता है लेकिन गरीबी का क्या इलाज है? यह सवाल आज तक वैसे का वैसा है। वहीं दूसरा डॉ. प्रकाश कुलकर्णी अपने बनाये अस्पताल में ऐसे लोगों का इलाज करता है जिन्हें कोई बीमारी नहीं है, लेकिन फीस के नाम पर मोटा पैसा वसूलता है। एक दृश्य में वह डॉक्टर भास्कर को बताता है कि मुझे मालूम है कि इन लोगों को कोई बीमारी नहीं है, लेकिन यह बताकर मैं अपनी आमदनी क्यों कम करूं। कोरोनाकाल में भी ऐसे डॉक्टरों की बाढ़ आ गयी। अचानक जो सौ रुपए फीस लेता था उसने हज़ार रुपये लेना शुरू किया, यह जानते हुए भी कि इसका कोई इलाज नहीं है।

इसी तरह 2015 में क्रिश के निर्देशन में आयी एक फिल्म ‘गब्बर इज़ बैक’  थी। नाम सुनकर लगता कि ‘शोले’ फिल्म के  गब्बर सिंह जैसा  कोई किरदार होगा लेकिन फिल्म में गब्बर बना अक्षय कुमार देश के सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के खिलाफ लड़ते हुए भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करता है। फिल्म के एक दृश्य में अस्पताल दिखाया गया है जहां फिल्म की हीरोइन के घायल होने पर इलाज के लिए बड़ी रकम देने को कहा जाता है। गब्बर को लगता है अस्पताल लूट का अड्डा है। बगल में ही सरकारी अस्पताल में एक लाश लिए एक औरत अपनी दो लड़कियों के साथ खड़ी है। गब्बर उसे एंबुलेंस में उसी अस्पताल में लाता है। वहां के डॉक्टर उस मृत मरीज को वेंटिलेटर पर रखकर लंबी फीस वसूलते हैं। जब बॉडी सड़ने लगती है तब उसे मृत घोषित करना मजबूरी हो जाती है। अस्पताल वाले बॉडी देने के बदले बकाया फीस मांगते हैं, लेकिन खेल गब्बर के हाथ में है क्योंकि सरकारी अस्पताल ने पहले ही डेथ सर्टिफिकेट दे दिया था। गब्बर के प्रयासों से मीडिया में यह बात सामने आ जाती है और अस्पताल के मालिक को पीट-पीट कर मार डाला जाता  है।

यह तो फिल्म का एक दृश्य मात्र है, लेकिन असलियत में भी लगातार ऐसा सुनने में आ रहा है। अभी रायगढ़ में ही बीजेपी के एक नेता को कुछ तकलीफ हुई तो उन्हें तुरंत जिंदल फोर्टिस अस्पताल लाया गया जहां चेकअप होने के बाद हार्ट अटैक बताया गया और आइसीयू में शिफ्ट कर मीटर चालू कर दिया गया। बाद में कोरोना टेस्ट भी पॉजिटिव बताया गया, लेकिन दूसरे दिन किसी अन्य डॉक्टर के देखने के बाद दोनों रिपोर्ट गलत पायी गयी। उन्हें गैस की थोड़ी दिक्कत हुई थी जो अब ठीक हो गयी थी। उन्हें इन दो दिनों का तीन लाख से ज्यादा का इलाज का बिल थमा दिया गया। जब स्थानीय नेताओं ने हल्ला मचाया तब डॉक्टर ने माफ़ी मांग ली। यह सोचने वाली बात है कि यदि उसकी पहुँच सत्ता तक नहीं होती तो क्या डॉक्टर इस बात को स्वीकार करते कि उनसे गलती हो गयी? और क्या उन्हें इलाज के पैसे लिए बगैर छोड़ते?

अभी कोरोनाकाल में  कोरोना पॉजिटिव व्यक्तियों को जिन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया या जिन्हें अस्पताल में क्‍वारंटीन किया गया, उनका अस्पताल का बिल हजारों और लाखों रुपये में आया। ये बात सबको मालूम है कि इस बीमारी से बचने की कोई भी दवा या टीका नहीं बना है। केवल इम्युनिटी बढ़ाने की दवा ही दी जा रही है, लेकिन इस दवा पर कोई रिसर्च किया गया या अनुमान के आधार पर इसका प्रयोग किया जा रहा है अभी इस बात के वास्तविक तथ्य सामने नहीं आये हैं। फिल्म एक डॉक्टर की मौत  एक ऐसे अनुसंधानकर्ता एवं प्रतिभाशाली डॉक्टर की कहानी है जो कुष्ठरोग के इलाज की दवा खोजने के लिए बरसों मेहनत करता है और कामयाब होता है, लेकिन विभाग के वरिष्ठ डाक्टरों की घृणित राजनीति के चलते वह जॉन एंडरसन फाउंडेशन  से संपर्क नहीं कर पाता और पहले खोज लिए जाने पर भी उसका नाम आविष्कारक के रूप में नहीं आ पाता है। यह फिल्म एक सत्य घटना और डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय की जिंदगी पर आधारित है।

