तन मन जन: कोरोना-काल में बढ़ता प्रदूषण जानलेवा तबाही की दस्तक है!


एक तो कोरोना काल, ऊपर से बढ़ते प्रदूषण का खतरा। हालात जानलेवा दिख रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी चेतावनी जारी कर कह दिया है कि यदि वायु प्रदूषण में 2.5 पीएम की वृद्धि हुई तो कोरोना वायरस के मामले में 10 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हो सकती है। दिल्ली के अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने भी कहा है कि प्रदूषण यदि जरा भी बढ़ा तो फेफड़ों और श्वसन सम्बन्धी बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि होगी और यह लोगों के लिए जानलेवा होगा।

प्रदूषण और कोरोना वायरस संक्रमण को मिलाकर देखें तो चीन और इटली से प्राप्त डेटा बताते हैं कि जिन क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का स्तर 2.5 पीएम बढ़ा है, वहां कोरोना वायरस संक्रमण के मामले 8.9 फीसद बढ़े हैं। उल्लेखनीय है कि अभी 22 सितम्बर 2020 को ‘द लैंसेट’ में छपे एक शोध लेख में कहा गया है कि वायु प्रदूषण में यदि कमी आयी तो इसके कारण न सिर्फ कोरोना वायरस संक्रमण बल्कि श्वसन रोगों से सम्बन्धित भविष्य की अन्य महामारियों को नियंत्रित करने तथा मृत्यु दर कम करने में मदद मिल सकती है। ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित यह शोध चीन और योरप में लॉकडाउन की वजह से वायु प्रदूषण में आयी कमी और इसके सेहत पर दूरगामी असर को लेकर है, लेकिन यहां तो प्रदूषण और खतरनाक होता जा रहा है। इस बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने ‘‘प्रदूषण के विरुद्ध युद्ध’’ का ऐलान भी कर दिया है। श्री केजरीवाल ने कहा है कि इस वर्ष प्रदूषण जानलेवा हो सकता है क्योंकि हम कोरोना वायरस संक्रमण की विभीषिका से जूझ रहे हैं।

भारत ही नहीं, दुनिया में प्रदूषण की स्थिति कितनी खतरनाक है इसका अन्दाजा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की इस चेतावनी से लगा सकते हैं। सन् 2016 में डब्ल्यूएचओ ने दुनिया के 2000 शहरों में प्रदूषण की स्थिति और इससे सम्बन्धित डेटा के आधार पर चेतावनी दी थी और इस खतरनाक प्रदूषण को ‘‘हेल्थ इमरजेंसी’’ यानि दुनिया के सामने अब तक का सबसे बड़ा स्वास्थ्य संकट बताया था, लेकिन इस वर्ष तो श्वसन सम्बन्धी विकार पैदा करने वाले वायरस (सार्स कोव-2) कोविड-19 की वजह से यह जानलेवा और तबाही वाला हो सकता है।

वर्ष 2018 में भारत में फेफड़ों के रोगों के तेज प्रकोप से परेशान बिल गेट्स ने अपने गेट्स फाउन्डेशन को 1.3 अरब भारतीयों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को निर्धारित करने के लिये एक वैज्ञानिक अध्ययन करने को कहा था। भारतीयों को विदेशियों के इस अध्ययन पर संदेह नहीं हो, इसलिए गेट्स फाउन्डेशन ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) को भी इस अध्ययन में शामिल किया है। इस अध्ययन में 40 फीसदी वैज्ञानिक भारतीय थे। अध्ययन का निष्कर्ष आया कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं, हालांकि इस तथ्य को भारत सरकार ने कभी स्वीकार नहीं किया। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन ने हमें बताया कि सालाना 20 लाख भारतीय प्रदूषण की वजह से मर रहे हैं तथा लगभग 70 लाख लोग प्रदूषणजनित रोगों की गिरफ्त में फंस रहे हैं।