वैसे भी हमारे देश में डॉक्टर डिग्री लेने के बाद किसी तरह के अनुसंधान कार्य में रुचि लेने के बजाय अपनी प्रैक्टिस करने पर जोर देते हैं। चिकित्सा अनुसंधान को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 1949 में आइएमआरसी ने कार्य योजनाएं शुरू कीं, लेकिन आज तक उसकी कोई खास उपलब्धि दर्ज नहीं हुई। दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के डीन डॉ. समीरन रेड्डी और उनके दो साथियों ने 2005-2014  के दस वर्षों का एक सर्वे किया जिसमें यह बात सामने आयी कि 25 चिकित्‍सा संस्थानों ने प्रतिवर्ष 100 से अधिक शोधपत्र प्रकशित किये जो देश में प्रकाशित कुल शोधपत्रों का 40.03% था।  इसमें निजी चिकित्सा महाविद्यालयों का योगदान नहीं के बराबर था क्योंकि 352 निजी महाविद्यालयों और संस्थानों का एक भी शोधपत्र शामिल नहीं था। इन बातों और आंकड़ों को बताने के तात्पर्य यह कि जिस देश के इतिहास को सोने की चिड़िया कहा गया और जिसकी संस्कृति पर गर्व किया जाता है वहां जीवन और स्वास्थ्य की हालत कितनी नाजुक है। वहां की चिकित्सा व्यवस्था कितनी लुंजपुंज है। 

देश में लोग सड़क पर हैं और साधारण स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए भी लगातार संघर्ष कर रहे हैं और अभाव में जीने को मजबूर हैं।  ऐसे देश में चिकित्सक की दोहरी जिम्मेदारी हो जाती है कि वे लगातार अनुसंधान करते हुए सस्ती दवाएं और सुविधा खोज निकालें जो आम लोगों की पहुँच में हों, लेकिन ऐसा कहां है? इसीलिए यहां यह दृश्य आम है कि मरीज के लिए दवा के बजाय दुआ ज्यादा फायदेमंद होती है। फिल्मों में तो मरीज ऑपरेशन टेबल पर तड़प रहा है और परिवार वाले ईश्वर के समक्ष भजन गाकर चमत्कारिक तरीके से ठीक होने की उम्मीद रखे हुए  हैं। और गजब कि वह ठीक हो भी जाता है!  अंधे को दिखने लगता है, ऑपरेशन सही तरीके से संपन्न हो जाता है। कैंसर जैसी बीमारी से मरीज मुक्त हो जाता है। एक समय तक टीबी जैसी लाइलाज बीमारी से मरीज केवल ईश्वर के दम पर ठीक होते दिखाया जाता था। पूरी मेडिकल व्यवस्था को एक भजन चुनौती दे जाता है, तब किसी दर्शक या संगठन का विरोध दर्ज नहीं होता। राजनीति और सत्ता से कोई सवाल नहीं किया जाता।  राज्य अपनी जिम्मेदारियों से भागता है। और अब तो विरोध भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि संघ की राजनीति ने इसको देशद्रोह में बदल दिया है। लोगों के दिमाग में ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने का फितूर सैकड़ों साल से भरा हुआ है। लोगों की आस्था इतने चरम पर है कि भीड़ द्वारा किसी इंसान की हत्या केवल इस संदेह में कर दी जाती है कि वह गौमांस खाता है।  लोगों का सारा ज़ोर देश को विश्वगुरु बनाने पर है। उन्हें इस बात से क्या लेना देना कि देश में अनुसंधान कम हो रहे हैं कि नहीं हो रहे? फिल्मकार चाहते तो इस मौजू विषय पर क्लासिक और यादगार फिल्में बना सकते थे लेकिन इन मुद्दों पर भी भारतीय सिनेमा ने समाज को भरमाने के अलावा कुछ नहीं किया है।

डॉक्टर अपनी नैतिक जिम्मेवारी को सही तरीके से निभाने के लिए शपथ लेता है लेकिन वास्तव में उसकी असलियत आपदा के दौर में खुलती है, जैसे कोरोनाकाल में खुली है।  कोरोनाकाल में देश के सभी अस्पतालों की और मरीजों की हालत किसी से छुपी हुई नहीं रही है। पिछले छह महीने से रोज ही अखबारों और सोशल मीडिया की ख़बरों में ऐसी ख़बरें और वीडियो खुलकर वायरल हो रहे हैं कि अस्पताल लूट और भ्रष्टाचार का अड्डा बन गये हैं। लूट का ऐसा अड्डा जहां मरीज के घरवाले जानते हुए भी खुद को लूट लेने देते हैं- इस भरोसे के साथ कि मरीज का हाल अच्छा हो जाए, भले ही कितना पैसा लग जाए। 

एक ज़माना था जब सिनेमा एक तरफ डॉक्टर को भगवान दिखाता था और दूसरी ओर मरीजों को भगवान के भरोसे दिखाता था। घर वाले बेचारगी में मंदिर-मंदिर सिर पटकते थे। घंटे से सिर फोड़ते थे। एक ज़माना आज है, जब चिकित्सा व्यवस्था भगवान भरोसे है और मरीज भी भगवान के भरोसे। सिनेमा कॉर्पोरेट भरोसे है। आखिर वह कैसे दिखा सकता है कि देश के पूँजीपतियों ने सारी गरिमा और संवेदना निगल ली है। उन्हें सिर्फ मुनाफा चाहिए। उन्होंने सिनेमा को भी मुनाफ़े का माध्यम बना दिया है जिसमें सच्चाई का सामना करने की और दिखाने की कुव्‍वत नहीं बची है। एक कला के रूप में वह भी भगवान के भरोसे है।



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