कई अध्ययन यह बताते हैं कि भारत वायु प्रदूषण के मामले में एक चिंताजनक स्थिति में है। यहां के राजनेताओं के झूठे वायदे और मक्कार दावों के बावजूद भारत का वायु गुणवत्‍ता सूचकांक (एक्यूआइ) 300-400 के बीच है। इसे अस्वास्थ्यकर एवं खतरनाक श्रेणी में रखा गया है। सर्दियों में यह स्थिति और खतरनाक हो जाती है। इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस की थीम ‘‘टाइम फॉर नेचर’ रखी गयी है। हम सभी पिछले करीब तीन महीनों में अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर प्रदूषण के खिलाफ बात तो करते रहे, लेकिन जून से सितम्बर तक प्रदूषण नियंत्रण के लिए कुछ भी ठोस नहीं कर पाये। व्यक्ति से लेकर सरकार तक सबने अपनी व्यक्तिगत व विस्तारवादी सोच को ही अहमियत दी। इसमें वातावरण, पर्यावरण और जीवों का जीवन उपेक्षित होता रहा। 22 सितंबर 2020 के ‘लैंसेट’ की चेतावनी और विगत कई वर्षों से देश और दुनिया के पर्यावरणविदों की चिंता को नजरअंदाज करना मानवीय सभ्यता के लिए आत्महत्या सिद्ध होगा।

विश्व पर्यावरण दिवस 2020 के तथ्य बता रहे हैं कि वातावरण के तीन प्रदूषणों (वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और मृदा प्रदूषण) की वजह से 30 खतरनाक रोग बढ़ रहे हैं। इनमें अनेक प्रकार के कैंसर, श्वसन संबंधी रोग, त्वचा रोग, पेट संबंधी रोग आदि की स्थिति दिन प्रतिदिन गम्भीर होती जा रही है। भोजन में पेस्टीसाइड, रासायनिक खाद्य, हवा में उद्योगों का ज़हर सब प्रकृति एवं जीवन विरोधी हैं। विकास (नकली विकास) के नशे में चूर आदमी स्वार्थ में आत्महंता हो गया है। कुपढ़ और जाहिल समाज अपने जैसे नेताओं को ही अपना भाग्यविधाता मान रहा है। नतीजा सामने है कि हम नष्ट होती सभ्यता के पिद्दी साबित हो रहे हैं।

2020-Doomsday-Clock-statement

जन स्वास्थ्य पर बात करते करते मैं पर्यावरण पर क्यों फोकस कर रहा हूं यह आप जरूर समझ रहे होंगे। आइए, आपको याद दिलाता हूं। सन् 2018 में ‘बुलेटिन आफ एटोमिक साइन्टिस्ट’ नामक एक वैज्ञानिक संगठन ने ‘डूम्‍स डे क्लॉक’ यानि कयामत की घड़ी के माध्यम से पृथ्वी पर आसन्न खतरे को प्रदर्शित किया। ‘डूम्‍स डे क्लॉक’ दरअसल एक प्रतीकात्मक घड़ी है जो यह बताती है कि पृथ्वी पर बहुत बड़े संकट की संभावना कितनी नजदीक है। इस घड़ी के संचालन औेर परिकल्पना से जुड़े दुनिया के 15 नोबेल पुरस्कार विजेता आपस में मिलकर हर साल यह तय करते हैं कि अब पर्यावरण और वैश्विक संकट की सम्भावना के अनुसार घड़ी की सुई को कहां रखना है। इस प्रतीकात्मक घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर बड़े संकट का पर्याय माना गया है। यानि यदि किसी वर्ष घड़ी की यह सुई 12 बजे या उसके नजदीक, जितना नजदीक आ जाए, समझें कि धरती और मानव पर पर्यावरणीय खतरा उतना ही ज्यादा है।

वर्ष 2018-19 में यह सुई 12 बजने में 2 मिनट पर रखी गयी थी। संकट के प्रतीक 12 बजे के समय से इन सुइयों की इतनी नजदीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में यह घड़ी हमें पर्यावरणीय खतरे की भयावहता और सम्भावना को दर्शाती है। ‘डूम्‍स डे क्लॉक’ की सुइयों के खतरनाक स्थिति के लिए तीन बड़े कारण बताये गये हैं- जलवायु परिवर्तन, परमाणु हथियार तथा सूचना तकनीक का दुरुपयोग। इन तीन कारणों से दुनिया और मानवता के समक्ष अस्तित्व के संकट की स्थिति खड़ी है।

प्रदूषण की वजह से उत्पन्न मानवीय संकट के मद्देनजर दुनिया के कई युवाओं नें ‘फ्राइडे फॉर फ्यूचर’ नामक एक आंदोलन चलाया हुआ है। विगत 15 मार्च 2019 को विश्व के 200 स्थानों पर लाखों छात्रों और युवाओं ने खड़े होकर धरती की रक्षा का संकल्प दुहराया। इस आंदोलन में शु़क्रवार को अलग अलग जगहों पर सैकड़ों छात्र इकट्ठा होते हैं और धरती की रक्षा का संकल्प दुहराते हैं। इस ‘फ्राइडे फॉर फ्यूचर’ अभियान को अनेक वैज्ञानिकों एवं मानवप्रिय संगठनों का सहयोग मिल रहा है। संयुक्त राज्य अमरीका में अनेक छात्रों ने तो वहां की सरकार पर यह मुकदमा कर रखा है कि प्रदूषण के कहर से अगली पीढ़ी की भविष्य के रक्षा के लिये उनकी सरकार जरूरी कदम नहीं उठा रही है। इन युवा छात्रों के समर्थन में कई महत्वपूर्ण पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भी अदालत से गुहार लगायी है।

उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2018 में जलवायु बदलाव पर वैज्ञानिकों की एक ऐसी रिपोर्ट आयी थी जिसे बहुत गम्भीर माना गया। इसे ‘इन्टरगवर्नमेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ की विशेष रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार वातावरण के तापमान वृद्धि को 1.5 सेल्सियस तक थामना जरूरी है। यदि तापमान में हो रही यह वृद्धि नहीं रूकी तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। पहले वातावरण के तापमान वृद्धि को 2 सेल्सियस तक रोकने की बात थी लेकिन अब इसे और घटा दिया गया है यानि स्थिति और खतरनाक हो चुकी है। रिपोर्ट के अनुसार यदि वर्ष 2030 तक हमने यह लक्ष्य पूरा नहीं किया तो हालात और बदतर हो जाएंगे। इस चेतावनी को यदि गम्भीरता से समझें तो यह दशक (यानि सन् 2020 से 2030 तक) पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।

विश्व स्तर पर पर्यावरण की अनदेखी का आरोप सबसे ज्यादा अमरीका पर लगा है। पर्यावरण सुधार के शुरूआती कन्वेनशन में शामिल रह कर भी अमरीका किसी अनुशासन को नहीं मानता। दुनिया जानती है कि विश्व पर्यावरण को बचाने की गरज से ‘पेरिस जलवायु समझौता’ को न मानने और अब उससे बाहर हो जाने का अमरीका का निर्णय कितना गैर जिम्मेदाराना है। उल्लेखनीय है कि पेरिस समझौते में अमीर देशों से कार्बन उत्सर्जन कम करने की अपील और उम्मीद की गयी थी, लेकिन अमरीका न तो कार्बन उत्सर्जन कम करना चाहता है और न ही उसका हर्जाना देना चाहता है। जाहिर है इससे पर्यावरण के ऊपर गहराते खतरे और बढ़ गये हैं। नतीजन अमरीका की अनदेखी से ‘‘पेरिस समझौता’’ ही एक मजाक बन कर रह गया है। इस लापरवाही का परिणाम पर्यावरण, खेती एवं जीव-जन्तुओं तथा मानव पर पड़ेगा जो घातक होगा।

कोराना वायरस संक्रमण, गहराते जलवायु संकट तथा बिगड़ी अर्थव्यवस्था की परिस्थितियों को देखें तो एक बात स्पष्ट है कि बड़ी पूंजी वाले संगठन व बड़ी राजनीतिक शक्तियां मिलकर न केवल पर्यावरण को बिगाड़ रहे हैं बल्कि पर्यावरण संरक्षण की मांग व बात करने वाले लोगों/समूह/संगठन को ही उल्टे धमका रही हैं। बीते वर्ष 20 सितम्बर को दुनिया भर में ‘क्लाइमेट स्ट्राइक’ तथा 20 से 27 सितम्बर तक ‘ग्लोबल क्लाइमेट स्ट्राइक सप्ताह’ के आयोजन में लगभग 150 देशों के युवाओं/छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया था। पर्यावरण रक्षा के ये सभी प्रयास अब भी एनजीओ के दायरे से बाहर निकल कर जन आंदोलन नहीं बन पाये हैं, लेकिन वैश्विक मानवीय संकट के मद्देनजर बिगड़ते पर्यावरण के प्रति जन जागरण तथा जन आंदोलन के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं बचा है।

दुनिया भर में पर्यावरण का कत्ल करने के लिए जिम्मेवार बड़ी पूंजी वाली कॉरपोरेट कम्पनियां तथा उनके राजनीतिक आका इस बात की परवाह भी नहीं करते कि उनके मुनाफे की कीमत करोड़ों लोगों और असंख्य जीव-जन्तुओं की नष्ट होती जिंदगी है। खेती के लिए कीटनाशकों एवं रासायनिक उर्वरकों का उपयोग, बड़े उद्योगों से होता प्रदूषण, भूमिगत जल तथा वायुमंडल की हवा को जहरीला बना रहा है। टिकाऊ खेती का संकट लगभग लाइलाज हो चला है। जेनेटिक तकनीक से तैयार बीजों की वजह से जैव-विविधता खतरे में है। खाद्य संकट के समाधान के नाम पर परोसा गया ‘ग्रीन रिवॉल्‍यूशन’ अब भोजन के अभाव में मरते लोगों की कब्रगाह सिद्ध हो रहा है। इस सच को न तो बड़ी कम्पनियां मान रही हैं और न ही देश का राजनीतिक नेतृत्व। हालात ऐसे हैं कि आग को बारूद से बुझाने के उपाय पर अमल किया जा रहा है और हम बेबस हैं।

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के उपाध्यक्ष रहे देश के जाने-माने जैव वैज्ञानिक पुष्प भार्गव की चेतावनी को याद कर लें। 7 अगस्त 2014 को देश के मूर्धन्य जैव वैज्ञानिक प्रो. भार्गव ने कहा था कि ‘जीएम (जेनेटिक मोडिफाइड) फसलों पर प्रतिबंध लगाना इसलिए जरूरी है कि यह पूरी मानवता और पर्यावरण के लिए न केवल हानिकारक है बल्कि आत्मघाती भी है। उन्होंने लगभग 500 अन्र्तराष्ट्रीय शोधों के हवाले से कहा था कि जीएम फसलें मनुष्य, जीव-जन्तु तथा पर्यावरण के लिए एक दीर्घकालीन संकट के रूप में हैं जिन्हें समय रहते यदि नियंत्रित नहीं किया गया तो स्थिति विकट ही नहीं, मानवीय दायरे से बदतर होगी और हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे।

‘कोरोना काल में पर्यावरण के संकट’ पर चर्चा करते हुए हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह दशक यदि हमने समाधान के प्रयासों के लिए गम्भीरता से उपयोग में नहीं लिया तो महाविनाश का ताण्डव देखने के लिए हमें ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ेगा। इस पूरे परिदृश्य में त्रासद तो यह है कि इस महाविनाश के शिकार भी हम ही होंगे। क्या अब भी हम कुछ सबक लेंगे या भाग्य भरोसे ही जीते रहेंगे? सोचिए। अब भी कुछ वक्त है संभलने के लिए।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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